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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 65
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    26

    इ꣣दं꣢ त꣣ ए꣡कं꣢ प꣣र꣡ उ꣢ त꣣ ए꣡कं꣢ तृ꣣ती꣡ये꣢न꣣ ज्यो꣡ति꣢षा꣣ सं꣡ वि꣢शस्व । सं꣣वे꣡श꣢नस्त꣣न्वे꣢३꣱चा꣡रु꣢रेधि प्रि꣣यो꣢ दे꣣वा꣡नां꣢ पर꣣मे꣢ ज꣣नि꣡त्रे꣢ ॥६५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣द꣢म् । ते꣣ । ए꣡क꣢꣯म् । प꣣रः꣢ । उ꣣ । ते । ए꣡क꣢꣯म् । तृ꣣ती꣡ये꣢न । ज्यो꣡ति꣢꣯षा । सम् । वि꣣शस्व । संवे꣡श꣢नः । स꣣म् । वे꣡श꣢꣯नः । त꣡न्वे꣢꣯ । चा꣡रुः꣢꣯ । ए꣣धि । प्रियः꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । प꣣रमे꣢ । ज꣣नि꣡त्रे꣢ ॥६५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं त एकं पर उ त एकं तृतीयेन ज्योतिषा सं विशस्व । संवेशनस्तन्वे३चारुरेधि प्रियो देवानां परमे जनित्रे ॥६५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । ते । एकम् । परः । उ । ते । एकम् । तृतीयेन । ज्योतिषा । सम् । विशस्व । संवेशनः । सम् । वेशनः । तन्वे । चारुः । एधि । प्रियः । देवानाम् । परमे । जनित्रे ॥६५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 65
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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    हिन्दी (4)

    विषय

    अगला मन्त्र परमात्मा और जीवात्मा को लक्ष्य करके कहा गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे परमात्मन् ! (इदम्) यह, मेरे समीप विद्यमान पार्थिव अग्निरूप (ते) तेरी (एकम्) एक ज्योति है, (उ) और (परः) द्युलोक में विद्यमान, सूर्यरूप (ते) तेरी (एकम्) एक दूसरी ज्योति है। तू उससे भिन्न (तृतीयेन ज्योतिषा) तीसरी ज्योति से, निज ज्योतिर्मय स्वरूप से (संविशस्व) मेरे आत्मा मे भली-भाँति प्रविष्ट हो। (परमे) श्रेष्ठ (जनित्रे) आविर्भाव-स्थान मेरे आत्मा में (संवेशनः) प्रवेशकर्ता तू (तन्वे) अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोशों सहित शरीर के लिए (चारुः) हितकारी, तथा (देवानाम्) इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि देवों का (प्रियः) प्रियकारी (एधि) हो ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। हे जीवात्मन् ! (इदम्) यह चक्षु आदि इन्द्रिय रूप (ते) तेरी (एकम्) एक ज्योति है, (उ) और (परः) उससे परे मन रूप (ते) तेरी (एकम्) एक दूसरी ज्योति है। तू (तृतीयेन) तीसरी परमात्मा रूप (ज्योतिषा) ज्योति से (संविशस्व) संगत हो। (परमे) सर्वोत्कृष्ट (जनित्रे) उत्पादक परमात्मा में (संवेशनः) संगत हुआ तू (तन्वे) अपने आश्रयभूत देह-संघात के लिए (चारुः) कल्याणकारी, और (देवानाम्) दिव्य गुणों का (प्रियः) स्नेहपात्र (एधि) हो ॥३॥

