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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 70
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
20
इ꣣न्धे꣢꣫ राजा꣣ स꣢म꣣र्यो꣡ नमो꣢꣯भि꣣र्य꣢स्य꣣ प्र꣡ती꣢क꣣मा꣡हु꣢तं घृ꣣ते꣡न꣢ । न꣡रो꣢ ह꣣व्ये꣡भि꣢रीडते स꣣बा꣢ध꣡ आ꣡ग्निरग्र꣢꣯मु꣣ष꣡सा꣢मशोचि ॥७०॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣न्धे꣢ । रा꣡जा꣢꣯ । सम् । अ꣣र्यः꣢ । न꣡मो꣢꣯भिः । य꣡स्य꣢꣯ । प्र꣡ती꣢꣯कम् । आ꣡हु꣢꣯तम् । आ । हु꣣तम् । घृते꣡न꣢ । न꣡रः꣢꣯ । ह꣣व्ये꣡भिः꣢ । ई꣣डते । स꣣बा꣡धः꣢ । स꣣ । बा꣡धः꣢꣯ । आ । अ꣣ग्निः꣢ । अ꣡ग्र꣢꣯म् । उ꣣ष꣡सा꣢म् । अ꣣शोचि ॥७०॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्धे राजा समर्यो नमोभिर्यस्य प्रतीकमाहुतं घृतेन । नरो हव्येभिरीडते सबाध आग्निरग्रमुषसामशोचि ॥७०॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्धे । राजा । सम् । अर्यः । नमोभिः । यस्य । प्रतीकम् । आहुतम् । आ । हुतम् । घृतेन । नरः । हव्येभिः । ईडते । सबाधः । स । बाधः । आ । अग्निः । अग्रम् । उषसाम् । अशोचि ॥७०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 70
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यज्ञाग्नि के सादृश्य से परमात्माग्नि का विषय वर्णित है।
पदार्थ
प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। (अर्यः) हवि-वहन के कर्म का स्वामी (राजा) वेदि में विराजमान यज्ञाग्नि (नमोभिः) सुगन्धित, मधुर, पुष्टिवर्धक और आरोग्यवर्द्धक हवि के अन्नों से (सम् इन्धे) भली-भाँति प्रदीप्त किया जाता है, (यस्य) जिस यज्ञाग्नि का (प्रतीकम्) ज्वाला-रूप मुख (घृतेन) घृत से (आहुतम्) आहुत होता है। (सबाधः) ऋत्विज (नरः) मनुष्य, उस यज्ञाग्नि का (हव्येभिः) हवियों से (ईडते) सत्कार करते हैं। (अग्निः) वह यज्ञाग्नि (उषसाम्) उषाओं के (अग्रम्) सामने (आ अशोचि) चारों ओर यज्ञवेदि में प्रदीप्त किया जाता है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (अर्यः) सबका स्वामी (राजा) सम्राट् परमात्मा (नमोभिः) नमस्कारों द्वारा (सम् इन्धे) हृदय में भली-भाँति प्रकाशित होता है, (यस्य) जिस परमात्मा का (प्रतीकम्) स्वरूप (घृतेन) तेज से (आहुतम्) व्याप्त है। (सबाधः) बाधाओं से आक्रान्त (नरः) मनुष्य (हव्येभिः) आत्म-समर्पण रूप हवियों से, उस परमात्मा की (ईडते) पूजा करते हैं। (अग्निः) वह परमात्मा (उषसाम्) उषाओं के (अग्रम्) आगे (आ अशोचि) उपासकों के हृदय में प्रदीप्त होता है। अभिप्राय यह है कि प्रभात काल में धारणा, ध्यान एवं समाधि के सुगम होने से हृदय में परमेश्वर के तेज का अनुभव सुलभ होता है ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। यज्ञाग्नि और परमेश्वराग्नि में उपमानोपमेयभाव व्यङ्ग्य है ॥८॥
भावार्थ
जैसे यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि को हवियों से प्रदीप्त करते हैं, वैसे ही मनुष्यों को चाहिए कि हृदय में परमात्मा को नमस्कारों द्वारा प्रदीप्त करें ॥८॥
पदार्थ
