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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 84
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
14
त्व꣡ꣳहि क्षैत꣢꣯व꣣द्य꣡शोऽग्ने꣢꣯ मि꣣त्रो꣡ न पत्य꣢꣯से । त्वं꣡ वि꣢चर्षणे꣣ श्र꣢वो꣣ व꣡सो꣢ पु꣣ष्टिं꣡ न पु꣢꣯ष्यसि ॥८४॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । हि । क्षै꣡त꣢꣯वत् । य꣡शः꣢꣯ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । न । प꣡त्य꣢꣯से । त्वम् । वि꣣चर्षणे । वि । चर्षणे । श्र꣡वः꣢꣯ । व꣡सो꣢꣯ । पु꣣ष्टि꣢म् । न । पु꣣ष्यसि ॥८४॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वꣳहि क्षैतवद्यशोऽग्ने मित्रो न पत्यसे । त्वं विचर्षणे श्रवो वसो पुष्टिं न पुष्यसि ॥८४॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । हि । क्षैतवत् । यशः । अग्ने । मित्रः । मि । त्रः । न । पत्यसे । त्वम् । विचर्षणे । वि । चर्षणे । श्रवः । वसो । पुष्टिम् । न । पुष्यसि ॥८४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 84
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा के गुणों का वर्णन किया गया है।
पदार्थ
हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम्) आप (हि) निश्चय ही (क्षैतवत्) राजा के समान, और (मित्रः न) सूर्य के समान (यशः) यश के (पत्यसे) स्वामी हो। हे (विचर्षणे) सर्वद्रष्टा, (वसो) निवासक सर्वव्यापी परब्रह्म ! (त्वम्) आप (पुष्टिं न) जैसे शारीरिक और आत्मिक पुष्टि को देते हो, वैसे ही हमें (श्रवः) कीर्ति को भी (पुष्यसि) देते हो ॥४॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ‘क्षैतवत्, मित्रः न, पुष्टिं न’ ये तीन उपमाएँ हैं ॥४॥
भावार्थ
जैसे राजा राष्ट्र का संचालक होने से और सूर्य पृथिवी आदि ग्रहोपग्रहों का संचालक होने से यश से प्रख्यात होता है, वैसे ही परमेश्वर जड़-चेतन ब्रह्माण्ड का संचालक होने से जगद्व्यापिनी परम कीर्ति को प्राप्त किये हुए है और वह प्रार्थी मनुष्यों को भी कीर्ति प्रदान करता है ॥४॥
पदार्थ
(अग्ने) हे प्रकाशमान परमात्मन्! (त्वं हि) तू ही (क्षैतवत्-यशः) क्षिति पृथिवी का—पार्थिव देह, “क्षितिः पृथिवीनाम” [निघं॰ १.१] पार्थिव देहवाले उदक—जीवनरस पर “यशः-उदकनाम” [निघं॰ १.१२] (पत्यसे) स्वामित्व करता है “पत्यते-ऐश्वर्यकर्मा” [निघं॰ २.२१] (मित्रः-न) प्राण के समान “प्राणो वै मित्रः” [श॰ ६.५.१.५] प्राण जैसे शरीरस्थ जीवनरस पर स्वामित्व करता है (विचर्षणे वसो) हे सर्वद्रष्टा वसाने वाले परमात्मन् (त्वम्) तू (श्रवः पुष्टिं न पुष्यसि) मेरे आत्मयश को भी “श्रव इच्छमानः प्रशंसामिच्छमानः” [निरु॰ ११.९] पुष्टि के समान—जीवनरस की पुष्टि के समान पुष्ट करता है—उन्नत करता है।
भावार्थ
