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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 797
    ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    14

    इ꣢न्द्र꣣ इ꣢꣯द्धर्योः꣣ स꣢चा꣣ स꣡म्मि꣢श्ल꣣ आ꣡ व꣢चो꣣यु꣡जा꣢ । इ꣡न्द्रो꣢ व꣣ज्री꣡ हि꣢र꣣ण्य꣡यः꣢ ॥७९७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्रः꣢꣯ । इत् । ह꣡र्योः꣢꣯ । स꣡चा꣢꣯ । सं꣡मि꣢꣯श्लः । सम् । मि꣣श्लः । आ꣢ । व꣣चोयु꣡जा꣢ । व꣣चः । यु꣡जा꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । व꣡ज्री꣢ । हि꣣रण्य꣡यः꣢ ॥७९७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र इद्धर्योः सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा । इन्द्रो वज्री हिरण्ययः ॥७९७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । इत् । हर्योः । सचा । संमिश्लः । सम् । मिश्लः । आ । वचोयुजा । वचः । युजा । इन्द्रः । वज्री । हिरण्ययः ॥७९७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 797
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    द्वितीय ऋचा पूर्वार्चिक में ५९७ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ जीवात्मा का विषय कहते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्रः इत्) देह का अधिष्ठाता जीवात्मा ही (वचोयुजा) कहते ही जुड़ जानेवाले (हर्योः) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय रूप घोड़ों का (सचा) एक साथ (आ सम्मिश्लः) ज्ञान और कर्मों में जोड़नेवाला है। (इन्द्रः) वह जीवात्मा (वज्री) वाणी रूप वज्र का धारण करनेवाला और (हिरण्ययः) प्राणमय, ज्योतिर्मय, तथा कीर्तिमय है ॥२॥

    भावार्थ

    जिस जीवात्मा की प्रेरणा से ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ अपने-अपने व्यापारों में नियुक्त होती हैं, जो जीवात्मा वाणीरूप वज्र से कुतार्किकों के कुतर्कों का खण्डन करता है, जो प्राणों का अधिष्ठाता, तेजस्वी और यशस्वी है, उसे उद्बोधन देकर सब लोग अपने अभीष्टों को सिद्ध करें ॥२॥

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    टिप्पणी

    (देखो पदपाठ एवं अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ५९७)

    विशेष

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    पदार्थ

    ५९७-५९८ संख्या पर मन्त्रार्थ द्रष्टव्य है।
     

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    व्याख्या देखो अविकल सं० [५६७ ] पृ० ३०१।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    missing

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    द्वितीया ऋक् पूर्वार्चिके ५९७ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषय उच्यते।

    पदार्थः

    (इन्द्रः इत्) देहाधिष्ठाता जीवात्मैव (वचोयुजा) वचोयुजोः वचनसमकालमेव युज्यमानयोः (हर्योः)ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपयोः अश्वयोः (सचा) सह, युगपत् (आ सम्मिश्लः) आ सम्मिश्रः, ज्ञानकर्मसु नियोक्ता विद्यते। (इन्द्रः) स जीवात्मा (वज्री) वाग्वज्रधरः। [वाग्घि वज्रः। ऐ० ब्रा० ४।१।] (हिरण्ययः) प्राणमयो ज्योतिर्मयो यशोमयो वा विद्यते। [प्राणो वै हिरण्यम्। श० ७।५।२।८। ज्योतिर्वै हिरण्यम्। तां० ब्रा० ६।६।१०, यशो वै हिरण्यम्। ऐ० ब्रा० ७।१८] ॥२॥१

    भावार्थः

    यस्य जीवात्मनः प्रेरणया ज्ञानेन्द्रियाणि कर्मेन्द्रियाणि च स्वस्वव्यापारेषु नियुज्यन्ते, यो जीवात्मा वाग्वज्रेण कुतार्किकाणां कुतर्कान् खण्डयति, यः प्राणाधिष्ठाता तेजस्वी यशस्वी चास्ति तमुद्बोध्य सर्वे समीहितानि साध्नुवन्तु ॥२॥

    टिप्पणीः

    ३. ऋ० १।७।२, साम० ५९७, अथ० २०।३८।५, ४७।५, ७०।८। १. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं वायुसूर्यपक्षे व्याचष्टे।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The soul alone keeps together simultaneously knowledge and action, which unite on its behest. It possesses destructive power, brilliance, affection and beauty.

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    Meaning

    Indra, the omnipresent Spirit, Indra, the universal energy of vayu or maruts, and Indra, the solar energy, the bond of unity and sustenance in things, co-existent synthesis of equal and opposite complementarities of positive and negative, activiser of speech, lord of the thunderbolt and the golden light of the day and the year. (Rg. 1-7-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (वचोयुजाहर्योः) પોતાનાં વચન-આદેશ અથવા પ્રાર્થનાથી યુક્ત થનાર દુઃખહર્તા સુખદાતા બન્ને જ્યોતિ અને સ્નેહ અથવા કૃપા અને પ્રસાદ (सचा आमिश्लः) સમગ્રરૂપથી ઉપાસકોમાં મિશ્રણ કરાવનાર છે તથા (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (वज्री हिरण्ययः) ઓજસ્વી અને સુશોભન છે. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્માના આદેશથી અથવા ઉપાસકની પ્રાર્થનાથી યુક્ત થનાર, જ્યોતિ અને સ્નેહ અથવા કૃપા અને પ્રસાદને સાથે સમ્યક્ મિશ્રણ કરનાર ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા છે; તથા તે પોતાનાં રૂપમાં ઓજસ્વી અને સુશોભન છે, તેની સ્તુતિ કરવી જોઈએ. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या जीवात्म्याच्या प्रेरणेने ज्ञानन्द्रिये व कर्मेन्द्रिये आपापल्या कर्मात नियुक्त होतात, जो जीवात्मा वाणीरूपी वज्राने कुतार्किकांच्या कुतर्काचे खंडन करतो, जो प्राणांचा अधिष्ठाता, तेजस्वी व यशस्वी आहे, त्याला उद्बोधन करून सर्व लोकांनी आपले अभीष्ट सिद्ध करावे. ॥२॥

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