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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 630
    ऋषिः - सार्पराज्ञी देवता - सूर्यः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    7

    आ꣡यं गौः पृश्नि꣢꣯रक्रमी꣣द꣡स꣢दन्मा꣣त꣡रं꣢ पु꣣रः꣢ । पि꣣त꣡रं꣢ च प्र꣣य꣡न्त्स्वः꣢ ॥६३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । अ꣣य꣢म् । गौः । पृ꣡श्निः꣢꣯ । अ꣣क्रमीत् । अ꣡स꣢꣯दत् । मा꣣त꣡र꣢म् । पु꣣रः꣢ । पि꣣त꣡र꣢म् । च꣣ । प्रय꣢न् । प्र꣣ । य꣢न् । स्व३रि꣡ति꣢ ॥६३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्त्स्वः ॥६३०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अयम् । गौः । पृश्निः । अक्रमीत् । असदत् । मातरम् । पुरः । पितरम् । च । प्रयन् । प्र । यन् । स्व३रिति ॥६३०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 630
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सूर्य, पृथिवीलोक, परमात्मा, जीवात्मा और स्तोता का वर्णन है।

    पदार्थ

    प्रथम—सूर्य के पक्ष में। (अयम्) यह (पृश्निः गौः) रंग-बिरंगा सूर्य (आ अक्रमीत्) चारों ओर अक्ष-परिभ्रमण कर रहा है। (पुरः) सामने स्थित हुआ (मातरम्) हमारी मातृभूमि को (असदत्) किरणों द्वारा प्राप्त होता है, (च) और (पितरम्) हमारे पितृतुल्य (स्वः) अन्तरिक्ष को भी (प्रयन्) किरणों द्वारा प्राप्त होता हुआ स्थित है ॥ द्वितीय—भूमण्डल के पक्ष में। (अयम्) यह (पृश्निः) रंग-बिरंगा (गौः) भूमण्डल (आ अक्रमीत्) अपने चारों ओर अक्ष-परिभ्रमण कर रहा है और (पुरः) पश्चिम से पूर्व-पूर्व की ओर (पितरम्) अपने पिता (स्वः) सूर्य के चारों ओर भी (प्रयन्) गति करता हुआ (मातरम्) अन्तरिक्ष रूप माता की गोद में (असदत्) स्थित है। पृथिवी का भ्रमण भी सूर्य के ही महत्त्व को प्रकट करता है, अतः इस पक्ष में भी मन्त्र का देवता सूर्य होने में कोई दोष नहीं आता ॥ तृतीय—परमेश्वर के पक्ष में। (अयम्) यह (पृश्निः) ज्योतिर्मय (गौः) सर्वज्ञ, सर्वव्यापी परमेश्वर (आ अक्रमीत्) शरीर में और ब्रह्माण्ड में चारों ओर गया हुआ है, अर्थात् अन्तर्यामी है, (मातरम्) निश्चयात्मक ज्ञान की जननी बुद्धि के (पुरः) आगे (असदत्) स्थित होता है, (च) और (पितरम्) पालनकर्ता (स्वः) सुख के भोक्ता जीवात्मा को (प्रयन्) प्राप्त होता है ॥ चतुर्थ—जीवात्मा के पक्ष में। (अयम्) यह (पृश्निः) चित्र-विचित्र कर्मसंस्कारों से युक्त (गौः) प्रयत्नशील, विज्ञाता जीवात्मा (आ अक्रमीत्) कर्मों के अनुसार मनुष्य-शरीर को प्राप्त होता है। (पुरः) पहले (मातरम्) माता को अर्थात् माता के गर्भाशय को (असदत्) प्राप्त होता है, (च) और जन्म के अनन्तर (स्वः) विज्ञानप्रकाश से युक्त (पितरम्) पिता को (प्रयन्) प्राप्त होता है ॥ पञ्चम—स्तोता के पक्ष में। (अयम्) यह (पृश्निः) आश्चर्यमय गुणोंवाला (गौः) ज्ञानज्योति से सूर्यवत् भासमान स्तोता (आ अक्रमीत्) चारों ओर पुरुषार्थ करता है, (पुरः) आगे होकर (मातरम्) वेदवाणी रूप माता को (असदत्) प्राप्त करता है, (च) और (स्वः)प्रकाशमान (पितरम्) परमात्मा रूप पिता को (प्रयन्) प्राप्त करने का यत्न करता है ॥ निघण्टु ३।१६ के अनुसार गौ स्तोता का वाचक होता है ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥४॥

