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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 754
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - अश्विनौ छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    1

    यु꣣वं꣢ चि꣣त्रं꣡ द꣢दथु꣣र्भो꣡ज꣢नं नरा꣣ चो꣡दे꣢थाꣳ सू꣣नृ꣡ता꣢वते । अ꣣र्वा꣢꣫ग्रथ꣣ꣳ स꣡म꣢नसा꣣ नि꣡ य꣢च्छतं꣣ पि꣡ब꣢तꣳ सो꣣म्यं꣡ मधु꣢꣯ ॥७५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु꣣व꣢म् । चि꣣त्र꣢म् । द꣣दथुः । भो꣡ज꣢꣯नम् । न꣣रा । चो꣡दे꣢꣯थाम् । सू꣣नृ꣡ता꣢वते । सु꣣ । नृ꣡ता꣢꣯वते । अ꣡र्वा꣢क् । र꣡थ꣢꣯म् । स꣡म꣢꣯नसा । स । म꣣नसा । नि꣢ । य꣡च्छतम् । पि꣡ब꣢꣯तम् । सो꣣म्य꣢म् । म꣡धु꣢꣯ ॥७५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं चित्रं ददथुर्भोजनं नरा चोदेथाꣳ सूनृतावते । अर्वाग्रथꣳ समनसा नि यच्छतं पिबतꣳ सोम्यं मधु ॥७५४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । चित्रम् । ददथुः । भोजनम् । नरा । चोदेथाम् । सूनृतावते । सु । नृतावते । अर्वाक् । रथम् । समनसा । स । मनसा । नि । यच्छतम् । पिबतम् । सोम्यम् । मधु ॥७५४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 754
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे (नरा) नेतृत्व करनेवाले ब्राह्मण और क्षत्रियो ! (युवम्) तुम (चित्रम्) अद्भुत (भोजनम्) पालन को (ददथुः) देते हो। उस पालन को तुम (सूनृतावते) प्रिय-सत्य वाणीवाले मेरे लिए भी (चोदेथाम्) प्रेरित करो, प्रदान करो। (समनसा) अनुकूल मनवाले होते हुए तुम दोनों, अपने (रथम्) रथ को (अर्वाक्) हमारी ओर (नि यच्छतम्) मोड़ो, अर्थात् हमारी ओर आओ और आकर (सोम्यम्) सोमरस से युक्त (मधु) मधु को (पिबतम्) पिओ, अर्थात् हमारे द्वारा किये गये सत्कार को ग्रहण करो ॥२॥

    भावार्थ

    ब्राह्मण लोग ज्ञान-दान के द्वारा और क्षत्रिय लोग रक्षा-प्रदान द्वारा प्रजाजनों का उपकार करते हैं, अतः उनका यथोचित सत्कार और उनसे लाभग्रहण सबको करना चाहिए ॥२॥ इस खण्ड में अग्निहोत्र, दिव्य उषा, दिव्य सूर्य तथा ब्रह्म-क्षत्र का वर्णन होने से पूर्व खण्ड के साथ इस खण्ड की सङ्गति है ॥ द्वितीय अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (नरा) हे अश्विनौ नरौ—हे व्यापनशील प्रकाशस्वरूप और आनन्दरसरूप परमात्मन्! (युवम्) तुम (सूनृतावते) स्तुतिवाणी वाले उपासक के लिए (चित्रं भोजनम्) चायनीय—ग्राह्य अद्भुत सुख भोग को (ददथुः) देते हो (चोदेथाम्) और उसे अपनी ओर प्रेरित करते हो (समनसा) समान मन से—समान भाव से (रथम्-अर्वाक्-नियच्छतम्) रमणीय सुख भोग को इधर इस लोक में नियत करते हो, और (सोम्यं मधु पिबतम्) शान्त मधुर उपासनारस को पान करो—स्वीकार करो अथवा स्व मधुर दर्शनरस उपासक को पिलावे।

    भावार्थ

    स्तुति करनेवाले उपासक के लिये ज्योतिस्वरूप आनन्द-रसरूप परमात्मा अद्भुत-श्रेष्ठ भोग कराता है अपनी ओर प्रेरित करता है, समान-भाव से रमणीय सुख को इस लोक में देता है अपने मधुर दर्शनामृत को पिलाता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    'सौम्य- मधु' का पान