(राजा-अर्यः) विश्व में राजमान स्वामी परमात्मा “अर्यः स्वामिवैश्ययोः” [अष्टा॰ ३.१.१०३] (नमोभिः) नम्र स्तुति वचनों से (समिन्धे) आत्मा में प्रकाशित होता है (यस्य प्रतीकम्) जिसका प्रत्यक्त—प्रतिदर्शन—साक्षात्स्वरूप “प्रतीकं प्रत्यक्तं भवति प्रतिदर्शनमिति वा” [निरु॰ ७.३१] (घृतेन-आहुतम्) स्वतेज से प्राप्त है युक्त है “तेजो वै घृतम्” [तै॰ सं॰ २.२.९.४] अतः जब (नरः सबाधः-हव्येभिः-ईडते) देवजन-मुमुक्षुजन “नरो वै देवविशः” [जै॰ १.८९] अध्यात्मयज्ञ के ऋत्विज बनकर “सबाधः-ऋत्विजः” [नि॰ ३.१८] अपने हावभावरूप स्निग्ध स्तवनों से उसकी स्तुति करते हैं तो (उषसाम्-अग्रम्) उषावेलाओं में—जीवन के प्रभातों में प्रथम (अग्निः-आशोचिः) परमात्मा प्रकाशित होता है।
भावार्थ
विश्व में व्यापक विश्व का राजा अपने तेजःस्वरूप से स्वयं प्रकाशमान है, जब मुमुक्षुजन अध्यात्मयज्ञ के याजक बनकर उसके लिये अपनी हावभाव भरी स्निग्ध स्तुतियाँ अर्पित करते हैं तो वह जीवन की प्रभातवेला में अपना ऐसा प्रकाश देता है वे जीवनभर अज्ञानान्धकार से परे रहकर अपनी जीवनसिद्धि को प्राप्त होते हैं॥८॥
विशेष
ऋषि—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥<br>
विषय
मुमुक्षु के लक्षण
पदार्थ
१. (अग्निः) = अपने को उन्नति-पथ पर ले चलनेवाला यह मुमुक्षु (राजा) = बड़ा नियमित जीवनवाला होता है। इसकी सभी क्रियाएँ - खाना, पीना, सोना, जागना-बड़े नियम से चलती हैं, सूर्य-चन्द्र की गति के समान समय पर होती हैं । २. (अर्यः) = यह स्वामी होता है । किनका? अपनी इन्द्रियों का। इन्द्रियों के वशीभूत होकर यह कभी कोई अकार्य नहीं करता। इन्द्रियाँ उसकी उन्नति का साधन होती हुई उसकी दास होती हैं। प्राकृतिक जीवन में उसकी क्रियाएँ नियमित होती हैं, आध्यात्मिक जीवन में संयत ।
इतना उत्कृष्ट जीवनवाला होता हुआ भी वह नम्र होता है और वस्तुतः ३. (नमोभिः) = इन नम्रताओं से (समिन्धे) = और भी अधिक चमकता है। ४. यह मुमुक्षु वह है (यस्य) = जिसका प्(रतीकम्)=अङ्ग-प्रत्यङ्ग (घृतेन) = दीप्ति से (आहुतम्) = आहुत होता है। इसका अङ्ग-प्रत्यङ्ग एक विशेष प्रकार की चमकवाला होता है। उसके मन की शान्ति चेहरे पर ज्योति के रूप में प्रकट होती है।
५. अपने जीवन को इस प्रकार बनाकर यह मुमुक्षु (नरः) = औरों को आगे ले चलनेवाला बनता है और इस लोकहित की प्रवृत्ति में ६. (हव्येभिः) = तन, मन, धन की आहुतियों से यह प्रभु की (ईडते) = उपासना करता है। इस कार्य में यह ७. (सबाध:) = बलयुक्त होता है। इस लोकहित के कार्य को यह ढिलमिलपने से न करके शक्तिशाली बनकर करता है। ८. यह अग्नि (आ-उषसाम् अग्रे) = सदा उषाकाल के अग्रभाग में बहुत तड़के (अशोचि) = अपनी गत दिन की कमियों पर पश्चात्ताप करता है और आगे से उन्हें न दुहराने के दृढ़ निश्चय से अपने को पवित्र व दीप्त बनाता है।
इस प्रकार सब इन्द्रियों को वश में करने के कारण यह मुमुक्षु इस मन्त्र का ऋषि ‘वसिष्ठ' बनता है।
भावार्थ
मुमुक्षु को नियमित व संयत जीवनवाला होकर लोकहित के द्वारा प्रभु की उपासना में निरत रहना चाहिए।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( अर्य: ) = स्वामी ( राजा ) = सबसे अधिक कान्तिमान् ( नमोभिः ) = आदर वचनों से ( सम इन्धे ) = खूब प्रज्वलित होता है । ( यस्य ) = जिसका ( प्रतीकम् १ ) = स्वरूप ( घृतेन ) = घृत, स्नेह, कान्ति या पुष्टिकर पदार्थों से ( आहुतं ) = पूरित, हरा भरा है । उस ( उषसाम् अग्रं ) = उषाकाल में सब से पूर्व प्रकट होने वाले उस अग्नि को ( नरः ) = विद्वान् लोग ( सबाधः ) = उद्वेगों या क्लेशों या विघ्नों से बाधित होकर ( हव्येभिः ) = स्तुतियों से और उत्तम २ पदार्थों से ( ईडते ) = भजन करते हैं । अग्नि के पक्ष में - अग्नि अन्नों से प्रज्वलित होता है । रोगों से पीड़ित लोग उत्तम चरुओं से होमते हैं।
