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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 677
    ऋषिः - उशना काव्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    6

    प्र꣡ तु द्र꣢꣯व꣣ प꣢रि꣣ को꣢शं꣣ नि꣡ षी꣢द꣣ नृ꣡भिः꣢ पुना꣣नो꣢ अ꣣भि꣡ वाज꣢꣯मर्ष । अ꣢श्वं꣣ न꣡ त्वा꣢ वा꣣जि꣡नं꣢ म꣣र्ज꣢य꣣न्तो꣡ऽच्छा꣢ ब꣣र्ही꣡ र꣢श꣣ना꣡भि꣢र्नयन्ति ॥६७७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । तु । द्र꣣व । प꣡रि꣢꣯ । कोशम् । नि । सी꣣द । नृ꣡भिः꣢꣯ । पु꣡नानः꣢ । अ꣣भि꣢ । वा꣡ज꣢꣯म् । अ꣣र्ष । अ꣡श्व꣢꣯म् । न । त्वा꣣ । वाजि꣡न꣢म् । म꣣र्ज꣡य꣢न्तः । अ꣡च्छ꣢꣯ । ब꣣र्हिः꣡ । र꣣शना꣡भिः꣢ । न꣣यन्ति ॥६७७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र तु द्रव परि कोशं नि षीद नृभिः पुनानो अभि वाजमर्ष । अश्वं न त्वा वाजिनं मर्जयन्तोऽच्छा बर्ही रशनाभिर्नयन्ति ॥६७७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । तु । द्रव । परि । कोशम् । नि । सीद । नृभिः । पुनानः । अभि । वाजम् । अर्ष । अश्वम् । न । त्वा । वाजिनम् । मर्जयन्तः । अच्छ । बर्हिः । रशनाभिः । नयन्ति ॥६७७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 677
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५२३ क्रमाङ्क पर जीवात्मा को उद्बोधन देने के पक्ष में की जा चुकी है। यहाँ शिष्य के प्रति कहते हैं।

    पदार्थ

    हे शिष्य ! तू (तु) शीघ्र ही (प्र द्रव) उत्कृष्ट बनने के लिए प्रयत्न कर, उसके लिए (कोशम्) विद्या के खजाने गुरु का (परि निषीद) सेवन कर। (नृभिः) नेता गुरुजनों की सहायता से (पुनानः) स्वयं को पवित्र करता हुआ (वाजम्) शारीरिक और आत्मिक बल (अभ्यर्ष) प्राप्त कर। ये गुरुजन (वाजिनम्) बलवान् (त्वा) तुझे (मर्जयन्तः) शुद्ध करते हुए (रशनाभिः) नियन्त्रणों और मर्यादाओं से (बर्हिः अच्छ) ज्ञानकाण्ड व कर्मकाण्ड के प्रति (नयन्ति) प्रेरित करते हैं। कैसे? (वाजिनम् अश्वं न) जैसे बलवान् घोड़े को योद्धा लोग (रशनाभिः) लगामों से नियन्त्रित करके (बर्हिः अच्छ) संग्राम की ओर (नयन्ति) ले जाते हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    गुरुओं का हम पर महान् उपकार है, जो हम अबोध जनों को विद्यावान्, तपस्वी तथा पवित्र आचरणवाला बनाकर समुन्नत करते हैं ॥१॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ५२३)

    विशेष

    ऋषिः—काव्य उशनाः (मेधावी से सम्बद्ध मोक्षकांक्षी)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>

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    विषय

    उशनाः काव्यः

    पदार्थ

    इस तृच का ऋषि ‘उशनाः काव्यः’ है।‘उशनाः' शब्द का अर्थ है (कामयमानः) = चाहता हुआ । सर्वलोकहित की कामना करनेवाला यह 'उशनाः' काव्य है – क्रान्तदर्शी है । इसकी आँख प्रत्येक पदार्थ के भीतर प्रविष्ट होकर उसके तत्त्व को जानने का प्रयत्न करती है । इसी तत्त्वज्ञान के कारण यह अपने ‘सोम’=वीर्यशक्ति का अधोद्रवण न होने देकर कहता है कि हे सोम! (प्रद्रव तु) = नीचे की ओर जाने के स्थान में तू (प्रकृष्ट) = ऊर्ध्व गतिवाला हो और (कोशम्) = इस शरीर में [अन्नमयादि कोशों में] (परिनिषीद) = व्याप्त होकर स्थित हो, अर्थात् मेरे सोम का विनियोग भोग में न होकर अङ्गप्रत्यङ्ग की श्री को बढ़ाने में ही हो ।

