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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 701
    ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    21

    ऋ꣣त꣡स्य꣢ जि꣣ह्वा꣡ प꣢वते꣣ म꣡धु꣢ प्रि꣣यं꣢ व꣣क्ता꣡ पति꣢꣯र्धि꣣यो꣢ अ꣣स्या꣡ अदा꣢꣯भ्यः । द꣡धा꣢ति पु꣣त्रः꣢ पि꣣त्रो꣡र꣢पी꣣च्यां꣢३꣱ ना꣡म꣢ तृ꣣ती꣢य꣣म꣡धि꣢ रोच꣣नं꣢ दि꣣वः꣢ ॥७०१

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ꣣त꣡स्य꣢ । जि꣣ह्वा꣢ । प꣣वते । म꣡धु꣢꣯ । प्रि꣣य꣢म् । व꣣क्ता꣢ । प꣡तिः꣢꣯ । धि꣣य꣢ । अ꣡स्याः꣢ । अ꣡दा꣢꣯भ्यः । अ । दा꣣भ्यः । द꣡धा꣢꣯ति । पु꣣त्रः꣢ । पु꣣त् । त्रः꣢ । पि꣣त्रोः꣢ । अ꣣पीच्य꣢म् । ना꣡म꣢꣯ । तृ꣣ती꣡य꣢म् । अ꣡धि꣢꣯ । रो꣣चन꣢म् । दि꣣वः꣢ ॥७०१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतस्य जिह्वा पवते मधु प्रियं वक्ता पतिर्धियो अस्या अदाभ्यः । दधाति पुत्रः पित्रोरपीच्यां३ नाम तृतीयमधि रोचनं दिवः ॥७०१


    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतस्य । जिह्वा । पवते । मधु । प्रियम् । वक्ता । पतिः । धिय । अस्याः । अदाभ्यः । अ । दाभ्यः । दधाति । पुत्रः । पुत् । त्रः । पित्रोः । अपीच्यम् । नाम । तृतीयम् । अधि । रोचनम् । दिवः ॥७०१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 701
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में ईश्वररचित वेदों से उपासक क्या फल प्राप्त करता है, यह वर्णित है।

    पदार्थ

    (ऋतस्य) सत्यस्वरूप जगदीश्वर की (जिह्वा) वेदवाणी (प्रियम्) प्रिय (मधु) अध्यात्मज्ञानरूप मधु को (पवते) बहा रही है। (अस्याः धियः) इस ज्ञानमयी वेदवाणी का (वक्ता) वक्ता (पतिः) जगत्पति परमेश्वर (अदाभ्यः) अजर-अमर है। इस वेदवाणी के माध्यम से (पुत्रः) अमृतमय परमात्मा का पुत्र उपासक (पित्रोः) माता-पिता से भी (अपीच्यम्) छिपे हुए, (दिवः रोचनम्) जीवात्मा को प्रकाशित करनेवाले (तृतीयं नाम) तृतीय पद ओंकार को (अभिदधाति) हृदय में धारण कर लेता है। कहा भी है-तत्त्वदर्शी विद्वान् लोग विष्णु परमात्मा के उस परमपद का वैसे ही स्वाभाविक रूप से दर्शन करते हैं, जैसे सूर्यप्रकाश में आँख पदार्थों को देखती है (य० ६।५) ॥२॥

    भावार्थ

    प्रकृति, जीवात्मा और ओंकार ये तीन पद हैं। ईश्वररचित वेदों का रहस्यार्थ जानकर मनुष्य अपने माता-पिता से भी अधिक ज्ञानी होकर ओंकार-रूप परमपद को प्राप्त करने योग्य हो जाता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (ऋतस्य जिह्वा) अमृतस्वरूप सोम शान्त परमात्मा की वाक्—स्तुति “ऋतममृतमित्याह” [जै॰ २.१६०] (मधुप्रियं पवते) मधु है प्रिय जिसको ऐसे उपासक को पवित्र कर देती है (अस्या धियः-वक्ता-अदाभ्यः पतिः) इस स्तुतिरूप धी का प्रज्ञा प्रवचनकर्ता अदभनीय पति है—अधिकारी है (पित्रोः पुत्रः) द्यावापृथिवी लोकद्वय का त्राणकर्ता (दिवः-अधि रोचनं तृतीयम्) प्रकाशमय मोक्ष में रुचिकर तृतीय अमृत नाम ओ३म् सोम (अपीच्यं नाम दधाति) अन्तर्हित “अपीच्यम्-अन्तर्हितनाम” [निघं॰ ३.२५] नाम को धारण करता है।