राजा के पक्ष में--राजा आदर वचनों से आवृत होता है और शत्रुओं से पीड़ित प्रजाजन उसकी स्तुति करते हैं ।
टिप्पणी
७० - ‘आग्निरग्रम्' इति ऋ० ।
१. प्रतीकं नाम मुखं । मा० वि० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वसिष्ठ:।
छन्द: - त्रिष्टुभ ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ यज्ञाग्निसादृश्येन परमात्माग्निविषयमाह।
पदार्थः
प्रथमः—यज्ञाग्निपरः। (अर्यः) हविर्वहनकर्मणाम् ईश्वरः। ‘अर्यः स्वामिवैश्ययोः।’ अ० ३।१।३ इत्यनेन स्वाम्यर्थे निपातितः। (राजा) वेद्यां राजमानो यज्ञाग्निः (नमोभिः) सुगन्धिमिष्टपुष्ट्यारोग्यवर्धकैः हविष्यान्नैः। नमः इत्यन्ननाम। निघं० २।७। (सम् इन्धे२) सम्यक् प्रदीप्यते, (यस्य) यज्ञाग्नेः (प्रतीकम्) ज्वालारूपं मुखम् (घृतेन) आज्येन (आहुतम्) प्राप्ताहुति भवतीति शेषः। (सबाधः) ऋत्विजः। सबाध इति ऋत्विङ्नाम। निघं० २।१८ (नरः) मनुष्याः, तम् अग्निम् (हव्येभिः) हविर्भिः (ईडते) सत्कुर्वन्ति। (अग्निः) स यज्ञवह्निः (उषसाम्) उषःकालानाम् (अग्रम्) संमुखम् (आ अशोचि) आ समन्तात् यज्ञवेद्यां प्रदीप्यते। अजी॑जन॒न्त्सू॑र्यं य॒ज्ञम॒ग्निम्। ऋ० ७।७८।३ इत्युषसाम् अग्नेर्जननीरूपेण वर्णनात् ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपरः। (अर्यः) सर्वेषां स्वामी (राजा) सम्राट् परमात्मा (नमोभिः) नमस्कारैः (सम् इन्धे) हृदये सम्यक् प्रकाशते (यस्य) परमात्मनः (प्रतीकम्) स्वरूपम् (घृतेन) तेजसा। तेजो वै घृतम्। तै० सं० २।२।९।४। घृ क्षरणदीप्त्योः। (आहुतम्) व्याप्तं वर्तते। (सबाधः) बाधाभिभूताः। बाधते इति बात्, क्विपि रूपम्, तया सह विद्यमाना; सबाधः। (नरः) मनुष्याः। नृ शब्दस्य प्रथमाबहुवचने रूपम्। तं परमात्माग्निम् (हव्येभिः) हव्यैः, आत्मसमर्पणरूपहविर्भिः (ईडते) पूजयन्ति, बलं याचन्ते वा। ईडते याचन्ति स्तुवन्ति वर्द्धयन्ति पूजयन्तीति वा। निरु० ८।१। (अग्निः) स परमात्मा (उषसाम्) प्रभातवेलानाम् (अग्रम्) अग्रे (आ अशोचि) उपासकानां हृदये प्रदीप्यते। प्रभातकाले धारणाध्यानसमाधीनां सुकरत्वाद् हृदये परमेश्वरदीप्तेरनुभवः सुलभ एवेति भावः ॥८॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। यज्ञाग्निपरमेश्वराग्न्योरुपमानोपमेयभावश्च ध्वन्यते ॥८॥
भावार्थः
यज्ञाग्निर्यज्ञवेद्यां हविर्भिरिव मनुष्यैः परमात्मा हृदये नमस्कारैः प्रदीपनीयः ॥८॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ७।८।१ अग्निरग्र उषसामशोचि इति पाठः। ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं राजा कीदृशः स्यादिति पक्षे व्याख्यातवान्। २. समिन्धे सम्यक् दीप्यते इत्यर्थः—इति वि०। समिध्यते—इति भ०, सा०।
इंग्लिश (3)
Meaning
May God, Whose nature is full of brilliance all round. Whose praise is sung with devotion by those who practise Yogic exercises. Who manifests himself in the heart, when we offer reverential salutations unto Him; Who is Effulgent and Lord of the animate and inanimate creation, shed holiness at dawn, in the hearts of the worshippers.
