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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 706
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    8

    य꣢त्र꣣꣬ क्व꣢꣯ च ते꣣ म꣢नो꣣ द꣡क्षं꣢ दधस꣣ उ꣡त्त꣢रम् । त꣢त्र꣣ यो꣡निं꣢ कृणवसे ॥७०६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣡त्र꣢꣯ । क्व꣢ । च꣣ । ते । म꣡नः꣢꣯ । द꣡क्ष꣢꣯म् । द꣣धसे । उ꣡त्त꣢꣯रम् । त꣡त्र꣢꣯ । यो꣡नि꣢꣯म् । कृ꣣णवसे ॥७०६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र क्व च ते मनो दक्षं दधस उत्तरम् । तत्र योनिं कृणवसे ॥७०६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । क्व । च । ते । मनः । दक्षम् । दधसे । उत्तरम् । तत्र । योनिम् । कृणवसे ॥७०६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 706
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे विद्यार्थिन् ! (यत्र क्व च) जिस किसी भी विज्ञान में (ते मनः) तेरा मन है, अर्थात् तेरी रुचि है, उसमें (उत्तरम्) अधिकाधिक (दक्षम्) बल को, निपुणता को (दधसे) धारण कर और (तत्र)उस विज्ञान में (योनिम्) घर (कृणवसे) कर ले, अर्थात् उस विद्या में पारंगत हो जा ॥२॥

    भावार्थ

    जिन भी विद्याओं में शिष्यों की रुचि तथा ग्रहणशक्ति हो, उन विद्याओं में गुरुजन उन्हें निष्णात करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (यत्र क्व च) जिस भी उपासक में (ते) तेरे लिए (मनः) मनोभाव—मनन—आस्तिकता है वहाँ तू (उत्तरं दक्षं दधसे) अपना उत्तम वरने योग्य स्वरूप धारण करता है—स्थापित करता है और (तत्र) वहाँ (योनिं कृणवसे) अपना निवास स्थान बनाता है।

    भावार्थ

    परमात्मन्! जिस उपासक के अन्दर तेरे प्रति मनोभाव आस्तिकता है वहाँ तू अपना दर्शन-ज्ञान कराता है और वहाँ अपना निवास बनाता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    जो अन्त मता, सो गता

    पदार्थ

    प्रभु जीव से कहते हैं कि (यत्र क्व च) =  जहाँ कहीं भी (ते मन:) = तेरा मन होता है, अर्थात् जो भी भावना तेरे अन्दर प्रयाणकाल में प्रबल होती है (तत्र) = वहाँ ही, उसके अनुसार ही तू (योनिम्) = अपने जन्म-स्थान को (कृणवसे) = करता है – बनता है । यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि मनुष्य अपने इस जीवन में जिन भी भावनाओं से भरा रहता है, अन्त में उसी का उसे स्मरण होता है और तदनुसार ही वह अगला जीवन प्राप्त करता है । अन्त में प्रभु का स्मरण करता है, तो प्रभु को पाता है । अन्त में प्रभु का ही स्मरण हो इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन को सदा प्रभु की भावना से ओत-प्रोत करें। एवं, प्रभु कहते हैं 'जहाँ भी तेरा मन होता है, वहीं तू जन्म पाता है और उस उस जीवन में उन्नति के लिए उत्तरम् (दक्षम् दधसे) = उत्कृष्ट बल को धारण करता है।'' दक्षम्' उस बल व शक्ति को कहते हैं जो वृद्धि व उन्नति का कारण होता है ।

    हमें अपनी भावना के अनुसार ही योनि व शक्ति प्राप्त होती है, अतः हम अपने जीवन को सदा उत्कृष्ट भावनाओं से भरें, जिससे अन्त में उसी भावना से ओत-प्रोत हुए हुए यहाँ से जाएँ और उत्कृष्ट जन्म का लाभ करें ।