    भावार्थ

    सूर्य की स्थानान्तर गति नहीं है, वह अपनी धुरी पर ही घूमता है और पृथिवी तथा अन्य ग्रहों-उपग्रहों सोम, मङ्गल, बुध, बृहस्पति आदियों को अपनी किरणों से प्राप्त होकर प्रकाशित करता है। पृथिवी की दो प्रकार की गति है, पहली उसकी अपनी धुरी पर, जिसके द्वारा अहोरात्र बनते हैं, दूसरी अपनी नियत कक्षा में सूर्य के चारों ओर, जिससे संवत्सरचक्र चलता है। परमेश्वर सर्वव्यापक होता हुआ शरीर में स्थित आत्मा, मन और बुद्धि आदियों का तथा ब्रह्माण्ड में स्थित सूर्य, चन्द्रमा एवं पृथिवी आदियों का सञ्चालन करता है। जीवात्मा शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार माता के गर्भ को प्राप्त करके जन्म ग्रहण करता है और परमात्मा का स्तोता पुरुषार्थी होकर वेदवाणीरूप माता को तथा पिता परमात्मा को प्राप्त करता है ॥४॥

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    पदार्थ

    (अयम्) यह (गौः) स्तोता—उपासक “गौः स्तोतृनाम” [निघं॰ ३.१६] (पृश्निः) परमात्मज्योति का स्पर्श करने वाला—प्राप्त करने वाला उपासक आत्मा “पृश्निः संस्पृष्टा भासम्” [निरु॰ २.१४] (आ-अक्रमीत्) संसार में आया—आता है (पुरः-मातरं पितरं च-आसदत्) प्रथम माता और पिता को प्राप्त होता है पुनः (प्रयन्) प्रगति करता हुआ (स्वः) मोक्षधाम को पहुँचाता है।

    भावार्थ

    यह स्तुतिकर्ता उपासक परमात्मज्योति को स्पर्श करने वाले प्राप्त करने वाला आत्मा—जीवात्मा संसार में अवतरण करता है प्रथम माता पिता को प्राप्त होता है, पिता को बीजभाव से माता का गर्भधारण से पुनः उत्पन्न होकर जीवन में प्रगति करता हुआ—उन्नति करता हुआ नितान्त सुख स्थान मोक्षधाम को प्राप्ता हो जाता है॥४॥

    टिप्पणी

    [*52. “वाग्वै सर्पराज्ञी” [कौ॰ २७.४]।] [*53. खण्ड के अन्त तक।]