    ऐसा होने पर हे सोम! (नृभिः) = मनुष्यों से पुनानः=[पूयमानः] पवित्र किया जाता हुआ तू हमें (वाजम् अभि) = शक्ति की ओर (अर्ष) = ले- चल । पवित्र विचारों से पवित्र हुआ यह सोम शरीर में ही व्याप्त होकर उसे शक्ति सम्पन्न बनाता है । (न) = जैसे (वाजिनं अश्वम्) = शक्तिशाली घोड़े को (रशनाभिः) = लगामों से (नयन्ति) = उद्दिष्ट स्थान की ओर ले जाते हैं, उसी प्रकार (त्वा) = तुझे (मर्जयन्तः) = [मृज् शुद्धौ] अपने सोम को पवित्र बनाते हुए ये लोग (रशनाभि:) = पवित्र विचाररूप लगाम के द्वारा (बर्हिः अच्छ) = शुद्ध हृदय की ओर (नयन्ति) = ले-जाते हैं। पवित्र विचारों से सोम पवित्र रहता है और यह पवित्र सोम मनुष्य को वासना-विजय के लिए शक्ति देता है । इस मनुष्य की हृदयस्थली वासनारूप घास-फूस के उखाड़ देने से शुद्ध- पवित्र होकर 'बर्हिः' शब्द से कहलाने के योग्य होती है। -

    एवं, यह ‘उशना: काव्य' सोमरक्षा के द्वारा शरीर को शक्ति-सम्पन्न बनाता है और अपने मन को पवित्र। इनके बिना न उसके अन्दर लोकहित की कामना उत्पन्न हो सकती है और न वह लोकहित कर ही सकता है ?

    भावार्थ

    लोकहित का इच्छुक सोम की ऊर्ध्वगति से अपने शरीर को शक्ति-सम्पन्न व हृदय को पवित्र बनाए ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = (१) व्याख्या देखो अविकल संख्या [५२३] पृ० २५९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अमहीयुराङ्गिरसः । देवता - सोमः। छन्दः - त्रिष्टुप्। स्वरः - धैवतः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५२३ क्रमाङ्के जीवात्मोद्बोधनविषये व्याख्याता। अत्र शिष्यं प्रति प्रोच्यते।

    पदार्थः

    हे शिष्य ! त्वम् (तु) सद्यः एव (प्र द्रव) प्रकर्षाय प्रयतस्व। तदर्थं (कोशम्) विद्यायाः निधिभूतं गुरुम् (परि निषीद) परिसेवस्व। (नृभिः) नेतृभिः गुरुजनैः (पुनानः) स्वात्मानं पावयन् (वाजम्) शारीरम् आत्मिकं च बलम् (अभ्यर्ष) प्राप्नुहि। एते गुरवः (वाजिनम्) बलिनम् (त्वा) त्वाम् (मर्जयन्तः) शोधयन्तः सद्गुणालङ्कारैः अलङ्कुर्वन्तश्च। [मृजू शौचालङ्कारयोः, वृद्ध्यभावश्छान्दसः।] (रशनाभिः) नियन्त्रणैः मर्यादाभिश्च (बर्हिः अच्छ) ज्ञानकाण्डं कर्मकाण्डं२ च प्रति (नयन्ति) प्रेरयन्ति। कथमिव ? (वाजिनम् अश्वं न) बलवन्तं तुरगं यथा साङ्ग्रामिकाः जनाः (रशनाभिः) अभीषुभिः (बर्हिः अच्छ) संग्रामं प्रति। [बर्हयन्ति हिंसन्ति यत्र परस्परं तद् बर्हिः सङ्ग्रामः। बर्ह हिंसायाम् चुरादिः।] (नयन्ति) प्रेरयन्ति ॥१॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    महान् खल्वस्मासु गुरूणामुपकारो ये निर्बोधानस्मान् विद्यावतस्तपस्विनः पवित्राचरणांश्च विधाय समुन्नयन्ति ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८७।२, साम० ५२३। २. दृंहन्ते वर्धयन्ते येन तत् बर्हिर्ज्ञानं प्राप्तं कर्मकाण्डं वा—इति य० २।१८ भाष्ये द०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Oh supreme joy; advance and seat thyself in the heart. Grow strong, purified by the sages. Just as a strong and fast horse is led by the reins, so thou, fast in motion, and derived through knowledge, art taken to the heart, being purified and controlled by them.

    Translator Comment

    Them—the sages. See the verse 523.