    भावार्थ

    पार्थिव अग्नि तथा सूर्यरूप अग्नि में परमात्मा की ही ज्योति प्रदीप्त हो रही है, जैसा कि कहा भी है—अग्नि में परमेश्वररूप अग्नि प्रविष्ट होकर विचर रहा है’, ऋ० ४।३९।९; जो आदित्य में पुरुष बैठा है, वह मैं परमेश्वर ही हूँ’, य० ४०।१७; उसी की चमक से यह सब-कुछ चमक रहा है’, कठ० ५।१५। इसलिए पार्थिव अग्नि और सूर्याग्नि दोनों परमात्मा की ही ज्योतियाँ हैं। परन्तु परमात्मा की वास्तविक तीसरी ज्योति उसका अपना स्वाभाविक तेज ही है। उसी तेज से भक्तों के आत्मा में प्रवेश करके वह उनका कल्याण करता है और शरीर, प्राण, मन, बुद्धि आदि का हित-सम्पादन करता है। अतः उसकी तीसरी ज्योति को प्राप्त करने के लिए योगाभ्यास की विधि से सबको प्रयत्न करना चाहिए। मन्त्र के द्वितीय अर्थ में जीवात्मा को सम्बोधित किया गया है। हे जीवात्मन् ! तेरी एक ज्योति चक्षु, श्रोत्र आदि हैं, दूसरी ज्योति मन है, जैसा कि वेद में अन्यत्र कहा है—प्राणियों के अन्दर सबसे अधिक वेगवान् एक मनरूप ध्रुव ज्योति दर्शन करने के लिए निहित है, ऋ० ६।९।५। पर ये दोनों ज्योतियाँ साधनरूप हैं, साध्यरूप ज्योति तो तीसरी परमात्म-ज्योति ही है। अतः उसे ही प्राप्त करने के लिए प्राणपण से यत्न कर ॥३॥

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    पदार्थ

    (ते-इदम्-एकम्) हे परमात्माग्ने! यह पृथिवीस्थ अग्नि तेरी एक ज्योति है (परः-उ ते-एकम्) पर—द्युलोकस्थ सूर्य अग्नि तेरी दूसरी ज्योति है (तृतीयेन ज्योतिषा संविशस्व) तीसरी तेरी ज्योति—अमृत ज्योतिस्वरूप है उससे हमारे अन्दर प्रवेश कर। (संवेशनः) अन्दर संवेश गहन प्रवेश समागम करने वाला तू (तन्वे) अपने तनुरूप मुझ आत्मा में “य आत्मनि तिष्ठन् यस्यात्मा शरीरम्” [श॰ १४.६.७.३२] (चारुः-एधि) भली प्रकार हो—रहो (देवानां प्रियः) तू मुमुक्षुओं का प्रिय है—स्नेही है (परमे जनित्रे) और मैं तुझ परम उत्पादनाधार में समर्पित हूँ।

    भावार्थ

    द्यावापृथिवी में नीचे ऊपर अग्नि और सूर्य परमात्मा की दो ज्योतियाँ है “तस्य भासा सर्वमिदं विभाति” [कठो॰ ५.१५] ये ज्योति तो दिन रात प्राप्त होती हैं काम आती हैं परन्तु तृतीय ज्योति परमात्मा की अमृतस्वरूप ज्योति है, जिसके लिये कहा है “परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते” [छान्दो॰ ८.३.४] उस अपनी अमर ज्योति को परमात्मा हमारे आत्मा में प्रविष्ट करता है तब ही आत्मकल्याण होता है वह मुमुक्षुओं का प्रिय है परन्तु परमात्मा अपनी अमृत ज्योति को तब देता है जबकि उस परम उत्पत्तिस्थान परमात्मा में अपना समर्पण कर दिया जाता है॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—बृहदुक्थः (बढ़ चढ़कर वक्ता—स्तुतिकर्ता उपासक)॥<br>

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    विषय

    तीन ज्योतियाँ

    पदार्थ

    प्रभु जीव से कहते हैं कि १. (इदं ते एकम्) = [ज्योतिः] =यह तेरी प्रथम ज्योति है। स्वास्थ्य से प्राप्त होनेवाली शरीर की कान्ति ही जीव की प्रथम ज्योति है। यदि एक व्यक्ति स्वस्थ रहे तो उसके शरीर पर एक चमक होगी।

    शरीर में अग्नि [जठराग्नि] का कार्य ठीक चलता रहे तो रोग नहीं आते और स्वास्थ्य ठीक बना रहता है, अतः जिस प्रकार पृथिवी की ज्योति अग्नि है उसी प्रकार पार्थिव शरीर की ज्योति भी इसी जाठर - अग्नि से उत्पन्न होती है। इसके बाद प्रभु कहते हैं कि