    भावार्थ

    अमृतस्वरूप शान्त परमात्मा की स्तुति परमात्मसम्बन्धी मधुर इसको चाहने वाले को उपासक को पवित्र कर देती है, इस स्तुतिरूप प्रज्ञा का प्रवचनकर्ता अहिंसनीय अधिकारी हो जाता है द्यावापृथिवी का त्राणकर्ता मोक्ष में रुचिकर अमृतनाम ओ३म् अन्तर्हित को धारण करता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    माता-पिता का सच्चा पुत्र

    पदार्थ

    'कवि भार्गव' की १. (ऋतस्य जिह्वा) = सत्य की वाणी (मधु पवते) = माधुर्य को प्रकट करती है, अर्थात् यह कवि सदा सत्य वाणी को ही प्रिय ढंग से बोलता है । २.( प्रियं वक्ता) = अप्रिय शब्द न बोलकर सदा प्रिय शब्दों का उच्चारण करता है । ३. यह (अस्याः धियः पतिः) = ‘सत्य को प्रिय प्रकार से बोलने' की कला [धी] का पति होता है, अर्थात् प्रिय सत्य को प्रकट करने में नैपुण्य प्राप्त कर लेता है, परन्तु खुशामदी नहीं बनता । खुशामदी बनना तो दूर रहा वह न दबनेवाला, ४. (अदाभ्यः) = एक विशेष प्रकार की तेजस्वितावाला तथा पवित्र बना रहता है ।

    समाज में उल्लिखित ढंग से वर्त्तता हुआ यह कवि (पित्रोः पुत्रः) = अपने परमेश्वररूप मातापिता का सच्चा पुत्र बनकर (अपीच्याम्) = सुन्दर व रहस्यमय (नाम) = नमन - विनीतता को (दधाति) = धारण करता है। यह विनीतता ही (तृतीयम्) = उसका तीर्णतम तीसरा गुण है। पहला गुण 'प्रिय, मधुर, सत्य बोलना' था, द्वितीय गुण 'न दबना व पवित्र बने रहना था' तृतीय गुण 'विनीतता' है । यह विनीतता (दिवः) = ज्ञान का, प्रकाश का (अधिरोचनम्) = उत्तम आभूषण है। इसकी विनीतता इस ‘भार्गव कवि' के ज्ञान को चार चाँद लगा देती है – उसे अधिक दीप्त कर देती है ।

    भावार्थ

    १. प्रिय सत्य बोलनेवाले, २. पवित्र तेजस्वी तथा ३. विनीत ज्ञानी बनते हुए हम अपने माता-पिता के सच्चे पुत्र बनें ।

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    विषय

    सत्य-महिमा

    शब्दार्थ

    (ऋतस्य) सत्यवादी, योगाभ्यासी की (जिह्वा) वाणी (प्रियम् ) हृदय को तृप्त करनेवाले (मधु) आनन्ददायक रस को (पवते) बहाती है (अस्याः धियः) इस सत्य भाषण का (पति) पालक और (वक्ता) सत्य ही बोलनेवाला (अदाभ्य:) दुर्दमनीय होता है, वह किसी से दबाया नहीं जा सकता (पुत्रः) सत्यवादी पुत्र (पित्रो:) माता-पिता की (अपीच्यम्) अप्रसिद्ध अज्ञात (नाम) कीर्ति और यश को (दधाति) प्रकाशित कर देता है, फैला देता है । सत्यवादी पुत्र (तृतीयाम्) तीसरे, परमोत्कृष्ट (दिवः) द्युलोक में भी (अधिरोचनम्) अपने माता-पिता के नाम को रोशन करता है ।