    विशेष

    ऋषिः—सार्पराज्ञी (वाक्शक्तिसम्पन्न व्यक्ति*52)॥ छन्दः—गायत्री*53॥<br>

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    विषय

    जिज्ञासु

    पदार्थ

    (अयम्) = यह (गौः) = [गच्छति इति] पुरुषार्थशील - आलस्य से सदा दूर रहनेवाला (पृश्नि:) = [प्रच्छ ज्ञीप्सायम्] ज्ञानप्राप्ति की प्रबल इच्छावाला (आ) = समन्तात् (अक्रमीत्) = क्रमण करता है। वेद में पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करने के कारण जीव को 'पञ्चौदनः' कहा है। यह पञ्चौदन ‘पञ्चधा विक्रमताम्' 'पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से पुरुषार्थ करे' ऐसा वेद का आदेश है। यह पृश्नि- जिज्ञासु ऐसा ही करता है। ज्ञान 'परिप्रश्नेन' = नानाविध प्रश्नों [allround questioning] के करने से ही प्राप्त होता है। यह पृश्नि (पुरः) = सर्वप्रथम (मातरम्) = वेदमाता को [स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्] (असदत्) = प्राप्त करता है उसे समझने का प्रयत्न करता है। (च) = और इस वेदज्ञान के मार्ग से (पितरम्) = उस रक्षक प्रभु को (प्रयन्) = प्रकर्षेण प्राप्त होता है, जो प्रभु (स्वः) = स्वयं प्रकाशमान हैं।

    प्रभु की प्राप्ति की कामनावाले को निम्न बातें करनी चाहिएँ

    १. (गौः) = वह गतिशील हो, ‘पौरुषं नृषु' मनुष्यों में पौरुष ही प्रभु का रूप है। 

    २. (पृश्नि:) = उसके अन्दर प्रबल जिज्ञासा हो । जिज्ञासु भक्त ही अन्त में ज्ञानी भक्त बनता है।

    ३. (आ अक्रमीत्) = यह सब ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञानप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करे। इस ज्ञान से इसे कण-कण में प्रभु की महिमा के दर्शन होंगे।

    ४. (असदत् मातरं पुरः) = यह सर्वप्रथम वेदमाता को अपनाये, क्योंकि 'सर्वे वेदाः यत्पदमामनन्ति'=सारे वेद उस प्रभु का प्रतिपादन करते हैं। यह वेदवाणी माता की भाँति कल्याणी है-हमारे जीवन का निर्माण करके ज्ञान को बढ़ाकर हमें प्रभुदर्शन कराती है। ऐसा करने पर हमें उस प्रभु का दर्शन होता है - वह ज्योतिर्मय रूप में हमारे हृदयों में प्रकट होता है। हमें पग-पग पर उस प्रभु के रक्षण-विधानों का आभास मिलता है और हम उसे 'पिता' के रूप में देखते हैं।

    प्रस्तुत मन्त्र का देवता 'आत्मा' है। इस आत्मा का दर्शन उसी को होता है जो अपने जीवन को 'सार्प'= गतिशील बनाता है और 'राज्ञी' इस गतिशीलता से अपने जीवन को दीप्त बनाता है। एवं, ऋषि का नाम ‘सार्पराज्ञी' हो गया है। 

    भावार्थ

    जिज्ञासु को ही प्रभु का ज्ञान होता है।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा०  = ( अयं ) = यह ( गौः ) = गमनशील, सर्वत्रव्यापक या वेदवाणीस्वरूप, ( पृश्निः ) = सर्वान्तर्यामी समस्त संसार के तेजः पुन्जों को स्पर्श करनेहारा, ( पुरः ) = साक्षात् ( आ अक्रमीत् ) = प्रकट होता है । और ( मातरं ) = ज्ञान के प्राप्त करने हारे ज्ञाता के ( पुरः ) = समक्ष ही ( असदत् ) = विराजता है और ( पितरं ) = अपनी प्रजाओं और तत्स्थानीय इन्द्रियों के पालक को भी ( स्वः ) = सुखस्वरूप होकर ( प्रयन् ) = प्राप्त होता है ।

    जिस प्रकार सूर्य, पृथिवी, माता पिता और अन्तरिक्ष में व्याप्त हैं उसी प्रकार परमेश्वर विद्वानों और प्रजापालकों के हृदय में प्रकट होता है । वे ईश्वर के प्रेम से प्रजा का पालन और उपकार करते हैं । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - सार्पराज्ञी।

    देवता - सूर्यः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ गोनाम्ना सूर्यो भूलोकः परमात्मा जीवात्मा स्तोता च वर्ण्यते।