    २. (उ)=और (ते)=तेरी (एकम्)=एक परम् [ज्योति:] इस शारीरिक ज्योति से (पर:)=अधिक उत्कृष्ट ज्योति है, जिसे 'मानस ज्योति' कहा जाता है। शरीर को स्वस्थ रखने से जैसे शारीरिक कान्ति प्राप्त होती है उसी प्रकार मन को स्वस्थ रखने से यह मानस ज्योति उपलब्ध होती है। मन में किसी के प्रति द्वेष न होने, राग-द्वेष - मोहादि मलों से शून्य होकर मन के शुचि होने से जो मानस आनन्द प्राप्त होता है, वह एक अनुपम आनन्द है। उस समय अन्तरिक्ष की ज्योति चन्द्रमा की भाँति यह हृदयान्तरिक्ष की ज्योति मन भी खूब दीप्तिमय होता है। निर्मल चन्द्र आह्लाद उत्पन्न करता है, निर्मल मन भी उसी प्रकार आह्लादमय होता है।

    ३. शरीर के स्वास्थ्य और मन की निर्देषता के पश्चात् प्रभु कहते हैं कि तू अब (तृतीयेन)= तीसरी (ज्योतिषा)=ज्योति के साथ (संविशस्व)=आनन्द लेनेवाला बन [ संविश् = to enjoy] तथा प्रतिक्षण उसी के प्राप्त करने में लगा रह । [ संविश्=to be engaged in]। यह तृतीय ज्योति मस्तिष्करूप द्युलोक की ज्योति बुद्धिरूप सूर्य है। जीव के कर्त्तव्य की परिनिष्ठा स्वास्थ्य व निर्द्वेषता के साथ नहीं हो जाती, उसे तो बुद्धि का विकास करके ही विश्रान्ति लेनी है। जैसे सूर्य के बिना अग्नि व चन्द्र की सत्ता नहीं हो सकती, उसी प्रकार बुद्धि निर्द्वेषता व स्वास्थ्य को जन्म देती है।

    मनुष्य ने केवल स्वास्थ्य पर ध्यान दिया तो उसने हाथी बनने को ही अपना लक्ष्य समझ लिया। केवल निर्द्वेषता को लक्ष्य बनाकर हम गौ, भेड़ से ऊपर नहीं उठ सकते। मनुष्य तो बुद्धि का विकास करके ही मनुष्य बन पाता है।

    एवं शारीरिक, मानस व बुद्धि तीनों ज्योतियों को प्राप्त करने में लगे रहनेवाला व्यक्ति (‘संवेशनः') कहलाता है। यह संवेशनः ही वस्तुतः (तन्वे) = शरीर में [तन्वाम् = तन्वे] चारु:=बड़ा सुन्दर बनकर (एधि) = रह रहा है। एकाङ्गी उन्नति करनेवाले के जीवन में वह सौन्दर्य नहीं, जो इस सर्वांगीण उन्नति से उत्पन्न होता है ।

    इन तीनों उन्नतियों का करना ही परम= उत्कृष्ट जनित्र=विकास [प्रादुर्भाव] है। समविकास ही परम विकास है। इसी में सौन्दर्य है। इस (परमे जनित्रे)=परम विकास के होने पर ही मनुष्य (देवानाम्)=विद्वानों का (प्रियः) = प्रिय होता है। समझदार लोग इस समविकासवाले का ही आदर करते हैं।

    परमेश्वर की स्तुति भी समविकास द्वारा ही होती है। पावकवर्णाः शुचयो विपश्चितः अभिस्तोमैरनूषत अर्थात् अग्नि के समान कान्तिवाले, पवित्र विद्वान् ही वस्तुतः स्तुति-समूहों से प्रभु की स्तुति करते हैं। यह शरीर प्रभु का मन्दिर है, इसे नीरोग, निद्वेष, निर्जड़ रखना ही प्रभु का आदर करना है। यह महान् स्तुति करनेवाला 'बृहदुक्थ' इस मन्त्र का ऋषि है। बृहत् =महान्, उक्थ= = स्तुतिवाला।

