Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 822
    ऋषिः - सिकता निवावरी देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    13

    म꣣नीषि꣡भिः꣢ पवते पू꣣र्व्यः꣢ क꣣वि꣡र्नृभि꣢꣯र्य꣣तः꣢꣫ परि꣣ को꣡शा꣢ꣳ असिष्यदत् । त्रि꣣त꣢स्य꣣ ना꣡म꣢ ज꣣न꣢य꣣न्म꣢धु꣣ क्ष꣢र꣣न्नि꣡न्द्र꣢स्य वा꣣यु꣢ꣳ स꣣ख्या꣡य꣢ व꣣र्ध꣡य꣢न् ॥८२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म꣢नी꣡षिभिः꣣ । प꣣वते । पूर्व्यः꣡ । क꣣विः꣢ । नृ꣡भिः꣢꣯ । य꣣तः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । को꣡शा꣢꣯न् । अ꣣सिष्यदत् । त्रित꣡स्य꣢ । ना꣡म꣢꣯ । ज꣣न꣡य꣢न् । म꣡धु꣢꣯ । क्ष꣡र꣢꣯न् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । वा꣡यु꣢म् । स꣣ख्या꣡य꣢ । स꣣ । ख्या꣡य꣢꣯ । व꣣र्द्ध꣡य꣢न् ॥८२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनीषिभिः पवते पूर्व्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशाꣳ असिष्यदत् । त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुꣳ सख्याय वर्धयन् ॥८२२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मनीषिभिः । पवते । पूर्व्यः । कविः । नृभिः । यतः । परि । कोशान् । असिष्यदत् । त्रितस्य । नाम । जनयन् । मधु । क्षरन् । इन्द्रस्य । वायुम् । सख्याय । स । ख्याय । वर्द्धयन् ॥८२२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 822
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मारूप सोम का वर्णन है।

    पदार्थ

    (पूर्व्यः) श्रेष्ठ, (कविः) वेदकाव्य का कवि, क्रान्तद्रष्टा, मेधावी वह सोम परमेश्वर (पवते) हृदयों को पवित्र करता है। (मनीषिभिः) बुद्धिमान् (नृभिः) उपासक जनों से (यतः) ग्रहण किया हुआ, ध्यान किया गया वह (कोशान्) शरीरस्थ पञ्च कोशों में (परि असिष्यदत्) रस को प्रवाहित करता है। वह (त्रितस्य) ज्ञान, कर्म, उपासना तीनों से युक्त उपासक के (नाम) यश को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ, (मधु) आनन्द को (क्षरन्) झराता हुआ (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (सख्याय) सहयोग के लिए, उसके (वायुम्) प्राण को (वर्धयन्) बढ़ाता रहता है ॥२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर उपासक को अपना सखा बनाकर उसके लिए दिव्य आनन्द-रूप मधु टपकाता रहता है ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (मनीषिभिः-नृभिः-यतः) मननशील मुमुक्षुओं के द्वारा “नरो ह वै देवविशः” [जै॰ १.८९] योगाभ्यास से साधा ध्याया हुआ (पूर्व्यः कविः) शाश्वतिक सर्वज्ञ शान्तस्वरूप परमात्मा (कोशान् परि-असिष्यदत्) हृदय-अवकाशों को पूरित करता है (त्रितस्य-इन्द्रस्य मधु नाम जनयन्) “त्रितः-त्रिस्थान इन्द्रः” [निरु॰ ९.२५] स्थूल सूक्ष्म कारण शरीर में वर्तमान जीवात्मा या स्तुति प्रार्थना उपासना में प्रवृत्त उपासक आत्मा के नमाने वाले मधुर आनन्दरस को उत्पन्न करता हुआ झिराता हुआ (सख्याय वायुं वर्धयन् पवते) अपने साथ मित्रता के लिए तथा आयु—परम आयु को बढ़ाने के हेतु “आयुर्वा एष यद् वायुः” [ऐ॰ आ॰ २.४.३] प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    मननशील मुमुक्षु द्वारा ध्याया हुआ शाश्वतिक सर्वज्ञ शान्त स्वरूप परमात्मा उनके हृदयों में समा जाता है, बस जाता है। तीन स्थूल सूक्ष्म कारण शरीरों में रहने वाले या स्तुति प्रार्थना उपासना में प्रवृत्त उपासक आत्मा के नमाने वाले मधुररस को प्रकट करता हुआ तथा चुआता हुआ अपने साथ मित्रता कराने के लिए एवं परम आयु मोक्ष वाले को बढ़ाने के हेतु प्राप्त होता है॥२॥