    भावार्थ

    १. सत्यवादी सदा हृदय को तृप्त करनेवाली मीठी और मधुर वाणी बोलता है। उसके जीवन का आदर्श होता है ‘सत्य, प्रिय और हितकर’ बोलना । वह कभी कटु और तीखा नहीं बोलता । २. पापी और दुराचारी सत्यभाषी को कष्ट देकर भी उसके सत्यभाषणरूप कर्म से पृथक् नहीं कर सकते। आपत्तियाँ और संकट आने पर भी सत्यवादी सत्य ही बोलता है । ३. सत्यवादी पुत्र सत्यभाषण के प्रताप से अपने माता-पिता के अज्ञात नाम को, उनके यश और कीर्ति को चमका देता है । ४. साधारण लोगों की तो बात ही क्या, वह उच्चकोटि के विद्वानों में भी अपने माता-पिता के नाम को फैला देता है ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( २ ) ( ऋतस्य ) = सत्यवादी, योगाभ्यासी की ( जिह्वा ) = वाणी ( प्रियं ) = अति उत्तम, हृदय को तृप्त करने वाले, ( मधु ) = आनन्दजनक रस और ज्ञान को ( पवते ) = बहाती है। ( अस्याः ) = इस ( धियः पतिः ) = सत्य धारणा या बुद्धि का स्वामी और ( वक्ता ) = सत्य वाणी का बोलने हारा ( अदाभ्यः ) = कभी नाश नहीं किया जा सकता, पापियों से मार कर दबाया नहीं जा सकता । तब वह योगी ( पुत्रः ) = अपने मा बाप का सुपुत्र ( पित्रोः ) = मा बाप से भी ( अपीच्यं ) = अज्ञात ( तृतीयं ) = तीसरे ( दिवः अधि रोचनं ) = दिव्य गुण वाले ज्ञानप्रकाश से युक्त , सूर्य के समान सर्वत्र प्रकाश करने वाला, विद्वानों के समाज की शोभा बढ़ाने वाला ( नाम ) = स्वरूप या तेजस्वी पद ( दधाति ) = प्राप्त करता है। एक माता का प्रेम का नाम, एक पिता का व्यावहारिक नाम, तीसरा वह प्रतिष्ठित नाम जिससे दुनिया उसका आदर करती है, जैसे महर्षि, महात्मा, लोकमान्य, देशबन्धु आदि। यहां सत्यवाणी सोम है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - आन्धीगव: । देवता - सोम:। छन्दः - जगती । स्वरः -  निषाद: ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वररचितेभ्यो वेदेभ्य उपासकः किं प्राप्नोतीत्याह।

    पदार्थः

    (ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य पवमानस्य सोमस्य जगदीश्वरस्य (जिह्वा) वेदवाणी। [जिह्वेति वाङ्नाम। निघं० १।११, जिह्वा सरस्वती। श० १२।९।१।१४।] (प्रियम्) मनोहरम् (मधु) अध्यात्मज्ञानरूपं मधु (पवते) क्षरति। (अस्याः धियः) अस्याः ज्ञानमय्याः वेदवाण्याः (वक्ता) उच्चारयिता (पतिः) जगत्पतिः परमेश्वरः (अदाभ्यः) अहिंस्यः, अजरामरः विद्यते। अस्याः वेदवाचः माध्यमेन (पुत्रः) अमृतपुत्रः उपासकः। [शृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे॑ अ॒मृत॑स्य पुत्राः। ऋ० १०।१३।१ इति श्रुतेः मानवस्य अमृतपुत्रत्वम्] (पित्रोः) मातापित्रोः (अपीच्यम्) अन्तर्हितम्, अज्ञातम् (दिवः रोचनम्) जीवात्मनः प्रकाशकम् (तृतीयं नाम) तृतीयं पदम् ओंकाररूपम् (अधि दधाति) हृदि धारयति। [यथोक्तम्—‘तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः॑। दि॒वी॒व॒ चक्षु॒रात॑तम्’ इति य० ६।५] ॥२॥

    भावार्थः

    प्रकृतिर्जीवात्मा ओंकारः इति त्रीणि पदानि। ईश्वरचितानां वेदानां रहस्यार्थज्ञानेन मानवः स्वकीयौ मातापितरावप्यतिक्रम्य ओंकाररूपं पदं प्राप्तुमर्हति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।७५।२ ‘रोचनं’ इत्यत्र ‘रोच॒ने’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The tongue of a truthful Yogi imparts heart-appeasing knowledge. The lord of such an intellect and the speaker of truth is unconquerable by sin. The Yogi, a true son of his parents, the diffuser of the light of knowledge like the Sun r acquires a third glorious position, unknown to his father and mother.

    Translator Comment

    The lord' refers to the Yogi, ‘Third' may mean a position higher than that acquired by his father and mother, or it may mean a dignified position higher than that acquired by him through birth from his father and mother of which his parents had no knowledge.

