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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 693
    ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    7

    य꣡स्य꣢ ते पी꣣त्वा꣡ वृ꣢ष꣣भो꣡ वृ꣢षा꣣य꣢ते꣣ऽस्य꣢ पी꣣त्वा꣢ स्व꣣र्वि꣡दः꣢ । स꣢ सु꣣प्र꣡के꣢तो अ꣣꣬भ्य꣢꣯क्रमी꣣दि꣢꣫षोऽच्छा꣣ वा꣢जं꣣ नै꣡त꣢शः ॥६९३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣡स्य꣢꣯ । ते꣣ । पीत्वा꣢ । वृ꣣षभः꣢ । वृ꣣षाय꣡ते꣢ । अ꣣स्य꣢ । पी꣣त्वा꣢ । स्व꣣र्वि꣡दः꣢ । स्वः꣣ । वि꣡दः꣢꣯ । सः । सु꣣प्र꣡के꣢तः । सु꣣ । प्र꣡के꣢꣯तः । अ꣣भि꣢ । अ꣣क्रमीत् । इ꣡षः । अ꣡च्छ꣢꣯ । वा꣡ज꣢꣯म् । न । ए꣡त꣢꣯शः ॥६९३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य ते पीत्वा वृषभो वृषायतेऽस्य पीत्वा स्वर्विदः । स सुप्रकेतो अभ्यक्रमीदिषोऽच्छा वाजं नैतशः ॥६९३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । ते । पीत्वा । वृषभः । वृषायते । अस्य । पीत्वा । स्वर्विदः । स्वः । विदः । सः । सुप्रकेतः । सु । प्रकेतः । अभि । अक्रमीत् । इषः । अच्छ । वाजम् । न । एतशः ॥६९३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 693
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा के शान्तिरस का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    हे पवमान सोम ! हे पवित्रतादायक रसागार परमात्मन् ! (यस्य ते) जिन आपके शान्तिरस का (पीत्वा) पान करके (वृषभः) भगवान् को भक्तिरस से सींचनेवाला उपासक (वृषायते) वर्षाकारी बादल के समान आचरण करने लगता है, अर्थात् जैसे बादल गर्मी से झुलसते हुओं पर शान्तिदायक जल बरसाता है, वैसे ही वह अशान्ति से झुलसते हुओं पर शान्तिरस बरसाता है, (अस्य) उन आपके शान्तिरस को (पीत्वा) पीकर, लोग (स्वर्विदः) मोक्षसुख के प्राप्तकर्ता हो जाते हैं। (सुप्रकेतः) उत्कृष्ट ज्ञानी (सः) वह आपका उपासक (इषः अभि) इच्छासिद्धियों की ओर (अक्रमीत्) कदम बढ़ाता चलता है, (न) जैसे (एतशः) घोड़ा (वाजम् अच्छ) संग्राम की ओर पग बढाता है ॥२॥ इस मन्त्र में ‘वृषभो वृषायते’ में मम्मट के मत से वाचकलुप्तोपमा तथा दर्पणकार के मत से धर्मलुप्तोपमा है। ‘वृष, वृषा’ में छेकानुप्रास है। उत्तरार्ध में पूर्णोपमा है ॥२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की उपासना से भगवान् का भक्त जैसे स्वयं शान्ति प्राप्त करता है, वैसे ही अन्यों के लिए भी शान्ति बरसाता है और उसके सब धर्मानुकूल मनोरथ शीघ्र ही फल जाते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (यस्य ते) जिस तुझ सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा के आनन्दरस का (पीत्वा) उपासना द्वारा पान करके (वृषभः-वृषायते) वृषभ की भाँति उपासक आत्मा वृषसमान पुष्ट प्रफुलित हर्षित हो जाता है तथा (अस्य स्वर्विदः पीत्वा) इस तुझ सुख को प्राप्त कराने वाले का आनन्दरस पान करके (सः-सुप्रकेतः) वह उपासक सम्यक् ज्ञानमय बनकर होकर (इषः-अभ्यक्रमीत्) अपनी एषणाओं—वासनाओं को स्वाधीन करता है—जीत लेता है—(वाजं न-एतशः-अच्छा) जैसे घोड़ा संग्राम को सामने होकर स्वाधीन करता है।

    भावार्थ

    उपासकजन परमात्मा के आनन्दरस का पान कर वृषभ समान पुष्ट बलवान् बन जाता है और उस स्वर्गीय सुखस्वरूप परमात्मा का आनन्दरस पान कर उपासक आत्मा सम्यक् ज्ञानमय प्रसिद्ध हो अपनी वासनाओं को स्वाधीन करता है जैसे बलवान् घोड़ा संग्राम को सीधा स्वाधीन करता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    साक्षात् धर्म