    भावार्थ

    प्रभु की सच्ची स्तुति यही है कि हम स्वस्थ, द्वेषरहित व तीव्र बुद्धिवाले बनने का प्रयत्न करें।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे आत्मस्वरूप अग्ने ! ( इदम् ) = यह प्रत्यक्ष संसार और यह लोक ( ते ) = तेरा ( एकम् ) = एक रूप है । ( पर:उँ ) = और परलोक का स्वरूप ( ते ) = तेरा ( एकम् ) = एक दूसरा स्वरूप है ।  तू इन दोनों को अतिक्रमण करके ( तृतीयेन ) = तीसरे उत्कृष्ट ( ज्योतिषा ) = ज्योति, ब्रह्मज्ञान से ( संविशस्व ) = लीन हो । वहां ( संवेशन: ) = सुख के प्रवेश करने योग्य होकर ( तन्वे ) = पुनः शरीर ग्रहण के लिये ( चारुः ) = भली प्रकार गमनशील ( एधि ) = रह, ( परमे ) = उत्कृष्ट ( जनित्रे ) = उत्पत्तिस्थान में ( देवानाम् ) = दिव्य गुण वाले अपने इन्द्रियगण के सामथ्यौं  का ( प्रियः ) = प्रेमपात्र होकर रह । 

    ईश्वरपक्ष में - यह प्रत्यक्ष लोक तेरा एक रूप है। पर सूर्य आदि तेरा दूसरा रूप है । तू ही तीर्णतम, तृतीय, सर्वोत्कृष्ट ज्योतिरूप सर्वत्र व्यापक है । तू व्यापक होकर ( तन्वे ) = जगत् के विस्तार करने के लिये भी ( चारु: एधि ) = सर्वत्र व्याप्त होता है ।  तू ( देवानां ) = देव, पञ्चभूतों या मुक्तात्माओं के परम  उत्पादक रूप में भी उनका ( प्रियः ) = प्रिय अर्थात् उनमें सबसे अधिक श्रेष्ठ है ।

    सायण ने इस मन्त्र को बृहदुक्थ ऋषि के मुख से अपने मृत, पुत्र के प्रति कहाया है ।  "तेरा यह एक अंश शरीर इस श्मशानाग्नि में जाय, दूसरा अंश प्राणवायु में मिल जाय, तीसरा अंश सूर्यज्योति में लीन हो जाय और पुनः शरीर धारण के लिये तैयार होकर सूर्यलोक में प्रसन्न होकर रह ।”
     

