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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 725
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
7
अ꣣यं꣡ त꣢ इन्द्र꣣ सो꣢मो꣣ नि꣡पू꣢तो꣣ अ꣡धि꣢ ब꣣र्हि꣡षि꣢ । ए꣡ही꣢म꣣स्य꣢꣫ द्रवा꣣ पि꣡ब꣢ ॥७२५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣य꣢म् । ते꣣ । इन्द्र । सो꣡मः꣢꣯ । नि꣡पूतः꣢꣯ । नि । पू꣣तः । अ꣡धि꣢꣯ । ब꣣र्हि꣡षि꣢ । आ । इ꣣हि । ईम् । अस्य꣢ । द्र꣡व꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ ॥७२५॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं त इन्द्र सोमो निपूतो अधि बर्हिषि । एहीमस्य द्रवा पिब ॥७२५॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । ते । इन्द्र । सोमः । निपूतः । नि । पूतः । अधि । बर्हिषि । आ । इहि । ईम् । अस्य । द्रव । पिब ॥७२५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 725
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १५९ क्रमाङ्क पर भक्तिरस के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ ज्ञान-रस का विषय प्रस्तुत है।
पदार्थ
आचार्य कह रहा है—हे (इन्द्र) शिष्य के अन्तरात्मन् ! (अयम्) यह (सोमः) अध्यात्म-विद्या का रस (ते) तेरे लिए (बर्हिषि अधि) विद्या-यज्ञ में (निपूतः) अत्यधिक पवित्र रूप में उपस्थित है। (एहि) आ, (ईम्) इसके प्रति (द्रव) झपट, (अस्य) इस अध्यात्म-विद्या के रस को (पिब) पान कर ॥१॥
भावार्थ
जिसका आत्मा अध्यात्मविद्या के ग्रहण के लिए अत्यधिक उत्कण्ठित है, वही गुरु के पास से ब्रह्मज्ञान पा सकता है ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १५९)
विशेष
ऋषिः—इरिम्बिठः (हृदयाकाश में स्थिर स्तुतिकर्ता)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
निरभिमानता व पवित्रता
पदार्थ
इरिम्बिठि ऋषि प्रभु से कहते हैं कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (अयम्) = यह (ते) = तेरा (सोमः) = विनीत भक्त (अधिबर्हिषि) = हृदय में (निपूत:) = निश्चय से पवित्र बना है । (एहि) = आइए (ईम्) = निश्चय से (अस्य द्रव) = इसकी ओर दया से द्रवीभूत होओ और (पिब) = इसकी रक्षा कीजिए ।
इस मन्त्र का व्याख्यान १५९ संख्या पर हो चुका है । इरिम्बिठि विनीत व पवित्र हृदय बनने का प्रयत्न करता है और प्रभु की दया व रक्षा के लिए याचना करता है । सोम शब्द 'स+उमा' इस व्युत्पत्ति से ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करनेवाले का वाचक है और सोम विनीत को भी कहते हैं। ‘बर्हि' उस हृदय का नाम है, जिसमें से वासनाओं का उद्बर्हण करके उसे निर्मल कर डाला गया है। वस्तुतः सोम-ज्ञानी और परिणामतः विनीत ही अपने को निर्मल बना पाता है। एवं, क्रम यह है कि—१. मनुष्य ज्ञानी बने [स+उमा], २. ज्ञान से विनीतता प्राप्त करे, सोम बने, ३. सौम्यता से पवित्र हृदय हो, अपने अन्तःकरण को 'बर्हि' इस सार्थक नामवाला बनाए और ४. इस प्रकार अपने को प्रभु की दया व रक्षा प्राप्ति का अधिकारी बनाए । इस सबके लिए यह इरिम्बिठि तो बने ही । [ईर् = गति, बिठ- हृदयान्तरिक्ष] इसका हृदय सदा क्रिया के सङ्कल्पवाला हो । यह कभी भी अकर्मण्य न हो ।
भावार्थ