    भावार्थ

    हम प्रणव का जप करते हुए प्राणों को छोड़ने की तैयारी करें, जिससे इस जन्म के अन्त में प्रभु की गोद में पहुँच सकें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = (२) हे ( अग्ने ) = ज्ञानी आत्मन् ! हे परमात्मन् ! तू ( ते ) = अपने ( मन ) = चित्त या मनन करनेहार आत्मा का ( उत्तरं ) = उन्नत ( दक्षं ) = कर्म ( दधसे ) = धारण कर । ( तत्र ) = वहां तू ( योनिं ) = आश्रयस्थान ( कृणवसे ) = बना ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - साकमश्व: । देवता - अग्नि:। छन्दः - गायत्री । स्वरः -   षड्ज:।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे विद्यार्थिन् ! (यत्र क्व च) यत्र कुत्रापि, यस्मिन् कस्मिन्नपि विज्ञाने (ते मनः) तव चित्तम्, अस्ति, तत्र (उत्तरम्) अधिकतरम् (दक्षम्) बलम्, नैपुण्यम् (दधसे) धत्स्व। अपि च (तत्र) तस्मिन् विज्ञाने (योनिम्) गृहम् (कृणवसे) कुरुष्व, तस्यां विद्यायां पारंगतो भवेत्यर्थः ॥२॥

    भावार्थः

    यास्वपि विद्यासु शिष्याणां रुचिर्ग्रहणशक्तिश्च भवेत्, तासु विद्यासु ते गुरुभिर्निष्णाताः कार्याः ॥२॥४

    टिप्पणीः

    ३. ऋ० ६।१६।१७, ‘तत्रा॒ सदः॑ कृणवसे’ इति तृतीयः पादः। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, wherever the mental force wields exalted power in thee; there thou createst thy dwelling place !

    Translator Comment

    The soul of a man of iron determination helps him in achieving his aim.

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    Meaning

    O leading light, where, wherever in fact, is your mind, there you hold your efficiency and identity, and there indeed you create your haven and home. (Rg. 6-16-17)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यत्र क्व च) જે પણ ઉપાસકમાં (ते) તારા માટે (मनः) મનોભાવ-મનન-આસ્તિકતા છે ત્યાં તું (उत्तरं दक्षं दधसे) તારું શ્રેષ્ઠ વરણ કરવા યોગ્ય સ્વરૂપ ધારણ કરે છે-સ્થાપિત કરે છે અને (तत्र) ત્યાં (योनिं कृणवसे) પોતાનું નિવાસ સ્થાન બનાવે છે. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! જે ઉપાસકની અંદર તારા પ્રત્યે મનોભાવ-આસ્તિકતા છે, ત્યાં તું તારા દર્શન-જ્ઞાન કરાવે છે; અને ત્યાં પોતાનો નિવાસ બનાવે છે. (૨)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्या विद्यांमध्ये शिष्यांची रुची व ग्रहणशक्ती असेल, त्या विद्यांमध्ये गुरुजनांनी त्यांना निष्णात् करावे ॥२॥

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    शब्दार्थ

    आचार्य शिष्यास म्हणतात हे विद्यार्थी ज्या कोणा एका विज्ञानाकडे (विद्याशाखेकडे) ते मन:) तुझे मन म्हणजे तुझी रूची व प्रवृत्ती आहे. त्यातच तू (उरम्) अधिकाधिक (दक्षम्) शक्ती वा नैपुण्य (दधसे) धारण कर आणि (तंत्र) त्याच विषयात विज्ञानात (योनिम्) घर (कृणवसे) कर म्हणजे त्याच विद्याशाखेत वा विज्ञानात प्रावीण्य मिळव. ।।२।।

    भावार्थ

    ज्या विद्येकडे विद्यार्थ्यांची अधिक रूची आणि ग्रहण करण्यात अधिक क्षमता असेल गुरुजनांनी त्यांना त्याच विद्येत निष्णात करावे. ।।२।।

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