    पदार्थ

    हे सोम ! (यस्य ते पीत्वा) = जिस तेरा पान करके (वृषभः) = एक शक्तिशाली पुरुष (वृषायते) = साक्षात् धर्म की भाँति आचरण करता है, ऐसा तू है । सोम की रक्षा से मनुष्य शक्तिशाली तो बनता है, परन्तु उसकी शक्ति उसे मदयुक्त करके अधर्म की ओर नहीं ले जाती, उसकी प्रत्येक क्रिया धर्म के अनुकूल होती है । एवं, सोम अपने पान करनेवाले को यशस्वी बल प्राप्त कराता है । यही भावना पूर्वमन्त्र में 'पवस्व व मधुमत्तमः' शब्दों से कही गयी थी कि उसका जीवन पवित्र व मधुर बना रहता है ।

    (अस्य पीत्वा) = सोम का पान करके लोग (स्वः विदः) = देवों को-दिव्य गुणों व दैवी-सम्पत्ति को [देवा वै स्व: : - श० १.९.३.१४] प्राप्त करनेवाले होते हैं [विद्-लाभे] । सोमपान करनेवाला व्यक्ति अपने अन्दर आसुर भावनाओं का पोषण नहीं करता । यह द्वेष से सदा दूर रहता है। यही भावना पूर्वमन्त्र में ‘क्रतुवित्तमः' शब्द से कही गयी थी कि यह ‘उत्तम सङ्कल्पों को प्राप्त करानेवाला है।'

    (सः) = यह सोमपान करनेवाला व्यक्ति (सुप्रकेतः) = अत्यन्त प्रकृष्ट ज्ञानवाला होता है और (अभि अक्रमीत्) = उस प्रभु की ओर गति कर रहा होता है । यही भावना गत मन्त्र में 'महि द्युक्षतम: ' शब्दों से व्यक्त हुई है कि यह महान् ज्ञान के प्रकाश में निवास करनेवाला होता है । मन्त्र की समाप्ति पर कहते हैं कि (न) = जैसे (एतशः) = घोड़ा (इषः) = अन्न से [इषः पञ्चमी का एकवचन है, हेतु में इसका प्रयोग है] (वाजम् अच्छ) = शक्ति की ओर बढ़ता है, इसी प्रकार यह सोमपान करनेवाला व्यक्ति सोम के द्वारा शक्ति, दिव्य गुणों व उत्तम ज्ञान को प्राप्त करता हुआ प्रभु-प्राप्ति में अग्रसर होता है । एवं, सोमपान का महत्त्व स्पष्ट है।

    भावार्थ

    सोम हमें प्रभु के साथ मिलाने का साधन बने। इस सोम से हम शक्ति, दिव्य गुणों व उत्तम ज्ञान का सम्पादन करें – यही साक्षात् धर्म है। 

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( २ ) हे परमात्मन् ! ( ते ) = आपके ( यस्य ) = जिस आनन्दकारक रस को ( पीत्वा ) = पान करके ( वृषभः ) = अपने अन्तरात्मा में सुख का वर्षण कराने हारा आत्मा ( वृषायते ) = गोरूप इन्द्रियों में भोक्ता के समान, उनमें बल का आधान करता और उनका भोग करता है । और ( स्वर्विदः ) = सुख और प्रकाश को प्राप्त करानेहारे ( अस्य ) = इस सोमरस को ( पीत्वा ) = पान करके ही ( सः ) = वह ( सु-प्र-केतः ) = उत्तम ज्ञान करनेहारा आत्मा ( इष ) = सब मन की कामनाओं को ( अभि अक्रमीत् ) = इस प्रकार पार कर लेता है जैसे ( एतशः वाजं न ) = वेगवान् घोड़ा या सवार संग्राम को ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - संहित:। देवता - सोम:। छन्दः - ककुप्। स्वरः - ऋषभ: ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनः शान्तिरसविषयमाह।

    पदार्थः

    हे पवमान सोम ! हे पावक रसागार परमात्मन् ! (यस्य ते) यस्य तव शान्तिरसम् (पीत्वा) आस्वाद्य (वृषभः) भक्तिरससेक्ता उपासकः (वृषायते) वर्षको मेघ इव आचरति। यथा मेघः घर्मतप्तानामुपरि शान्तिदायकं वारि वर्षति (तथैवासौ) अशान्तितप्तानामुपरि शान्तिरसं वर्षतीत्यर्थः। [उपमानादाचारे इत्यनुवृत्तौ ‘कर्त्तुः क्यङ् सलोपश्च’ इति वृषशब्दाद् आचारेऽर्थे क्यङ् प्रत्ययः।] (अस्य) तस्यास्य तव शान्तिरसम् (पीत्वा) आस्वाद्य जनाः (स्वर्विदः) मोक्षसुखाधिगन्तारः जायन्ते। (सुप्रकेतः२) प्रकृष्टप्रज्ञः (सः) असौ तव उपासकः (इषः) इच्छासिद्धीः (अभि) अभिलक्ष्य (अक्रमीत्) प्रयाणं कुरुते। कथमिव ? (एतशः) अश्वः। [एतशः इति अश्वनाम। निघं० २।१४।] (न) यथा (वाजम् अच्छ) संग्रामं प्रति क्रामति तथा ॥२॥ ‘वृषभो वृषायते’ इत्यत्र मम्मटमतेन वाचकलुप्तोपमा, दर्पणकारमतेन तु धर्मलुप्तोपमा। ‘वृष, वृषा’ इति छेकानुप्रासः। उत्तरार्धे पूर्णोपमा ॥२॥

    भावार्थः

    परमेश्वरोपासनया भगवद्भक्तो यथा स्वयं शान्तिमधिगच्छति तथाऽन्येभ्योऽपि शान्तिं वर्षति। तस्य च सर्वेऽपि धर्मानुकूलाः मनोरथाः सद्य एव फलन्ति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०८।२ २. सुप्रकेतः सुगृहः—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, realizing Thy felicity, the soul strengthens the organs and uses them rightly. Having drunk deep that divine joy, the giver of happiness and light, the wise soul, overcomes the desires of the Mind, as a swift horse does overcome the battle !