    टिप्पणी

    ६५ - 'संवेशने तन्त्रः' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्यः।

    छन्दः - त्रिष्टुभ ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनं जीवात्मानं वाभिलक्ष्योच्यते।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे अग्ने परमात्मन् ! (इदम्) मत्समीपे विद्यमानं पार्थिवाग्निरूपम् (ते) तव (एकम्) एकं ज्योतिः अस्ति। (उ) किंच (परः) परस्ताद् द्युलोके विद्यमानं सूर्यरूपम् (ते) तव (एकम्) द्वितीयं ज्योतिः अस्ति। त्वं तद्भिन्नेन (तृतीयेन ज्योतिषा) तृतीयेन निजेन ज्योतिर्मयस्वरूपेण (संविशस्व) मदात्मनि प्रविष्टो भव। (परमे) श्रेष्ठे (जनित्रे) त्वदाविर्भावस्थाने मदात्मनि। जन्यते अत्र इति जनित्रम्। जनी प्रादुर्भावे धातोः अधिकरणे औणादिकः इत्रप्रत्ययः। (संवेशनः) प्रवेशकर्ता त्वम्। सं पूर्वाद् विश प्रवेशने धातोः कर्तरि युच्। (तन्वे) अन्नमयप्राणमयमनोमय- विज्ञानमयानन्दमयकोशसहिताय शरीराय (चारुः) हितकरः, (देवानाम्) इन्द्रियमनोबुद्ध्यादीनाम् (प्रियः) प्रियकरश्च (एधि) भव। अथ द्वितीयः—जीवात्मपरः। हे (अग्ने) जीवात्मन् ! (इदम्) चक्षुरादीन्द्रियात्मकम् (ते) तव (एकम्) एकं ज्योतिः अस्ति। (उ) अथ च (परः) ततः परस्ताद् विद्यमानं मनोरूपम् (ते) तव (एकम्) द्वितीयं ज्योतिः अस्ति। त्वम् (तृतीयेन) परमात्माख्येन (ज्योतिषा) अर्चिषा (संविशस्व) संगच्छस्व२। (परमे) सर्वोत्कृष्टे (जनित्रे) जनयितरि परमात्मनि। अत्र जनी धातोः कर्तरि इत्र प्रत्ययः। (संवेशनः) संगतः त्वम् (तन्वे) स्वाश्रयभूताय देहसंघाताय (चारुः) कल्याणकरः, (देवानाम्) दिव्यगुणानां (प्रियः) प्रेमास्पदं च (एधि) भव ॥३॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    पार्थिवाग्नौ सूर्याग्नौ च परमात्मन एव ज्योतिः प्रदीप्यते, यथोक्तम्—अ॒ग्नाव॒ग्निश्चर॑ति॒ प्रवि॑ष्टः॒। अथ० ४।३९।९, यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑षः॒ सोऽसाव॒हम्। य० ४०।१७, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति। कठ० ५।१५ इति। अतस्तज्जोतिर्द्वयमपि परमात्मन एव। परं तस्य वास्तविकं तृतीयं ज्योतिस्तदीयं स्वात्मनिष्ठं स्वाभाविकं तेज एव। तेनैव तेजसा भक्तजनानामात्मानं प्रविश्य स तेषां कल्याणं करोति, शरीरप्राणमनोबुद्ध्यादीनां च हितं सम्पादयति। अतस्तस्य तृतीयं ज्योतिराप्तुं योगाभ्यासविधिना सर्वैः प्रयत्नोऽनुष्ठेयः। मन्त्रस्य द्वितीयेऽर्थे जीवात्मा समुद्बोधितः—हे जीवात्मन् ! एकं ते ज्योतिः चक्षुः-श्रोत्रादिकम्, द्वितीयं ज्योतिर्मनः ध्रु॒वं ज्योति॒र्निहि॑तं दृ॒शये॒ कं मनो॒ जवि॑ष्ठं प॒तय॑त्स्व॒न्तः। ऋ० ६।९।५ इति श्रुतेः। एतज्ज्योतिर्द्वयं तव साधनरूपमेव, साध्यरूपं ज्योतिस्तु तृतीयं परमात्मज्योतिरस्ति। अतस्तदेवाधिगन्तुं प्राणपणेन यतस्व ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ १०।५६।१ देवता विश्वेदेवाः, संवेशने तन्वश्चारु इति पाठः। अथ० १८।३।७ ऋषिः अथर्वा, देवता यमः, संवेशने तन्वा३ चारुरेधि प्रियो देवानां परमे सधस्थे इति पाठः। २. संविशस्व संगच्छस्व—इति भ०, सा०। ३. इदं ते तव एकं ज्योतिः वैद्युताख्यम्। परः परम् उत्कृष्टमित्यर्थः। उ इति पादपूरणः। ते तव एकम् आदित्याख्यम्। तृतीयेन ज्योतिषा पार्थिवेन अग्न्याख्येन संविशस्व। क्व पुनः संविशानि? उच्यते संवेशनः तन्वे। संविश्यते अस्मिन् इति संवेशनं वेद्याख्यं स्थानं, तस्मिन्नित्यर्थः। तन्वः शरीरस्य। संविश्य चारुः एधि शोभनो भव। प्रियः देवानाम्..... परमे उत्कृष्टे जनित्रे, जन्यतेऽस्मिन्निति जनित्रं कर्म यात्रारूपं, तस्मिन्नित्यर्थः। अथवा जन्मैव जनित्रम्, परमे जन्मनि वृक्षादौ यज्जन्म तस्मिन्नित्यर्थः—इति वि०। सायणस्त्वेवं व्याचष्टे—“एतया बृवदुक्थो वाजिनं नाम स्वपुत्रं संविशस्व मृतं वदति—हे मृतपुत्र, ते तव इदं ज्योतिः अग्न्याख्यम् एकम् एकोंऽशः। अतः ते तव देहगताग्न्यंशेन बाह्यम् अग्निं संगच्छस्व। तथा परः ऊ अन्योऽपि ते तव एकं वाय्वाख्योंऽशः, तेन च प्राणवाय्वाख्येन अंशेन बाह्यं वायुं संविशस्व।.... तथा तृतीयेन ज्योतिषा आदित्याख्येन तेजसा तवात्मना संविशस्व।..... तन्वे तनवे पुनः शरीरग्रहणाय चारुः कल्याणो भूत्वा तस्मिन् सूर्ये संवेशनः सम्यक् प्रवेष्टा” इत्यादि। परम् ऋगियम् अन्त्येष्टिकर्मणि चेद् विनियुज्येत तदा तादृशेऽर्थे संभवत्यपि बृवदुक्थो नाम ऋषिः वाजिनं नाम मृतं स्वपुत्रं वदतीत्यस्य इतिहासस्य कल्पनमनुचितमेव, वेदेषु लौकिकेतिहासस्याभावात्।