हे परमात्मन्! तू अपनी महती कृपा से मुझ उपासक के जीवनरस को प्राण के समान उसे प्रवृद्ध करने वाला है और मेरे आत्मयश को भी पुष्ट-प्रवृद्ध करके अपने आश्रय में वसाने वाला है, मैं किस भावना से तेरी शरण में आने को उत्सुक हूँ यह तू जानता है। अतः मुझे अपनी शरण दे॥४॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के अर्चन ज्ञान बल को धारण करने वाला उपासक)॥<br>
विषय
प्राण, ज्ञान व पोषण
पदार्थ
हे (अग्ने) हमारी उन्नति के साधनभूत प्रभो ! (त्वम्) = आप (हि) = निश्चय से (क्षैतवत्) = निवास और गतिवाले [क्षि= निवासगत्योः, मत् = वाला] (यश:) = प्राणों के (पत्यसे)= स्वामी हैं (न)= जैसेकि (मित्र:)=सूर्य। जिस प्रकार सूर्य प्राणशक्ति का स्रोत है, उसी प्रकार आप उस सम्पूर्ण प्राणशक्ति के प्रथम स्रोत हैं जो हमारे शरीर में निवास और गति का साधन होती है। हमारे हृदयों में प्रभु का निवास होने पर सूर्य की भाँति हमें जीवन प्राप्त होता है और शक्तिसम्पन्न होकर हम क्रियाशील बने रहते हैं। हे विचर्षणे (सर्वद्रष्टा,) सर्वज्ञ प्रभो! (त्वम्) = आप हममें (श्रवः) = ज्ञान का (पुष्यसि) ृ पोषण करते हैं। प्रभु का हमारे हृदयों में निवास होगा तभी हमें प्रातिभिक [Intuitive] ज्ञान प्राप्त होगा। प्रभु को हृदय में बिठाने का तीसरा लाभ यह होगा कि वसो-हे वसानेवाले प्रभो! आप हमें (पुष्टिं न) = [न=च के अर्थ में है] पोषण भी (पुष्यसि) ृ प्राप्त कराते हो। प्रभु का हृदय में निवास होने पर हमें पोषण व दृढ़ता प्राप्त होती है जो हमारे जीवन के विकास का मूल बनती है, जो हमें विघ्नों से, असफलताओं से व्याकुल नहीं होने देती। इस प्रकार हृदय में प्रभु का निवास होने पर हम प्राणशक्ति व दृढ़ता प्राप्त करके इस मन्त्र के ऋषि ‘भरद्वाज' होते हैं तथा ज्ञान - सम्पन्न बनकर 'बार्हस्पत्य' होते हैं।
भावार्थ
हृदय में प्रभु का निवास होगा तो हम प्राण, ज्ञान व पोषण को प्राप्त करेंगे।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे अग्ने ! ( हि ) = जिस कारण से ( त्वं ) = तू ( क्षैतवद् ) = सबको निवास देने वाले ( यशः ) = अन्न, बल को ( मित्रः न ) = सूर्य के समान ( पत्यसे ) = नाना प्रकार से प्राप्त करता या उत्पन्न करता है । हे ( विचर्षणे ) = विशेषरूप से सब के द्रष्टा ! ( वसो ) = हे सबको निवास देने वाले अग्ने ! तू ( श्रवः ) = अन्न और ज्ञान को ( पुष्टिम् न ) = पोषण सामर्थ्य के समान ही ( पुष्यसि ) = स्वयं बढ़ाता और पुष्ट करता है, उनमें बल उत्पन्न करता है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाज:।
छन्दः - अनुष्टुभ् ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मगुणान् वर्णयन्नाह।
पदार्थः
हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वरः (हि) निश्चयेन (क्षैतवत्२) राजा इव। क्षितेः ईश्वरः क्षैतः राजा, तेन तुल्यम्। क्षितिशब्दात् ईश्वरार्थे अण्, ततः क्षैतशब्दात् तेन तुल्यं क्रिया चेद् वतिः।’ अ० ५।१।११५ इति तुल्यार्थे वतिः प्रत्ययः। (मित्रः न) सूर्यः इव च (यशः) कीर्तिम् (पत्यसे३) पतित्वेन अधितिष्ठसि। पत्यते ऐश्वर्यकर्मा। निघं० २।२१। हे (विचर्षणे) सर्वद्रष्टः ! विचर्षणिरिति पश्यतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३।११। हे (वसो) निवासक, सर्वव्यापिन् परब्रह्म ! वासयतीति वसुः, वस निवासे। यद्वा वस्ते आच्छादयति स्वव्याप्त्या सर्वमिति वसुः, वस आच्छादने। (त्वम् पुष्टिं न) यथा शारीरिकीमाध्यात्मिकीं च पुष्टिं प्रयच्छसि तथा अस्मभ्यम् (श्रवः) कीर्तिमपि। श्रवः श्रवणीयं यशः। निरु० ११।९। (पुष्यसि) पुष्णासि प्रयच्छसीत्यर्थः ॥४॥४ अत्रोपमालङ्कारः। क्षैतवत्, मित्रः न, पुष्टिं न इति तिस्र उपमाः ॥४॥
भावार्थः
यथा राजा राष्ट्रसञ्चालकत्वेन, सूर्यश्च पृथिव्यादिग्रहोपग्रहाणां सञ्चालकत्वेन यशसा प्रथितोऽस्ति, तथैव परमेश्वरो जडचेतनब्रह्माण्डसञ्चालकत्वेन जगद्व्यापिनीं परां कीर्तिं भजते, प्रार्थिनो मनुष्याँश्चापि कीर्तिभाजः करोति ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।२।१। २. क्षैतवत्। क्षितिः पृथिवी, तस्यां भवं क्षैतम्। अथवा क्षि निवासगत्योरित्येतस्येदं रूपम्। क्षितिर्निवासः, तस्य क्षैतम्। किं पुनस्तत् ? गृहम्। तद् यस्यास्ति स क्षैतवान्। किं पुनस्तत् ? उच्यते—यशः कीर्तिः। गृहं च कीर्तिं चेत्यर्थः—इति वि०। क्षितिरेव क्षैतं निवासः, तद्युक्तम् यशोऽन्नम्—इति भ०। क्षितिः क्षयोऽपचयः, तत्सम्बन्धि क्षैतं शुष्ककाष्ठम्, तद्युक्तं यशः अन्नं हविर्लक्षणम्—इति सा०। ३. पत्यसे। पत्यतिर्यद्यप्यन्यत्र ऐश्वर्यकर्मा तथापीह दानार्थो द्रष्टव्यः, ददासि—इति वि०। पत्यतिरैश्वर्यकर्मा। ईशिषे—इति भ०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं विद्वत्पक्षे व्याख्यातः।
इंग्लिश (3)
Meaning
O God, Thou possessest, like the Sun, the renown of supremacy. O All-seeing, the Giver of habitation to all. Thou nourishes! us by granting us the support of Vedic knowledge.
Meaning
Agni, leading light of life, like an inmate of our earthly home, like a friend for sure you protect, promote and sustain our honour and excellence. O watchful observer of all, our haven and home, you preserve and advance our food and energy, honour and fame, like our bodys vitality. (Rg. 6-2-1)
Translation
O adorable Lord, your princely glory sustains us like the sun. O Lord of treasures, beholder of all, you cherish us with food and nourishment.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) હે પ્રકાશમાન પરમાત્મન્ ! (त्वं हि) તું (क्षैतवत् यशः) ક્ષિતિ = પૃથિવીનો પાર્થિવ દેહ , પાર્થિવ દેહવાળા ઉદક = જીવનરસ પર (पत्यसे) સ્વામીત્વ કરે છે (मित्रः न) પ્રાણની સમાન-પ્રાણ જેમ શરીરના જીવનરસ પર સ્વામીત્વ કરે છે (विचर्षणे वसो) હે સર્વદ્રષ્ટા વસાવનાર પરમાત્મન્ ! (त्वम्) તું (श्रवः पुष्टिं न पुष्यसि) મારા આત્મયશને પણ પુષ્ટિની સમાન - જીવનરસની પુષ્ટિની સમાન પુષ્ટ કરે છે - ઉન્નત કરે છે.