हम क्रमशः ज्ञान, विनीतता, पवित्रता व प्रभु-कृपा का सम्पादन करें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (१) व्याख्या देखो अवि० स० [१५९] पृ० ८९।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - इरिमिठि:। देवता - इन्द्र:। स्वरः - षड्ज: ।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५९ क्रमाङ्के भक्तिरसविषये व्याख्याता। अत्र ज्ञानरसविषयः प्रस्तूयते।
पदार्थः
आचार्यो ब्रूते—हे (इन्द्र) शिष्यस्य अन्तरात्मन् ! (अयम्) एषः (सोमः) अध्यात्मविद्यारसः (ते) तुभ्यम् (बर्हिषि अधि) विद्यायज्ञे (निपूतः) नितरां पवित्रीकृतोऽस्ति। (एहि) आगच्छ, (ईम्) एनं प्रति (द्रव) त्वरस्व, (अस्य) एतस्य अध्यात्मविद्यारसस्य (पिब) आस्वादनं कुरु ॥१॥
भावार्थः
यस्य आत्माऽध्यात्मविद्याग्रहणाय प्रकाममुत्कण्ठितः स एव गुरोः सकाशाद् ब्रह्मज्ञानमधिगन्तुमर्हति ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।१७।११, अथ० २०।५।५, साम० १५९।
इंग्लिश (2)
Meaning
O rain bringing force of nature, this purified Soma, used m oblation in the Yajna, is meant for thee. Run hither, come and drink it !
Translator Comment
The verse 725 is the same as 159, but with a different interpretation. The Soma, a medicinal herb used in oblations in a Yajna rises high to the sky and brings rain.
Meaning
Indra, this soma pure and sanctified on the holy grass of yajna vedi, is dedicated to you. Come fast, you would love it, drink and enjoy, and protect and promote it for the good of all. (Rg. 8-17-11)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (ते) તારા માટે (बर्हिषि अधि) મારા હૃદયાવકાશમાં (अयं सोमः निपूतः) એ ઉપાસનારસ નિષ્પન્ન કરેલ છે, (ईम एहि) એની પાસે આવ, (अस्य द्रव पिब) એના પ્રત્યે શીઘ્ર ગતિ કર અને એનું પાન કર. (૫)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! મેં મારા હૃદયાવકાશમાં તારા માટે ઉપાસનારસને શ્રદ્ધાથી નિષ્પાદિત કરેલ છે , તું મારા હૃદયમાં આવ , શીઘ્ર આવીને એનું પાન કર - સ્વીકાર કર. (૫)
मराठी (2)
भावार्थ
ज्याचा आत्मा अध्यात्मविद्येचे ग्रहण करण्यासाठी अत्याधिक उत्कंठित असतो, तोच गुरूकडून ब्रह्मज्ञान प्राप्त करू शकतो. ॥१॥
विषय
प्रथम ऋचेची पूर्वार्चिक भागाच्या मंत्र क्र. १५९ मध्ये भक्तीरसाच्या संदर्भात व्याख्या केली आहे, ती ज्ञान रसाविषयी सांगितली आहे.
शब्दार्थ
आचार्य म्हणत आहेत - (इन्द्र) माझ्या या शिष्याचा हे आत्मा (अयम्) हा (सोम:) अध्यात्मविद्येचा रस (ते) तुझ्यासाठी (बर्हिषि अधि) विद्यायज्ञात (निपुत:) अतिशय पवित्र रूपात उपस्थित होत आहे. हे शिष्या तुला विद्या देताना मी उत्तमोत्तम विद्या प्रदान करीत आहे. (एहि) पुढे ये (ईम्) या ज्ञानरसाच्या प्राप्तीसाठी (द्रव) झपटत ये आणि (अस्य) या अध्यात्म विद्यारूप रसाचे (पिन) प्राशन कर. (माझ्याकडून ही अध्यात्म विद्या ग्रहण कर. ।।१।।
भावार्थ
ज्याचा आत्मा अध्यात्म विद्या ग्रहणाकरीता अत्यधिक उत्कंठित आहे असाच शिष्य वा व्यक्ती गुरूकडून ब्रह्मज्ञान प्राप्त करू शकतो. ।।१।।
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