    पदार्थः

    प्रथमः—सूर्यपक्षे। (अयम्) एषः (पृश्निः गौः) चित्रवर्णः सूर्यः। पृश्निः आदित्यो भवति, प्राश्नुत एनं वर्ण इति नैरुक्ताः। संस्पृष्टा रसान्, संस्पृष्टा भासं ज्योतिषां, संस्पृष्टो भासेति वा। गौः आदित्यो भवति, गमयति रसान्, गच्छत्यन्तरिक्षे। निरु० २।१४। (आ अक्रमीत्) परितः क्राम्यति, अक्षपरिभ्रमणं करोतीत्यर्थः। (पुरः) समक्षं स्थितः सन् (मातरम्) अस्मन्मातृभूतां भूमिम् (असदत्) आसीदति, किरणैः प्राप्नोति। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु। अत्र गत्यर्थात् सामान्यार्थे लुङ्। (पितरम्) अस्मत्पितृभूतम् (स्वः च) अन्तरिक्षं च (प्रयन्) स्वरश्मिभिः प्रगच्छन्, स्थितोऽस्तीति शेषः ॥ अथ द्वितीयः—भूमण्डलपक्षे। (अयम्) एषः (पृश्निः) नानावर्णः (गौः) भूगोलः। इयं पृथिवी पृश्निः। तै० ब्रा० १।४।१।५। इति ह पृथिव्याः पृश्नित्वं विज्ञायते। (आ अक्रमीत्) आ समन्तात् अक्षपरिभ्रमणं करोति। (पुरः) पश्चिमतः पूर्वं पूर्वम् (पितरम्) पितृभूतम् (स्वः) आदित्यं परितः। स्वः आदित्यो भवति इति निरुक्तम्। २।१४। (प्रयन्) अण्डाकृतिमार्गे वेगेन धावन् (मातरम्) अन्तरिक्षम्, (मातुः) अन्तरिक्षस्य अङ्कम् इत्यर्थः। माता अन्तरिक्षम्, निर्मीयन्तेऽस्मिन् भूतानि। निरु० २।८। (असदत्) आसीदति। पृथिव्या भ्रमणमपि सूर्यस्यैव महत्त्वं द्योतयतीत्यत्रापि मन्त्रस्य सूर्यदेवतात्वं न व्याहन्यते ॥२ अथ तृतीयः—परमेश्वरपक्षे, ऋचोऽस्या वैकल्पिकत्वेनात्म- देवताकत्वात्।३ (अयम्) एषः (पृश्निः) भासा संस्पृष्टः (गौः) सर्वज्ञः सर्वव्यापी परमेश्वरः। गच्छति व्याप्नोति जानाति वा सर्वमिति गौः परमेश्वरः। (आ अक्रमीत्) पिण्डे ब्रह्माण्डे वा सर्वत्र पादविक्षेपं करोति, अन्तर्यामित्वेन तिष्ठतीत्यर्थः। (मातरम्) अध्यवसायात्मकज्ञानस्य निर्मात्रीं बुद्धिम् (पुरः) समक्षम् (असदत्) तिष्ठति, (पितरम्) पालकम् (स्वः च) सुखस्य भोक्तारं जीवात्मानं च (प्रयन्) प्राप्नुवन् भवति ॥ अथ चतुर्थः—जीवात्मपक्षे। (अयम्) एषः (पृश्निः) चित्रविचित्रकर्मसंस्कारः (गौः) प्रयत्नशीलो विज्ञाता वा जीवात्मा। गच्छति चेष्टते जानाति वा स गौः आत्मा। (आ अक्रमीत्) कर्मानुसारं मानवदेहं प्राप्नोति, (पुरः) प्रथमम् (मातरम्) जननीम्, तस्या उदरम् इत्यर्थः (असदत्) गच्छति, (च) पश्चाच्च जन्मानन्तरम् (स्वः) विज्ञानप्रकाशयुक्तम् (पितरम्) जनकम् (प्रयन्) प्रगच्छन् भवति ॥ अथ पञ्चमः—स्तोतृपक्षे। (अयम्) एषः (पृश्निः) चित्रगुणोपेतः (गौः) सूर्यवत् ज्ञानमयेन ज्योतिषा युक्तः स्तोता। गौरिति स्तोतृनामसु पठितम्। निघं० ३।१६। (आ अक्रमीत्) सर्वतः पुरुषार्थरूपंपादविक्षेपं करोति, (पुरः) अग्रे भूत्वा (मातरम्) वेदवाग्रूपां मातरम् (असदत्) प्राप्नोति, ततस्तन्माध्यमेन (स्वः) प्रकाशमयम् (पितरम् च) परमात्मरूपं जनकं च (प्रयन्) प्राप्नुवन् भवतीति शेषः, प्राप्तुं यतते इत्यर्थः ॥४॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥४॥