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! તું પોતાની મહાન કૃપાથી મારા-ઉપાસકના જીવનરસને પ્રાણની સમાન તેને પ્રવૃદ્ધ કરનાર છે અને મારા આત્મયશને પણ પુષ્ટ-પ્રવૃદ્ધ કરીને પોતાના આશ્રયમાં વસાવનાર છે , હું કેવી ભાવનાથી તારા શરણમાં આવવા ઉત્સુક છું એ તું જાણે છે. તેથી તું મને તારું શરણ પ્રદાન કર. (૪)
उर्दू (1)
Mazmoon
پانا اُس کو سب چاہتے ہیں
Lafzi Maana
(اگنے) ہے پرکاش سورُوپ پربھُو! (تومّ ہی کھیت وت یشہ) آپ ہی بھُومی پر نواس کرنے والی سب پرجاؤں کے یش کو (پیتسے) پراپت کر رہے ہیں، یعنی ساری دھرتی کے لوگ آپ کا ہی کیرتی گان کرتے رہتے ہیں۔ (نا) جیسے مِتر اپنے مِتر کے یش کو حاصل کرتا رہتا ہے، ارتھات جیسے دو دوست ایک دوسرے کے یش کو بڑھاتے رہتے ہیں۔ (وِچرشنے) ہے وچِتر جگت کے درِشٹا عجیب و غریب دُنیا کے جاننے والے مالک (وسو) حاضر و ناظر سب کو بسانے والے دُنیا کے باسی پرمیشور! (تومّ شردہ پش یسی نا پُشٹم) آپ اپنے یش، عزّت، توقیر و نیگ نامی کو پُشٹ کرتے ہوئے بڑھاتے رہتے ہو۔
Tashree
چاروں اور اُس کی شہرت یش وگان جس کا گاتے،
سب کو بسا رہا، بستا سب میں وہ پانا اُس کو سب چاہتے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा राजा राष्ट्राचा संचालक असल्यामुळे व सूर्य पृथ्वी इत्यादी ग्रहोपग्रहांचा संचालक असल्यामुळे प्रख्यात आहे, तसाच परमेश्वर जड चेतन ब्रह्मांडाचा संचालक असल्यामुळे जगद्व्यापिनी परम कीर्तीने युक्त आहे. तो प्रार्थना करणाऱ्या माणसांना ही कीर्ती प्रदान करतो. ॥४॥
विषय
पुढील मंत्रात परमेश्वराच्या गुणांचे वर्णन केले आहे. -
शब्दार्थ
हे (अग्ने) परमात्मन (त्वम्) आपण (हि) निश्चयाने (क्षैतवत्) एखाद्या राजासारखे आणि (मित्र: न) सूर्याप्रमाणे (यश:) यशाचे, सामर्थ्याचे (पत्यसे) स्वामी आहात. हे (विचर्षणे) सर्वद्रष्टा, (वसो) निवासक सर्वव्यापी परब्रह्म, (त्वम्) आपण ज्याप्रमाणे आम्हा उपासकांना (पुष्टिं न) पोषण व शक्ती देता, तसेच आम्हास शारीरिक व आत्मिक पोषणही देता. तसेच आमच्या (श्रव:) कीर्ती (पुष्यसि) मध्ये वृद्धी करता. ।।४।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे एखादा राजा राष्ट्राचा संचालक असल्यामुळे कीर्तीमान असतो वा आहे. तद्वत परमेश्वर या जड चेतन ब्रह्मांडाचा संचालक असल्यामुळे जगद्व्यापिनी परम कीर्ती प्राप्त करून सर्वत्र व्याप्त आहे आणि तोच प्रार्थी मनुष्याला कीर्ती प्रदान करतो. ।।४।।
विशेष
या मंत्रात उपमा अलंकार आहेत. येथे क्षैतवते, मित्र:न आणि पुष्टिं न अशा तीन उपमा आहेत. ।।४।।
तमिल (1)
Word Meaning
அக்னியே![1] மித்ரனைப் போல் நீ நிச்சயமாக மன்னனின் கீர்த்தியை அடைகிறாய், (அடைந்துள்ளாய்); எங்கும் காண்பவனே, வசிப்பவனே, போஷிக்கும் பொருளைப் போல மகிமையைப் பெருக்குகிறாய்.
FootNotes
[1] மித்ரனைப் போல் - பிரிய நண்பனைப் போல்
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