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O God, Thy one manifestation is this visible world, the Sun is the second, with Thy third resplendent beauty Thou pervadest the universe. Being All-pervading, Thou spreadest Thyself for expanding the universe. Thou art dear to the emancipated souls in their sublimest home.

    Translator Comment

    Sublimest home: State of salvation.^Sayan has explained this verse as spoken by the Rishi Brihaduktha to his deceased son Vajinam, which is meaningless.

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    Meaning

    This (body, this life time) is one mode of your existence. The one next (mind and karma) is another such. By the third (spiritual and meditative life), O man, join you with life eternal. On merging of the soul, happy and darling of the divinities, be free in the presence of the supreme creator of the world. (Rg. 10-56-1)

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    Translation

    Here is one light for you (the terrestrial fire) and this other is also there for you; (the vital breath of the mid-regions); may you enter into the third one (the celestial sun) and be then united with the supreme radiance. At the entrance of the body, there is the sublimest birth place of divine powers, beautiful and loving.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ते इदम् एकम्) હે પરમાત્માગ્ને ! આ પૃથિવી પરનો અગ્નિ તારી એક જ્યોતિ છે (परः उ ते एकम) પર-દ્યુલોકના સૂર્યનો અગ્નિ તારી બીજી જ્યોતિ છે (तृतीयेन ज्योतिषा संविशस्व) તારી ત્રીજી જ્યોતિ-અમૃત જ્યોતિ સ્વરુપ છે તેનાથી અમારામાં પ્રવેશ કર. 
           (सवेशनः) અંદર સંવેશ-ગહન પ્રવેશ સમાગમ કરનાર તું (तन्वे) પોતાના શરીર રૂપ - મારા આત્મામાં (चारुः एधि) સારી રીતે છો - રહો. (देवानां प्रियः) તું મુમુક્ષુઓને પ્રિય છો - સ્નેહી છો (परमे जनित्रे) અને હું તારા પરમ ઉત્પાદન આધારમાં સમર્પિત છું. (૩)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : દ્યૌમાં ઉપર સૂર્ય અને પૃથ્વીમાં નીચે અગ્નિ એ પરમાત્માની બે જ્યોતિઓ છે. એ જ્યોતિઓ તો દિવસ-રાત પ્રાપ્ત થાય છે - કામમાં આવે છે , પરંતુ ત્રીજી જ્યોતિ પરમાત્માની અમૃત સ્વરૂપ જ્યોતિ છે ; તે પોતાની અમર જ્યોતિને પરમાત્મા અમારા આત્માની અંદર દાખલ કરે છે , ત્યારે જ આત્મકલ્યાણ થાય છે. તેમ મુમુક્ષુઓને પ્રિય છે , પરંતુ જ્યારે તેઓ પરમ ઉત્પત્તિ સ્થાન પરમાત્મામાં પોતાનું સમર્પણ કરી દે છે , ત્યારે જ પરમાત્મા પોતાની અમૃતજ્યોતિ પ્રદાન કરે છે. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    تِین جیوتِیوں کی پِوتّرتا سے پرم آنند