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    Meaning

    Having drunk of the Soma spirit of light, action and joy, Indra, the soul, overflows with strength and virile generosity. Having drunk of it, the soul receives the light of heavenly knowledge. And the soul, also, blest with inner light of spiritual awareness, rushes to achieve food, energy and enlightenment as a warrior wins the battle of his challenges. (Rg. 9-108-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यस्य ते) જે તારા સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માના આનંદરસનું (पीत्वा) ઉપાસના દ્વારા પાન કરીને (वृषभः वृषायते) વૃષભ-સાંઢની સમાન ઉપાસક આત્મા વૃષભ સમાન પુષ્ટ પ્રફુલ્લિત આનંદિત બની જાય છે તથા (अस्य स्वर्विदः पीत्वा) એ તારા સુખને પ્રાપ્ત કરાવનાર આનંદરસનું પાન કરીને (सः सुप्रकेतः) તે ઉપાસક સમ્યક્ જ્ઞાનમય બનીને (इषः अभ्यक्रमीत्) પોતાની એષણાઓ-વાસનાઓને સ્વાધીન કરે છે-જીતી લે છે, (वाजं न एतशः अच्छा) જેમ ઘોડાઓ સંગ્રામને પાર કરીને સ્વાધીન બને છે. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસકજન પરમાત્માના આનંદરસનું પાન કરીને, વૃષભ સમાન પુષ્ટ, બળવાન બની જાય છે; અને તે સ્વર્ગીય સુખ સ્વરૂપ પરમાત્માના આનંદરસનું પાન કરીને, ઉપાસક આત્મા સારી રીતે જ્ઞાનમય પ્રસિદ્ધ બનીને, પોતાની વાસનાઓને સ્વાધીન કરે છે-જીતી લે છે; જેમ બળવાન ઘોડાઓ સંગ્રામને સીધા પાર કરીને સ્વાધીન બને છે. (૨)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या उपासनेने देवाचा भक्त जसा शांती प्राप्त करतो, तसेच इतरांसाठीही शांती प्रस्थापित करतो तेव्हा त्यांचे धर्मानुकूल मनोरथ ताबडतोब सफल होतात ॥२॥

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    विषय

    आता परमेश्वराकडून मिळणाऱ्या शांतिरसाविषयी सांगत आहेत.

    शब्दार्थ

    हे पवमान सोय हे पवित्रतादायक रसागार परमेश्वर, (दस्य ते) तुझा तो शांतिरस (पीत्वा) पिऊन (वृषभा) भगवंताला आपल्या भक्तिरसाने सिंचित करणारा उपासक (वृषायते) बरसणाऱ्या ढगाप्रमाणे आचरण करू लागतो म्हणजे ज्याप्रमाणे एक मेघ ऊन व उष्णतेने व्याकुळ झालेल्या भूमीवर वा लोकांवर शांतिदायक अशी वृष्टी करतो, त्याप्रमाणे तुझ्याकडून मिळणाऱ्या शांतिरसाने उपासक अशांत मनाला शांती व शीतलता देतो. (अस्थ) तुझ्या या शांतिरसाचे (पीत्वा) पान करून लोक वा उपासक (स्वर्विद:) मोक्षसुख प्राप्त करतात. (सुप्रकेत:) उत्कृष्ठ ज्ञानी (स:) तो तुमचा उपासक (इष:अभि) इच्छा सिद्धीच्या दिशेने (अक्रमित) पाऊल टाकतो. कशाप्रकारे? की (म) जसे (एतश:) एक घोडा (वाजम् अच्छ) रणभूमीकडे धावत जातो. ।।२।।

    भावार्थ

    एक भक्त परमेश्वराच्या उपासनेमुळे जशी शांती मिळवितो, तसा तो इतरांवरही शांततेची वृष्टी करतो. तसेच त्याचे धर्मानुकुल असलेले सर्व मनोरथ सफल होतात. ।।२।।

    विशेष

    या मंत्रात ‘वृषभो वृषायते’ या कथनात आचार्य मम्मरच्या मताचा आधार घेतला तर वाचक लुप्तोपमा अलंकार आहे आणि दर्पणकार आचार्य विश्वनाथच्या मताचा आधार घेतल्यास धर्मलुप्तेपमा अलंकार आहे. वृष, वृथा मध्ये धेकानुप्रास आहे. उत्तरार्धात पूर्णोपमा आहे ।।२।।

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