Meaning
The spirit of life, Agni, which the ruling leader challenging the battle of life kindles with faith, reverence and fragrant oblations, feeding its physical symbol, the yajnic fire, with ghrta, honour and dignity of life, the leading lights of the nation take over, augment it and celebrate it with the best offers of yajna, and then, just as the light of the sun earlier obstructed by nightly darkness rises and shines with the dawns in advance of the day, so does the spirit of the nation earlier suppressed arise on the clarion call of yajna. (Rg. 7-8-1)
Translation
The sovereign fire-divine, supreme of all divine powers, is kindled with tributes, and evoked with the butter of devotional love by his faithful devotees. The men adore him with oblations. The sacred fire-divine is lighted before the advent of dawn.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (राजा अर्यः) વિશ્વમાં રાજમાન સ્વામી પરમાત્મા (नमोनि) નમ્ર સ્તુતિ વચનોથી (समिन्धे) આત્મામાં પ્રકાશિત થાય છે (यस्य प्रतीकम्) જેનું પ્રત્યક્ત - પ્રતિદર્શન - સાક્ષાત્સ્વરૂપ (घृतेनआहुतम्) સ્વતેજ પ્રકાશથી પ્રાપ્ત છે યુક્ત છે ; તેથી જ્યારે (नरः सबाधः हव्येभिः ईडते) દેવજન મુમુક્ષુજનો અધ્યાત્મયજ્ઞના ઋત્વિજ બનીને પોતાના હ્રદયના ભાવથી સ્નિગ્ધ સ્થવનોથી તેની સ્તુતિ કરે છે , ત્યારે (उषसाम् अग्रम्) ઉષાકાળમાં - જીવન પ્રભાતોમાં પ્રથમ (अग्निः आशोचिः) પરમાત્મા પ્રકાશિત થાય છે. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : વિશ્વમાં વ્યાપક વિશ્વનો રાજા પોતાના તેજ સ્વરૂપથી સ્વયં પ્રકાશમાન છે , જ્યારે મુમુક્ષુજન અધ્યાત્મયજ્ઞના યાજક = યજ્ઞકર્તા બનીને તેને માટે પોતાની હૃદયની ભાવપૂર્ણ સ્નિગ્ધ સ્તુતિઓ અર્પણ કરે છે , ત્યારે તે જીવનની પ્રભાતવેળામાં પોતાનો પ્રકાશ પ્રદાન કરે છે , તેઓ જીવનભર અજ્ઞાન અંધકારથી દૂર રહીને પોતાની જીવન સિદ્ધિ ને પ્રાપ્ત કરે છે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
ہَوں کی آہُوتِیاں پرماتما کے اَرپن ہیں!