    Lafzi Maana

    ہے جگیاسُو! (اوم) گیان اِندریاں (تے ایکم) تیری ایک جیونی ہے، (پرا) اِس سے آگے اور سریشٹھ (تے ایکم) تیری ایک اور من روُپی جیوتی ہے، پھر سمادھی اوستھا (یکسوُئی) ہیں، تُو (ترتین جیوتی شا) اپنی تیسری جیوتی آتما کے دوارہ (مم وِشسو) پرماتم جیوتی ایشور میں بھلی پرکار پرویش کر (پرمے جنترے) جگت کے پیدا کرنے والے ایشور میں (سم ویش نہ) اچھی طرح سے ملا ہوا تُو ہے۔ موکھش چاہنے والے پیارے جگیاسوُ! (تنوے) سروویاپک پرماتما کی پراپتی کے لئے (چارُو ریدھی) اُس کا پیارا بن اور (دیوانام پرسہ) دیووں، گیانی، مہاتما وِدوانوں کا بھی پریہ ہو۔
     

    Tashree

    ہے مانو! (1) جب تیری گیان اِندریاں پِوتّر ہوں، (2) من ستیہ سے شُدھ، پِوتّر ہو، اور آتما بھگوان کے دھیان میں مگن ہو جائے گا۔ تب تجھے پرم آنند کی پراپتی ہوگی۔
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    पार्थिव अग्नी व सूर्यरूपी अग्नीमध्ये परमेश्वराची ज्योती प्रदीप्त होत आहे. असेही म्हटले जाते की - ‘अग्नीमध्ये परमेश्वररूपी अग्नी प्रविष्ट होऊन वावरत आहे.’ (ऋ. ४/३९/९) जो आदित्यामध्ये पुरुष बसलेला आहे, तो मी परमेश्वर आहे. (य. ४७/१७) त्याच्या तेजानेच हे सर्व चमकत आहे (कठ. ५/१५) त्यामुळे पार्थिव अग्नी व सूर्याग्नी दोन्ही परमात्म्याच्या ज्योती आहेत. परंतु परमेश्वराची वास्तविक तिसरी ज्योती त्याचे स्वत:चे स्वाभाविक तेज आहे. त्याच तेजाने भक्ताच्या आत्म्यात प्रवेश करून तो त्यांचे कल्याण करतो व शरीर, प्राण, मन, बुद्धी इत्यादींचे हित करतो. त्याच्या तिसऱ्या ज्योतीला प्राप्त करण्यासाठी योगाभ्यासाच्या विधीने सर्वांनी प्रयत्न केले पाहिजेत. मंत्राच्या द्वितीय अर्थात जीवात्म्याला संबोधित केले गेलेले आहे. हे जीवात्म्या! तुझी एक ज्योती चक्षू, श्रोत्र इत्यादी आहे. दुसरी ज्योती मन आहे. जसे वेदात इतरत्र म्हटलेले आहे - प्राण्यांमध्ये सर्वात अधिक वेगवान एक मनरूपी ध्रुव ज्योति दर्शन करण्यासाठी निहित आहे. (ऋ. ६/९/५) परंतु या दोन्ही ज्योती साधनरूप आहेत. साध्यरूपी ज्योती तर तिसरी परमात्म ज्योतीच आहे. त्यासाठी त्यालाच प्राप्त करण्यासाठी प्राणपणाने यत्न कर ॥३॥