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    Meaning

    The flame of yajna as the voice of eternal truth rises and expresses the dear delicious beauty and glory of Soma, spirit of universal light and bliss. The speaker and protector of the acts of yajna and Soma truth of life is fearless, undaunted. Just as progeny is the continuance and illumination of the honour and reverence of parents, so is yajna the progeny and illuminative soma of Soma refulgent in the third and highest region of the light of existence. (Rg. 9-75-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ऋतस्य जिह्वा) અમૃતરૂપ સોમ શાન્ત પરમાત્માની વાક્ - સ્તુતિ (मधुप्रियं पवते) જેને મધુર અને પ્રિય છે એવા ઉપાસકને પવિત્ર કરી દે છે (अस्याः धियः वक्ता अदाभ्यः पतिः) એ સ્તુતિ રૂપ ધી = બુદ્ધિનો પ્રવચનકર્તા અડભનીય પતિ છે - અધિકારી છે. (पित्रोः पुत्रः) દ્યાવા પૃથિવી બન્ને લોકોના ત્રાણ = રક્ષણ કર્તા (दिवः अधि रोचनं तृतीयम्) પ્રકાશમય મોક્ષમાં રુચિકર તૃતીય અમૃત નામ (ओरृम्) સોમ‌ (अपीच्यं नाम दधाति) અંતર્હિત નામને ધારણ કરે છે. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : અમૃત સ્વરૂપ શાન્ત પરમાત્માની સ્તુતિ પરમાત્મા સંબંધી મધુર તેને ચાહનારને ઉપાસકને પવિત્ર કરી દે છે, તે સ્તુતિ રૂપ પ્રજ્ઞા =બુદ્ધિના પ્રવચનકર્તા અહિંસનીય અધિકારી બની જાય છે. દ્યાવા પૃથિવીના ત્રાણકર્તા મોક્ષમાં રુચિકર અમૃતનામ ओ३म् અંતર્હિતને ધારણ કરે છે.
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    प्रकृती, जीवात्मा व ओंकार ही तीन पदे आहेत. ईश्वररचित वेदांचा रहस्यार्थ जाणून माणसाने आपल्या माता-पित्यापेक्षा अधिक ज्ञानी बनून ओंकार-रूप परमपद प्राप्त करण्यायोग्य होतो. ॥२॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात ईश्वराने रचलेल्या वेदांपासून उपासक कोणता लाभ प्राप्त करतो हा विषय वर्णित आहे. -

    शब्दार्थ

    (ऋवस्य) सत्यस्वरूप परमेश्वराची (जिव्हा) वेदवाणी (प्रियम्) प्रिय (मधु) अध्यात्मज्ञानरूप मधु (पवते) प्रवाहित करीत आहे. (वेदांपासून अध्यात्मविज्ञान प्रकट होत आहे.) अस्याधिय:) या ज्ञानमयी वेदवाणीचा (वक्ता) रस्ता म्हणजे सांगणारा (एवि:) स्वामी जगत्यवि परमेश्वर (सदाभ्य:) अजरामर आहे. या वेदवाणीच्या माध्यमातून (पुत्र:) अमृतमय परमात्म्याचा पुत्र म्हणजे उपासक (पित्रो:) त्याच्या माता पित्याहूनही अप्राप्त वा अग्रधीत (दिव: रोचनम्) जीवात्म्यास प्रकाशित करणाऱ्या (तृतीयं नाम) तृतीय पद ओंकार त्याला (अभिदधाति) हृदयात धारण करतो. वेदाध्यमनाने उपासक त्याच्या आई वडील वा पुवर्जांनाही न समजलेला आध्यात्मिक अर्थ प्राप्त करतो. (यजुर्वेदात ६/५) या ठिकाणी म्हटले आहेच की तत्त्वदर्शी विद्वज्जन विष्णु परमात्म्याच्या परम पदाचे दर्शन अशाप्रकारे करतात की, जसे डोळे सुर्यप्रकाशात सर्व पदार्थांना पाहतात.

    भावार्थ

    तीन पद आहेत. प्रकृती,जीवात्मा व ओंकार ईश्वररचित वेदांचा रहस्यमय अर्थ जाणून घेऊन माणूस अपाल्या मातापितापेक्षाही अधिक ज्ञानी होतो आणि परमपद प्राप्त करण्यास प्राप्त होतो. ।।२।।

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