Lafzi Maana
(راجہ) جگت کا راجہ سب کا سوامی (نموبھی) نمربھاؤ، انکساری، عاجزی اور نمسکاروں دوارہ (سم اِندھے) اچھی پرکار سے پرکاشت ہوتا ہے۔ ( لیسیہ) جس راجاؤں کے راجہ کی (پرتیک) سورُوپ حپنہہ (اگنی) پرتھوی کی پرسِّدھ آگ (گھِریتن آہُوتم) گھِرت وغیرہ سگندھت پدارتھوں کی آہوتی کو پراپت کرتی ہے (سبادھ) وگھن، ب ادھاؤں، کشٹ، کلیشوں سے دُکھی ہوئے نرناری (ہویّے بھی) ان بھوتک آہوتیوں اور اپنے آتما کو اُس پربھو کے سمرپن کرتے ہوے (اِیڈتے) اُس مہاراجہ بھگوان کی پُوجا، ستگار، آگیا پالن رُوپن بھگتی کرتے ہیں، (اگنی) وہ روشنی کا مینار پرکاش روپ پربُہو (اُشسام اگرم) اُوشا کال سے پہلے یعنی برہم مہورت میں (اشوچی) اپنے بھگتوں کے ہردیہ میں چمک اُٹھتا ہے۔
Tashree
اگنی بھگوان کی پرتیک:- ہوں کی اگنی میں ڈالی ہوئی آہُوتیاں بھگوان کی بھینٹ کرتے ہوئے، اندر کی آتما کی آہُوتیاں برہم اگنی میں ایشور ارپن کرنے سے ہی پرماتما دیوانتر آتما میں چمک اُٹھتے ہیں۔ باہر کی اگنی اور آتما کے اندر پرماتم اگنی دونوں اس کی جیوتیاں ہیں، پرتیک ہیں۔ ایسا سمجھنا چاہئیے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसे यज्ञवेदीमध्ये यज्ञाग्नीला हवींनी प्रदीप्त करतात, तसेच माणसांनी हृदयामध्ये परमात्म्याला नमस्काराद्वारे प्रदीप्त करावे ॥८॥
विषय
पुढील मंत्रात यज्ञाग्नीच्या सादृश्याने परमात्म अग्नीचविषयी वर्णन केले आहे. -
शब्दार्थ
प्रथम अर्थ (यज्ञाग्नीपरक) (अर्थ:) हविवहन कर्माचा स्वामी (राजा) वेदीमध्ये विराजमान यज्ञाग्नी (नमोभि:) सुगंधित, मधुर, पुष्टिवर्धक आणि आरोग्यवर्धक हवीच्या अन्नाद्वारे (इम्इन्धे) चांगल्या प्रकारे प्रदीप्त केला जातो. (यस्य) ज्या यज्ञाग्नीचे (प्रतीकम्) ज्वाला रूप मुख (घृतेन) घृताने (आहुतम्) आहुत होते (अग्नीला घृत भरविला जाते) (सबाध:) ऋत्विज (नर:) मनुष्य त्या यज्ञाग्नीचा (हव्येभि:) हव्य पदार्थांद्वारे (ईडते) सत्कार करता (अग्नि:) तो यज्ञाग्नी (उपसाम्) उष:काळाच्या (अग्रम्) पुढे (आ अशोचि) चारही बाजूला यज्ञकुंडात प्रदीप्त केला जातो. द्वितीय अर्थ : (परमात्मपरक) (अर्थ:) सर्वांचा स्वामी (राजा) सम्राट परमात्मा (नमोभि:) नमस्कारांद्वारे (सम् इन्धे) हृदयात श्रेष्ठ प्रकारे प्रकाशित होतो. (यस्य) ज्या परमात्म्याचे (प्रतीकम्) स्वरूप (घृतेन) त्याच्या तेजाने (आहुतम्) सर्वत्र व्याप्त आहे. (सबाध:) संकटे व बाधा याने आक्रांत (नर:) माणूस (हव्येभि:) आत्मसमर्पणरूप हविद्वारे त्या परमेशाची (ईडते) पूजा करतो. तेव्हा तो (अग्नि:) परमात्मा (उषसाम्) उष:काळाच्या (अग्ने) आधी (म्हणजे ब्राह्ममुहूर्तात) (आ अशोचि) उपासकांच्या हृदयात प्रदीप्त होतो. (उपासकांना त्याची जाणीव होऊ लागते.) तात्पर्य हा की प्रभातकाळी धारणा, ध्यान व समाधी हे सुलभ असल्यामुळे उपासकांना परमेश्वराच्या तेजाचे अनुभव सहज होऊ लागते. ।।८।।
भावार्थ
जसे हविद्वारे यज्ञवेदीत यज्ञाग्नी प्रदीप्त करतात. तसेच मनुष्यांनीही आपल्या अंत:करणात नमस्कारांद्वारे परमेश्वराचे ध्यान प्रदीप्त करावे. ।।८।।
विशेष
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. यज्ञाग्नी आणि परमेश्वर अग्नीत उपमान उपमेयभाव व्यंजित आहे. ।।८।।
तमिल (1)
Word Meaning
[1]நெய்யினால் ஆகுதமான ராஜாவான சோதி வடிவமான அக்னி துதிகளால் எழுச்சியாக்கப்படுகிறான். யக்ஞ புருஷர்களான மனிதர்கள் ஹவிஷுகளால் துதிக்கிறார்கள். அந்த அக்னி உஷாகாலத்திற்கு முன்னர் [2]உதயமாகிறான்
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