    भावार्थः

    सूर्यस्य स्थानान्तरगतिर्नास्ति, स स्वधुर्येव परिभ्रमति, पृथिवीमितरांश्च ग्रहोपग्रहान् सोममङ्गलबुधबृहस्पत्यादीन् स्वकीयै रश्मिभिरुपगम्य प्रकाशयति। पृथिव्याश्च द्विविधा गतिरस्ति, प्रथमा स्वधुरि यथाऽहोरात्रौ भवतः, द्वितीया च नियतकक्षायां सूर्यं परितः, यया संवत्सरचक्रं प्रवर्तते। परमेश्वरः सर्वव्यापकः सन् शरीरस्थान् आत्ममनोबुद्ध्यादीन् ब्रह्माण्डस्थांश्च सूर्यचन्द्रपृथिव्यादीन् सञ्चालयति। जीवात्मा शुभाशुभकर्मानुसारं मातुर्गर्भं प्राप्य जन्म गृह्णाति। परमात्मनः स्तोता च पुरुषार्थी भूत्वा वेदवाग्रूपां मातरं पितरं परमात्मानं चोपगच्छति ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १०।१८९।१ देवता सार्पराज्ञी सूर्यो वा। य० ३।६ ऋषिः सर्पराज्ञी कद्रूः। देवता अग्निः। साम० १३७६। अथ० ६।३१।१ ऋषिः उपरिबभ्रवः, देवता गौः। अथ० २०।४८।४ ऋषिः सर्पराज्ञी, देवता सूर्यः, गौः। २. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकायां पृथिव्यादिलोकभ्रमणप्रकरणे भूगोलसूर्यचन्द्रादिलोकभ्रमणविषये, यजुर्भाष्ये च भूलोकस्य सूर्यं परितो भ्रमणविषये व्याख्यातः। ३. आयं गौः पृश्निरित्यस्य सार्पराज्ञी समैक्षत। ऋचस्तिस्रो भवेदासां विकल्पेनात्मदेवता ॥ इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This Earth revolves in the space. It revolves with its mother water in its orbit. It moves graciously round its father, the Sun.

    Translator Comment

    See Yajur 3-6.^Water is the mother of Earth as Earth is produced by the mixture of the particles of water with its own particles, and remains pregnant; with water. Sun is the father of the Earth, as from the Sun, it derives all light and sustenance.

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    Meaning

    This earth moves round and round eastward abiding in its mother waters of the firmament and revolves round and round its father sustainer, the sun in heaven. (Rg. 10-189-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अयम्)(गौः) સ્તોતા-ઉપાસક (पृश्निः) પરમજ્યોતિનો સ્પર્શ કરનાર-પ્રાપ્ત કરનાર ઉપાસક આત્મા (आ अक्रमीत्) સંસારમાં આવ્યો-આવે છે (पुरः मातरं पितरं च आसदत्) પ્રથમ માતા અને પિતાને પ્રાપ્ત થાય છે પુનઃ (प्रयन्) પ્રગતિ કરીને (स्वः) મોક્ષધામમાં પહોંચે છે. (૪)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : એ સ્તુતિકર્તા ઉપાસક પરમજ્યોતિને સ્પર્શ કરનાર, પ્રાપ્ત કરનાર આત્મા-જીવાત્મા સંસારમાં અવતરણ કરે છે. પ્રથમ માતા, પિતાને પ્રાપ્ત થાય છે, પિતાના બીજભાવથી અને માતાના ગર્ભધારણથી પુનઃ ઉત્પન્ન થઈને જીવનમાં પ્રગતિ કરતાં-ઉન્નતિ કરતાં નિતાન્ત સુખ સ્થાન મોક્ષધામને પ્રાપ્ત થાય છે. (૪)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    ماتا پِتا کی طرح بھگوان