    विशेष

    <br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इन्द्र इत् चरतः सखा

    पदार्थ

    ‘सिकता' वीर्य का पुत्र 'निवावरी' निश्चय से प्रभु का स्तवन करनेवाला प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि १. (मनीषिभिः) = मन का शासन करनेवाले ज्ञानी पुरुषों के साथ (पवते) = गति करता है, अर्थात् इसका उठना-बैठना ज्ञानियों में ही होता है - यह उन्हीं के साथ उठने-बैठने के कारण पवित्र जीवनवाला होता है । २. (पूर्व्यः) = इनके सम्पर्क से यह अपना पूरण तो करता ही है और इसलिए मनुष्यों में प्रथम स्थान में स्थित होनेवाला होता है ३. (कवि:) = ज्ञानी बनता है । ४. नृभिः यतः = मनुष्यों के हित के उद्देश्य से यत्नवाला होता है अथवा आगे ले-चलनेवाले माता-पिता व आचार्यों से संयत जीवनवाला बनाया जाता है।५. कोशान् परि असिष्यदत् - यह कोशों के प्रति प्रवाहित होता है, अर्थात् बाह्य वस्तुओं का ध्यान करने की बजाए यह आन्तरिक जीवन का ध्यान करता है । धन, मकान आदि की बजाए यह अन्नमयादि कोशों के ठीक रखने का अधिक ध्यान करता है । ६. यह त्रितस्य - काम, क्रोध, लोभ तीनों को तैर जानेवाले के नाम-यश को जनयन्-उत्पन्न करता है। वासनाओं को तैर जाने से इसका नाम ही त्रित [तीर्णतम] हो जाता है । त्रित का अर्थ शरीर, मन व बुद्धि 'तीनों का विकास करनेवाला भी है ' ' त्रीन् तनोति' जब कोशों की ओर ध्यान देगा, तभी ऐसा कर पाएगा। ७. मधु क्षरन्-यह माधुर्य को टपकानेवाला होता है। यह व्यवहार में कभी कड़वी वाणी नहीं बोलता ।

    ८. इन्द्रस्य सख्याय=उस परमैश्वर्यवाले प्रभु की मित्रता के लिए यह वायुम्-अपनी क्रियाशीलता को वर्धयन्-बढ़ाता चलता है। क्रियाशील के ही तो प्रभु मित्र हैं 'इन्द्र इत् चरतः सखा' । आलसी पुरुष के देव मित्र नहीं हुआ करते । 'न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः ।' [१+८] जो विद्वानों के सम्पर्क में रहने का प्रयत्न करेगा वही प्रभु की मित्रता को भी प्राप्त कर सकेगा।

    [२+७] जो पूर्व्य [ब्रह्मा] बनता है वह मधुर शब्दों का ही प्रयोग करता है । [३+६] जो कवि-क्रान्तदर्शी है वह सचमुच काम, क्रोध, लोभ का शिकार नहीं होता । [४+५] जो माता, पिता, आचार्य से संयमी बनाया जाता है, वही अन्तर्मुखी वृत्तिवाला होता है।

    भावार्थ

    प्रभु की मित्रता की प्राप्ति के लिए हम क्रियाशील बनें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    (पूर्व्यः) सबसे आदि में वर्तमान, अज, (कविः) ज्ञानी मेधावी, आत्मा (मनीषिभिः) मन को सन्मार्ग में प्रोति करने वाले विद्वान् (नृभिः) पुरुषों द्वारा (यतः) संयत, नियमित किया गया (पवते) प्रकट होता है और (कोशान्) पाचों कोशों को (परि असिष्यदत्) व्याप लेता है उनपर अपना अधिकार कर लेता है। (त्रितस्य) तीनों स्थानों पर अर्थात् कण्ठ के ऊपर शिर, मध्यभाग और मूल इन तीनों स्थानों पर व्याप्त (इन्द्रस्य) आत्मा के (नाम) स्वरूप को (जनयन्) प्रकट करता हुआ (मधु) ज्ञानस्वरूप अमृत रस को (क्षरन्) चुआता हुआ (वायुम्) प्राणबल को (सख्या) अनुकुल रूप में (वर्धयन्) बढ़ाता है, पुष्ट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    missing