    पदार्थ

    वसिष्ठ प्राणापानों से कह रहे हैं कि (युवम्) = आप दोनों (चित्रं भोजनम्) = ज्ञान देनेवाले [चित्+र] अद्भुत प्रकाशमय पालन [भुज्] को (ददथुः) = देते हो । प्राणापान की साधना से बुद्धि तीव्र होती है जोकि सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषयों को भी समझने लगती है। यह ज्ञान मनुष्य की वासनाओं को नष्ट करता है और उसे आसुरवृत्तियों व व्यसनों का शिकार नहीं होने देता । एवं, ये प्राणापान (नरा)=[नरौ+नृ नये] मनुष्य को आगे ले-चलनेवाले होते हैं और [न+रम्] उसे आसक्ति से बचानेवाले होते हैं। इस साधना से यह मनुष्य ('सूनृतावान्') बनता है – इसकी वाणी [सु+ऊन्+ऋत] उत्तम, दुःखों को दूर करनेवाली व सत्य होती है, इस (सूनृतावते) = अहिंसात्मक प्रिय सत्य बोलनेवाले मनुष्य के लिए प्राणापान (चोदेथाम्)= प्रभु की प्रेरणा को प्राप्त कराते हैं । वस्तुतः प्राणापान की साधना ही सर्वोत्तम तप है, इस तप को करनेवाले को मन्त्रद्रष्टृत्व प्राप्त होता है— वेद इन्हें स्वयं उपस्थित होता है। ये प्राणापान (समनसा)=मनवाले हैं, अर्थात् प्राणायाम से चित्तवृत्ति-निरोध होकर ये मन भटकता नहीं है। (रथम्) = शरीररूप रथ को – इसमें जुते सब इन्द्रियरूप घोड़ों को ये प्राणापान (अर्वाग्) - अन्दर ही नियच्छतम्=काबू करते हैं। प्राणसाधना से मनुष्य बहिर्मुखी वृत्तिवाला न रहकर अन्तर्मुख वृत्ति हो जाता है। मनुष्य ‘शमी, दमी' बन जाता है । शमी, दमी मनुष्य के प्राणापान (सोम्यं मधु) = वीर्यरूप मधुर रस का (पिबतम्) = पान करते हैं ।

    उसका वीर्य शरीर के अन्दर ही व्याप्त व विनियुक्त हो जाता है । यह वीर्यवान् पुरुष 'वसिष्ठ'=सर्वोत्तम निवासवाला होता है ।

    एवं, प्राणायाम के द्वारा निम्न लाभों का होना स्पष्ट है – १. ज्ञानाग्नि की प्रचण्डता से वासनाविनाश के द्वारा व्यसनों से रक्षा और जीवन में उन्नति, २. अहिंसात्मक सत्यवाणी की रुचि होकर प्रभु की प्रेरणा का सुनाई पड़ना, ३. मनसहित इन्द्रियों का नियमन, ४. वीर्य-शक्ति का शरीर में ही संयम।

    भावार्थ

    प्राणायाम के द्वारा हम उल्लिखित लाभों को प्राप्त करने का प्रयत्न करें । प्राणायाम करनेवाले नर-नारी ही उत्तम ‘पति-पत्नी' बनते हैं। ये गृहस्थ, उषा और सूर्य के समान जीवन बिताते हैं ।
     