    Lafzi Maana

    سب جگہ موجود پرماتما ماتا پِتا کی طرح ہم سب کے خانئہ دِل میں بیٹھا ہوا ہر وقت حاصل ہے، جو عابد اُپاسک اُس کی طرف قدم بڑھاتے بڑھتے چلے جاتے ہیں، اُنہیں اُس کا وِصال نصیب ہو جاتا ہے۔

    Tashree

    ہر جگیہ موجود ہے پر وہ نظر آتا نہیں، یوگ سادھن کے بنا اُسکو کوئی پاتا نہیں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सूर्याची स्थानांतर गती नाही, तो आपल्या धुरीवरच फिरतो पृथ्वी व अन्य ग्रह उपग्रहांना सोम, मंगळ, बुध, बृहस्पती इत्यादींना आपल्या किरणांनी प्रकाशित करतो. पृथ्वीच्या दोन गती आहेत. पहिली तिच्या धुरीवर, ज्यामुळे दिवस व रात्र बनतात. दुसरी आपल्या निश्चित कक्षेत सूर्याच्या चहूकडे (चारही बाजूंनी), ज्यामुळे संवत्सर चक्र चालते.

    टिप्पणी

    परमेश्वर सर्वव्यापक असून शरीरात स्थित आत्मा, मन, बुद्धी इत्यादींचे व ब्रह्मांडातील सूर्य, चंद्र व पृथ्वी इत्यादींचे संचालन करतो. जीवात्मा शुभ व अशुभ कर्मानुसार मातेचा गर्भ प्राप्त करून जन्म ग्रहण करतो व परमेश्वराचा स्तोता, पुरुषार्थी बनून वेदवाणीरूप मातेला व पिता परमात्म्याला प्राप्त करतो ॥४॥