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मसोमो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (पूर्व्यः) श्रेष्ठः (कविः) वेदकाव्यस्य कविः, क्रान्तद्रष्टा, मेधावी स सोमः परमेश्वरः (पवते) हृदयानि पुनाति। (मनीषिभिः) मेधाविभिः (नृभिः) उपासकजनैः (यतः) परिगृहीतः, ध्यातः सः। [यमु उपरमे, निष्ठान्तं रूपम्।] (कोशान्) देहस्थेषु पञ्चकोशेषु (परि असिष्यदत्) परिस्रावयति रसम्, किञ्च, सः (त्रितस्य) त्रिभिर्ज्ञानकर्मोपासनैर्युक्तस्य उपासकस्य (नाम) यशः (जनयन्) उत्पादयन्, (मधु) आनन्दम् (क्षरन्) स्रावयन् (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (सख्याय) सखित्वाय, तस्य (वायुम्) प्राणम् (वर्धयन्) वृद्धिं गमयन्, भवतीति शेषः ॥२॥

    भावार्थः

    परमेश्वर उपासकं स्वसखायं कृत्वा तस्मै दिव्यमानन्दरूपं मधु स्रावयति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८६।˜२० ‘परि॒ कोशाँ अचिक्रदत्’ ‘मधु॑ क्षर॒दिन्द्र॑स्य वा॒योः स॒ख्याय॒ कर्त॑वे’ इति पाठः।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The eternal soul, purified and controlled by the learned persons, establishes its sway over the five Koshas. In all its three stages, displaying its nature, and shedding forth the nectar of knowledge, the soul enhances in a friendly way the strength of breaths.

    Translator Comment

    $ Kosha is in Vedic Philosophy a term for the five vestures (sheath or cases) which successively make the body, enshrining the soul. They are Anna (अन्नमय) , Prana (प्राणमय) Manas (मनोमय), Janan (ज्ञानमय), Anand (आनन्दमय).^Three stages refer to the जाग्रत (walking) स्वप्न (Sleeping) सुषुप्ति (Profound sleep) states of the soul. Ludwig interprets Trita as the Celestial preparer of the heavenly Soma for Indra. This is inadmissible as the Vedas are free from historical references.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Eternal, all-watchful, poetic creator celebrated by sages and meditated by pious people pervades, energises and holds to the centre all forms of existence from the cell and particle up to the expansive universe, creating from Prakrti and its three modes of sattva, rajas and tamas all forms and names of things, letting streams of honey sweets flow, and releasing the joint, cooperative and friendly activity of Indra and Vayu energy and its flow at the cosmic level, and the soul and mind at the human level. (Rg. 9-86-20)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (मनीषिभिः नृभिः यतः) મનનશીલ મુમુક્ષુઓના દ્વારા સિદ્ધ કરેલ-ધ્યાન કરેલ (पूर्व्यः कविः) શાશ્વત સર્વજ્ઞ શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (कोशान् परि असिष्यदत्) હૃદય અવકાશોને પૂરિત કરે છે (त्रिकस्य इन्द्रस्य मधु नाम जनयन्) સ્થૂળ અને સૂક્ષ્મ શરીરમાં રહેલ જીવાત્મા અર્થાત્ સ્તુતિ, પ્રાર્થના, ઉપાસનામાં પ્રવૃત્ત ઉપાસકને નમાવનાર મધુર આનંદરસને ઉત્પન્ન કરતાં ઝરાવતાં (सख्याय वायुं वर्धयन् पवते) પોતાની સાથે મિત્રતાને માટે તથા આયુ-પરમ આયુની વૃદ્ધિને માટે પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : મનનશીલ મુમુક્ષુઓએ ધ્યાન કરેલ, શાશ્વત, સર્વજ્ઞ, શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા તેઓના હૃદયોમાં સમાવેશ કરે છે, વસી જાય છે. ત્રણ-સ્થૂળ, સૂક્ષ્મ, કારણ શરીરોમાં રહેનાર અથવા સ્તુતિ, પ્રાર્થના, ઉપાસનામાં પ્રવૃત્ત ઉપાસક આત્માને ઝુકાવનાર મધુરરસને પ્રકટ કરતાં તથા ટપકાવતાં પોતાની સાથે મિત્રતા કરાવનારને માટે અને પરમ આયુ-મોક્ષવાળાની વૃદ્ધિ માટે પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर उपासकाला आपला सखा बनवून त्याच्यासाठी दिव्य आनंदरूपी मध थेंबाथेंबाने टपकावितो. ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top