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( २ ) ( अश्विना ) = हे अश्वियो ! प्राण अपान नामक नेताओ ! या विद्वान स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( चित्रं ) = संग्रह करने योग्य, विविध प्रकार के ( भोजनं ) = भोग योग्य पदार्थ ( ददथुः )= देते हो। और ( सूनृतावते ) = सूनृता, नाम वेदवाणी को धारण करनेहारे के लिये धन ( चोदेथां ) = प्रदान करते हो । आप ( समनसा ) = समान मन वाले होकर ( अर्वाग् ) = नीचे की ओर या ( अर्वाग् ) = इन्द्रियों के प्रति जानेहारे ( रथं )= अपने वेग या वेगवान् आत्मा या मन और शरीर को ( नियच्छतं ) = नियन्त्रित करो, वश करो और आप दोनों ( सोम्यं मधु ) = सोमरसयुक्त मधुररस उत्तम शुद्धवायु, और आरोग्यता का ( पिबतम् ) = पान करो । प्राणायाम का अभ्यासी प्राण को अपान में और अपान को प्राण में आहुति दे और ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का पालन करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वसिष्ठ:। देवता - अश्विनौ । छन्द: - वृहती। स्वरः - मध्यम:।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (नरा) नरौ नेतारौ अश्विनौ ब्राह्मणक्षत्रियौ ! (युवम्) युवाम् (चित्रम्) अद्भुतम् (भोजनम्) पालनम् (ददथुः)प्रयच्छथः, तद् भोजनं पालनम् युवाम् (सूनृतावते) प्रियसत्यवाग्युक्ताय मह्यम् अपि। [सूनृता इति वाङ्नाम। निघं० १।११।] (चोदेथाम्) प्रेरयतम्, प्रयच्छतम्। (समनसा) समनसौ समानमनस्कौ सन्तौ युवाम्, स्वकीयम् (रथम्) वाहनम् (अर्वाक्) अस्मदभिमुखम् (नि यच्छतम्)नियमयतम्, कुरुतम्, अस्मान् प्रति आगच्छतम् इत्यर्थः, आगत्य च (सोम्यम्) सोममयम्। [मये च अ० ४।४।१३८ इति सोमशब्दात् मयडर्थे यः प्रत्ययः।] (मधु) क्षौद्रम् (पिबतम्) आस्वादयतम्, अस्माभिः कृतं सत्कारं गृह्णीतम् इत्यर्थः ॥२॥

    भावार्थः

    ब्राह्मणा ज्ञानप्रदानेन क्षत्रियाश्च रक्षणप्रदानेन प्रजाजनानुपकुरुतः, अतस्तेषां यथायोग्यं सत्कारस्तेभ्यो लाभग्रहणं च सर्वैः करणीयम् ॥२॥ अस्मिन् खण्डेऽग्निहोत्रस्य, दिव्याया उषसो, दिव्यस्य सूर्यस्य, ब्रह्मक्षत्रयोश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ७।७४।२।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O learned man and woman. Ye bestow wonderful nourishment; and give money to him who recites the Vedas. One-minded, both of Ye, drive your car down to us, and enjoy fine pure air and health !

    Translator Comment

    Car' means the soul or body. Learned men and women should practice Pranayama and observe Brahmcharya;^‘Sunrita’ means Vedic speech. They both should give right lead to the people.

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    Meaning

    O leading lights of humanity, you provide wonderful food for the body, mind and soul, provide inspiration and incentive for the man of truth and rectitude. With an equal mind with us all, bring up your chariot, add to the joy of the community and share the honey sweets of peace and pleasure. (Rg. 7-74-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (नरा) હે અશ્વિનૌ-નરૌ-હે વ્યાપનશીલ પ્રકાશ સ્વરૂપ અને આનંદ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (युवम्) તમે (सूनृतावते) સ્તુતિ વાણીવાળા ઉપાસકને માટે (चित्रं भोजनम्) ચાયનીય-ગ્રાહ્ય અદ્ભુત સુખ ભોગન (ददथुः) આપો છો (चोदेथाम्) અને તેને પોતાની તરફ પ્રેરિત કરો છો (समनसा) સમાન મનથી-સમાન ભાવથી (रथम् अर्वाक् नियच्छताम्)  રમણીય સુખ ભોગને અહીં આ લોકમાં નિયત કરો છો; અને (सोम्यं मधु पिबतम्) શાન્ત મધુર ઉપાસનારસનું પાન કરો-સ્વીકાર કરો અથવા તમારા મધુર દર્શનરસનું ઉપાસકોને પાન કરાવો. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સ્તુતિ કરનાર ઉપાસકોને માટે જ્યોતિ સ્વરૂપ, આનંદરસરૂપ પરમાત્મા અદ્ભુત-શ્રેષ્ઠ ભોગ કરાવે છે, પોતાની તરફ પ્રેરિત કરે છે, સમાનભાવથી રમણીય સુખને આ લોકમાં આપે છે, પોતાના મધુર દર્શનામૃતનું પાન કરાવે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ब्राह्मण लोक ज्ञान-दानाद्वारे व क्षत्रिय लोक रक्षण करून प्रजेवर उपकार करतात. त्यासाठी त्यांचा यथोचित सत्कार करून त्याच्याकडून लाभ घेतला पाहिजे ॥२॥

    टिप्पणी

    या खंडात अग्निहोत्र, दिव्य उषा, दिव्य सूर्य व ब्रह्म-क्षात्राचे वर्णन असल्यामुळे पूर्व खंडाबरोबर या खंडांची संगती आहे

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