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    विषय

    ङ्गगोफ नावाने सूर्य, भूलोक, परमात्मा, जीवाला आणि उपासकाचे वर्णन

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (सूर्यपूर)-अयम्) हा पृश्विगौः) विविध-रंगी सूर्य (आ अक्रमीत्) चारही दिशांना अक्ष-परिभ्रमण करीत आहे. (पुरः) समोर स्थित (मातरम्) आमच्या मातृभूमीपर्यंत हा सूर्य (असदत्) आपल्या किरणांच्या साह्याने पोहचतो. (च) आणि (पितरम्) आम्हाला पितृतुल्य असलेल्या (स्वः) अंतरिक्षापर्यंत देखील हा सूर्य (प्रयन्) किरणांद्वारे प्राप्त होतो.।। द्वितीय अर्थ - (भू मंडळपर) (अयम्) हे (पुश्विः गौः) रंगी-बेरंगी (गौः) भूमंडळ (आ अक्रमीत) आपल्याभोवती अक्ष-परिभ्रमण करीत आहे. आणि (पुरः) पश्चिमेकडून पूर्वेकडे (पितरम्) आपल्या पित्याच्या म्हणजे (स्वः) सूर्याच्याभोवतीदेखील (प्रयन्) गति करीत (मातरम्) अंतरिक्षरूप मातेच्या कुशीत (असदत्) स्थित आहे. पृथ्वीच्या भ्रमणानेदेखील सूर्याचे महत्त्वच स्पष्ट होत आहे, म्हणून भूमंडळपक्षी मंत्र देवता सूर्य असल्यामुळे काही दोष येत नाही.।। तृतीय अर्थ - (परमेश्वरपर) (असम्) हा (पृश्निः) ज्योतिर्मय (गौः) सर्वज्ञानी, सर्वव्यापी परमेश्वर (आ अक्रमीत) शरीरात व ब्रह्मांडात सर्वदेशांपर्यंत पोहचलेला आहे म्हणजे अंतर्यामी आहे. तो (मातरम्) विश्वयात्मक ज्ञानाची जननी जी बुद्धी, त्या बुद्धीच्या (पुरः) पुढे (असदत्) स्थित असतो (म्हणजे त्यास ज्ञानाद्वारे जाणता येते.) (च) आणि (पितरम्) पालनकर्ता (स्वः) सुखाचा भोक्ता जो आत्मा, त्या आत्म्यास (प्रयन्) प्राप्त होतो.।। चतुर्थ अर्थ - (जीवात्मापर) (अयम्) हा (पृश्विः) चित्र-विचित्र संस्कारानी युक्त असा (गौः) प्रयत्नशीलए विज्ञाता जीवाला (आ अक्रमीत) कर्माप्रमाणे मनुष्यशरीर प्राप्त करतो (पुरः) आधी तो (मातरम्) मातेच्या गर्भति (असदत्) देतो वा प्राप्त होतो (च) आणि जन्मानंतर (स्वः) विज्ञान-प्रकाशाने युक्त (पितरम्) पिता (प्रयन्) प्राप्त करतो (जीवात्म्यास कर्माप्रमाणे आईवडील प्राप्त होतात.।। पंचम अर्थ - (स्तोतापर) अयम्) हा (पृश्विः) आश्चर्यमय गुणांनी युक्त (गौः) ज्ञान-ज्योतीद्वारे सूर्यवत् भासमान स्तोता (उपासक) (आ अक्रमीत्) सर्वदृष्ट्या पुरुषार्थ करतो आणि (पुरः) पुढे पुढे प्रगती करीत (मातरम्) वेदवाणीरूप मातेला (असदत्) प्राप्त करतो. (वेदज्ञान पूर्णपणे ज्ञात होते) (च) आरि (स्वः) प्रकाशमान (पितरम्) परमात्मरूप पित्यास (प्रयन्) प्राप्त करण्याचा यत्न करतो.।। (निघंटु३/१५प्रमाणे गौ शब्द स्तोताचा वाचक आहे)।।४।।

    भावार्थ

    सूर्याचे स्थानांतर गती नाही, तो स्वतःच्या धुरीवर भ्रमण करतो आणि पृथ्वी व इतर ग्रह-उपग्रह, सोम, मंगळ, बुध, गुरू आदींना आपल्या किरणांद्वारे प्रकाशित करतो. पृथ्वीची गती दोन प्रकारची आहे, पहिली गती म्हणजे ती स्वतःभोवती फिरते आणि त्यामुळे दिवस-रात्र होतात. पृथ्वीचे दुसरे भ्रमण सूर्याभोवती होते, ज्यामुळे संवत्सर-चक्र चालते. परमेश्वर सर्वव्यापक असल्यामुळे शरीरात स्थित आत्मा, मन, बुद्धी आदीचे तसेच ब्रह्मांडात स्थित सूर्य, चंद्र व पृथ्वी आदीचे संचालन करतो. जीवात्मा त्याच्या शुभ-अशुभ कर्मानुसार मातेच्या गर्भात जातो व जन्म घेतो आणि परमेश्वराचा स्रोता पुरुषार्थाद्वारे वेदवाणी रूप माता व परमात्मरूप परमपिता प्राप्त करतो.।।४।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।।४।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்த வியாப்த ஒளியுடனான பசு(ஜீவன்) உதயமாகி பூர்வத்தில் தாய் (பூமி) முன் பிதாவான சுவர்க்கத்திற்கு சென்று கொண்டு உட்காருகிறார்.

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