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    Meaning

    O Soma, radiate, flow into the sanctity of the heart and sink into the soul of the devotee. Adored by the yajakas on the vedi, let the showers of joy stream forth. The celebrants, exalting your power and presence, invoke and invite you like energy itself with adorations to the grass seats of the yajna. (Rg. 9-87-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (तु) હે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! અવશ્ય (अव्ययार्थ निबन्धम् प्रद्रव) મારી તરફ આનંદધારામાં પ્રદ્રવિત થા-વહીને આવ (कोशं परिनिषीद) મારા અન્તઃકોષ્ઠ રૂપ હૃદયમાં પરિપૂર્ણ થઈને બિરાજમાન થઈજા-બેસીજા (नृभिः पुनानः) મુમુક્ષુજનો દ્વારા ધ્યાન દ્વારા પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય બનીને (वाजम् अभ्यर्ष) અમૃત અન્ન-અમૃત ભોગને પ્રેરિત કર (वाजिनं अश्वं त्वा मर्जयन्तः) અત્યંત બળવાન ઘોડાની સમાન તને સ્તુતિઓથી પ્રેરિત કરીને (रशनाभिः) તારી વ્યાપ્ત આનંદ ધારાઓથી વા પોતાની વ્યાપનાવાળી ઉપાસના ક્રિયા રૂપ આંગળીઓ આંગળીના સંકેતોથી વા ઉપાસના શક્તિઓથી (बर्हिः अच्छा नयन्ति) હૃદયાકાશની તરફ લઈએ છીએ. (૧)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હાં, અવશ્ય હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! મારી તરફ આનંદ ધારાઓ રૂપમાં પ્રદ્રવિત થા, તે મારા હૃદયકોશમાં પરિનિષ્ઠ થા, તેને પરિપૂર્ણ કરીને બિરાજ. મુમુક્ષુજનો દ્વારા પ્રાપ્ત થનાર તું અમૃત ભોગને પ્રેરિત કર, અતિ બળવાન ઘોડાની સમાન તને સ્તુતિઓથી પોતાની તરફ પ્રેરિત કરતાં તારી વ્યાપ્ત ધારાઓથી વા ઉપાસના ક્રિયારૂપ આંગળીઓ આંગળીના સંકેતોથી વા ઉપાસના શક્તિઓથી હૃદય આકાશની તરફ લાવીએ છીએ. (૧)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    गुरूंचा आमच्यावर महान उपकार असतो. जे आम्हा अबोध जनांना विद्यावान, तपस्वी व पवित्र आचरणयुक्त बनवून समुन्नत करतात. ॥१॥

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    विषय

    प्रथम ऋचेची व्याख्या पूर्वार्चिक भागात क्र. ५२३ वर केलेली आहे. तिथे या ऋचेचा अर्थ जीवात्म्यास उद्बोधन या रूपात केला आहे. इथे शिष्याला उद्देशून म्हटले आहे.

    शब्दार्थ

    हे शिष्य, तू (तु) लवकरात लवकर (प्र द्रव) उन्नत वा सुसंस्कारीत, विद्याज्ञान होण्यासाठी प्रयत्न कर. यासाठी कौशम ज्ञानाचा जो भांडार त्या गुरूजवळ परि निषीद) जाऊन बैस. (नृभि:) समाजातील नेता प्रमुख लोकांनी (पुनान:) तुला पवित्र वा प्रशंसित केले आहे. (वाजम्) तू शारीरिक आणि आत्मिक बळ (अभ्यर्ष) प्राप्त कर. हे गुरूजन (वाजिनम्) शक्तिमान ग्रहणशील अशा (त्वा) तुला (मर्जयन्त:) शुद्द करीत करीत (म्हणजे ज्ञानाने पवित्र करीत) (रशनाभि:) अनेक आवश्यक नियमांत वा मर्यादेत ठेवीत (बर्हि: अच्छ) ज्ञानकांडाकडे व कर्मकांडाकडे नयन्ति प्रेरित करतील. कशाप्रकारे? की (न) जसे (वजिनम् अश्वे) बलवान अश्वाला योद्धे (रशनाभि:) लगामाद्वारे नियंत्रित करीत (बर्हि:अच्छ) युद्धक्षेत्राकडे (नयन्ति) घेऊन जातात. ।।१।।

    भावार्थ

    गुरूजनांचे आम्हा सर्वांवर थोर उपकार आहेत. कारण त्यांच्या प्रेरणा व मार्गदर्शनामुळे आम्ही प्रबोधजन विद्यावान होऊ शकतो. तपस्वी तसेच पवित्राचरणवान होऊन आपली उन्नती साध्य करतो वा करू शकतो. ।।१।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लिष्येपमा अलंकार आहे.

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