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    विषय

    पुढचा मंत्र परमात्मा आणि जीवात्म्याला उद्देशून म्हटला आहे. -

    शब्दार्थ

    प्रथम अर्थ (परमात्मपरक) हे परमात्मन (इदम्) ही माझ्याजवळ पार्थिव अग्नीच्या रूपाने (ते) तुझी (एकम्) एक ज्योती आहे. (उ) आणि (पर:) दूर पलीकडे द्युलोकात विद्यमान सूर्यरूपाचा (एकम्) दुसरी ज्योती आहे. तू त्या दोन ज्योतीहून भिन्न अशा (तृतीयेन ज्योतिषा) तिसऱ्या ज्योतीद्वारे (संविशस्व) माझ्या अंत:करणात प्रविष्ट हो. (परमे) श्रेष्ठ अशा (जमित्रे) अविर्भाव स्थानात म्हणजे माझ्या आत्म्यात (संवेशन:) प्रवेश करणारा तू (तन्ने) आन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय आणि आनंदमय कोशांसह शरीरासाठी (चारू:) हितकर तसेच (देवानाम्) इंद्रिये, मन, बुद्धी आदी देवांचा (प्रिय:) प्रिय (एधि) हो.।। द्वितीय अर्थ : (जीवात्मापरक) हे जीवात्मन् (इदम्) हे चक्षु आदी इंद्रिये (ते) तुझी (एकम्) एक ज्योती आहे. (३) आणि (पर:) त्यापलीकडे मनरूपाची (ते) तुम्ही (,कम्) एक दुसरी ज्योती आहे. तू (तृतीयेन) तिसऱ्या परमात्मरूप (ज्योतिबा) ज्योतीशी (संविशस्व) सगंत हो. (परमे) सर्वोत्कृष्ट (जनित्रे) उत्पादक परमात्म्यात (संवेशक) संगत वा सहवासित होत तू (वन्ने) तुझ्या आश्रयभूत देह समुहासाठी (चारू:) कल्याणकर आणि (देवानाम्) दिव्य गुणांचे (प्रिय:) स्नेहपात्र (एधि) हो. ।।३।।

    भावार्थ

    भौतिक अग्नी आणि सूर्यरूप अग्नीमध्ये परमात्म्याची ज्योतीच प्रदीप्त होत आहे. म्हटलेही आहे. - अग्नीमध्ये परमेश्वररूप अग्नी प्रविष्ट होऊन विचरण करीत आहे. ऋग्वेद ४।३९।९ आदिव्यात जो पुरुष वास करीत आहे, तो मी परमेश्वरच आहे. यजु. ४०।१७। त्याच्यात तेजाने, ज्योतीने हे सर्व तेजोमय वा चमकत आहेत. कठ. ५।१५। यावरून कळते की, पार्थिव आग आणि सूर्य अग्नी दोन्ही परमात्म्याचाच ज्योती आहेत. पण परमेश्वराची वास्तविक तिसरी ज्योती त्याचा स्वत: स्वाभाविक तेजच आहे. त्या तेजानेच परमेश्वर भक्तांच्या आत्म्यात प्रविष्ट होऊन भक्तांचे कल्याण करीत असतो. आणि भक्तांचे शरीर, प्राण, मन, बुद्धी आदींचे हित संपादन करतो. यामुळे त्याच्या तिसऱ्या ज्योतीच्या प्राप्तर्थ सर्वांनी योगाभ्यासाद्वारे यत्न केले पाहिजेत. मंत्राच्या दुसऱ्या अर्थात जीवात्म्यास उद्देशून कथन केले आहे. - हे जीवात्मन् तुझी एक ज्योती नेत्र, श्रोत्र आदी इंद्रिये आहेत, तुझी दुसरी ज्योती मन आहे. वेदात म्हटले आहेच की प्राण्यात सर्वाधिक वेगवान मनही एक ध्रुव ज्योती दर्शनाकरीता दिलेली वा स्थापित आहे. ऋग्वेद ६।९।५। पण ह्या दोन्ही ज्योती साधन रूप आहेत, साध्य ज्योती तर तिसरी परमात्म ज्योती आहे. म्हणून तिसऱ्या ज्योतीच्या प्राप्तीकरीता हे जीवात्मन् तू प्राणपणाने प्रयत्न कर. ।।३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    [1] உனக்கு ஒரு சோதியாகும். [2] அங்கு வேறு, மூன்றாவதான [3] சோதியோடு [4] ஒன்று சேரவும். தேவர்களின் உயர்ந்த ஸ்தானத்தில் பிரியமுள்ளவனாய் [5] தேகம் கிரகிக்க சுபமுள்ளவனாய் சூரியனில் [6] ஒன்று சேரவும்.

    FootNotes

    [1] உனக்கு ஒரு சோதியாகும் - பூமி ஒரு சொரூபம்.

    [2] அங்கு வேறு - சூரியன் இரண்டாவது வடிவமாகும்.

    [3] சோதியோடு - உன் சுய வடிவம்

    [4] ஒன்று சேரவும் - வியாப்தமாகவும்.

    [5] தேகம் கிரகிக்க - சகம் சிருட்டிக்க

    [6] ஒன்று சேரவும் - வியாப்தமாகிறாய்.

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