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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 893
    ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    4

    सु꣣वित꣡स्य꣢ वनाम꣣हे꣢ऽति꣣ से꣡तुं꣢ दुरा꣣꣬य्य꣢꣯म् । सा꣣ह्या꣢म꣣ द꣡स्यु꣢मव्र꣣तम् ॥८९३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु꣣वित꣡स्य꣢ । व꣣नामहे । अ꣡ति꣢꣯ । से꣡तु꣢꣯म् । दु꣣राय्य꣢म् । दुः꣣ । आय्य꣢म् । सा꣣ह्या꣡म꣢ । द꣡स्यु꣢꣯म् । अ꣣व्रत꣢म् । अ꣣ । व्रत꣢म् ॥८९३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुवितस्य वनामहेऽति सेतुं दुराय्यम् । साह्याम दस्युमव्रतम् ॥८९३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुवितस्य । वनामहे । अति । सेतुम् । दुराय्यम् । दुः । आय्यम् । साह्याम । दस्युम् । अव्रतम् । अ । व्रतम् ॥८९३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 893
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा और आचार्य का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    हम (सेतुम्) रुकावट को (अति) अतिक्रान्त अर्थात् पार करके (सुवितस्य) सुप्राप्त आनन्द—रसागार परमात्मा के एवं विद्यारसागार आचार्य के (दुराय्यम्) दुष्प्राप्य आनन्दरस वा विद्यारस को (वनामहे) सेवन करते हैं। उससे हम (अव्रतम्) व्रतविरोधी वा सत्कर्मविरोधी (दस्युम्) उपक्षयकारी काम, क्रोध, आदि छहों रिपुओं को (साह्याम) पराजित कर देवें ॥२॥

    भावार्थ

    गुरुओं के सत्कार से और परमात्मा की उपासना से विद्या और आनन्द को प्राप्त करके, बाह्य तथा आन्तरिक शत्रुओं को पराजित करके सत्कर्मों का आचरण करना चाहिए ॥२॥

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    पदार्थ

    (सुवितस्य ‘सु-इत’) सम्यक् सुलभ प्राप्त*22 शान्त परमात्मा के (दुराय्यम्-अतिसेतुं वनामहे) कठिनाई से प्राप्त होने योग्य बन्धनरहित करनेवाले आनन्दरूप को सेवन करें अतः (अव्रतं दस्युं साह्याम) व्रतहीन करनेवाले—शिवसङ्कल्प से गिरानेवाले, आत्मबल के क्षीण करनेवाले, अज्ञान वासना पाप को तिरस्कृत करें—भगावें। शिवसङ्कल्प से गिरानेवाले, आत्मबल के क्षीण करनेवाले, अज्ञान वासना पाप को हटाने से परमात्मा का आनन्दमय स्वरूप बन्धनरहित करनेवाला प्राप्त होता है॥२॥

    टिप्पणी

    [*22. “सुविते सु इते” [निरु॰ ४.१०]।]

    विशेष

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    विषय

    एक दुर्लभ सेतुबन्ध

    पदार्थ

    (सुवितस्य) = [सु-इतस्य] अत्युत्तमता से सर्वत्र प्राप्त उस प्रभु की (दुराव्यम्) = बड़ी कठिनता से प्राप्त करने योग्य- अत्यन्त दुर्लभ (सेतुम्) = शरण की - सर्वदुःख निवर्तक आश्रय की (अतिवनामहे) = अतिशेयन याचना करते हैं, (अव्रतम्) = व्रतशून्य जीवनवाले अथवा अन्यव्रत, अर्थात् शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेवाले दस्युम्-नाशक ‘महापाप्मा' को साह्याम- हम पूर्णरूप से पराभूत कर सकें। प्रभु का स्मरण -सेतु उस बाँध के समान है जिसे कामरूप समुद्र के तूफान भी तोड़ नहीं सकते । इस सेतु से सुरक्षित 'अमहीयु' इन आसुरवृत्तियों के आक्रमण से आक्रान्त नहीं होता । प्रभुरूप सेतु उसकी रक्षा करता है। परिणामत: इसका जीवन ‘अव्रती' नहीं होता । व्रतमय जीवनवाला यह अधिकाधिक देवत्व को प्राप्त होता जाता है ।

    भावार्थ

    हम प्रभुरूप सेतु से सुरक्षित होकर व्रती व दिव्य जीवनवाले बनें ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (सुवितस्य) सब संसार को उत्तम रूप से शासन करने हारे, सबके प्रेरक परमात्मा की (मनामहे) हम शरण में जाते और ध्यान करते हैं जिससे (सेतुम् अति) मर्यादा और सामाजिक बन्धन व्यवस्था को तोड़ने हारे, (दुराय्यम्) कष्टसाध्य, बेकाबू, दुर्दान्त (अव्रतम्) कर्तव्य कर्मों से गिरे हुए निकम्मे (दस्युम्) प्रजा के विनाशक, डाकू आदि अपराधी या आत्मा के नाशक काम क्रोध आदि को (सासह्याम) हम विजय करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मविषयमाचार्यविषयं चाह।

    पदार्थः

    वयम् (सेतुम्) अवरोधम् (अति) अतिक्रम्य (सुवितस्य) सुप्राप्तस्य आनन्दरसागारस्य परमात्मनः विद्यासागारस्य आचार्यस्य वा (दुराय्यम्) दुष्प्राप्यम् आनन्दरसं विद्यारसं वा (वनामहे२) संभजामहे। तेन् वयम् (अव्रतम्) व्रतविरोधिनं सत्कर्मविरोधिनं वा (दस्युम्) उपक्षयकारिणं कामक्रोधादिषड्रिपुवर्गम् (साह्याम) अभिभवेम। [सहतेराशीर्लिङि रूपम्, उपधादीर्घः परमस्मैपदं च छान्दसम्] ॥२॥

    भावार्थः

    गुरूणां सत्कारेण, परमात्मोपासनेन च विद्यामानन्दं चाधिगम्य बाह्यानान्तरांश्च रिपून् पराजित्य सत्कर्माण्याचरणीयानि ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।४१।२, ‘दुरा॒व्य॑म्’, ‘सा॒ह्वांसो॒’ इति पाठः। २. वनामहे वनतिः स्तुतिकर्मा, स्तुतिं कुर्मः—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We seek the shelter of God, the Excellent Ruler of the universe, May we thereby, subdue the breaker of law and transgressor of social bond, the uncontrollable and undutiful plunderer.

    Translator Comment

    Plunderer may also mean lust or anger which degrades the soul.

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    Meaning

    We honour and adore that divine bridge to peace and prosperity, otherwise difficult to cross, which faces and overcomes selfish, uncreative and destructive elements of life addicted to lawlessness. (Rg. 9-41-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सुवितस्य ' सु इत ') સમ્યક્ સુલભ પ્રાપ્ત શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માનાં (दुराय्यम् अतिसेतुं वनामहे) મુશ્કેલીથી પ્રાપ્ત થવા યોગ્ય, બંધન રહિત કરનાર આનંદરૂપનું સેવન કરીએ, તેથી (अव्रतं दस्युं साह्याम) વ્રતહીન કરનારા-શિવ સંકલ્પ તોડનારા, આત્મબળને ક્ષીણ કરનારા અજ્ઞાન, વાસના, પાપનો તિરસ્કાર કરે-દૂર કરે. શિવ સંકલ્પને તોડનારા, આત્મબળને ક્ષીણ કરનારા અને અજ્ઞાન, વાસના તથા પાપને દૂર કરવાથી પરમાત્માનું આનંદમય સ્વરૂપ, બંધન રહિત કરનાર પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गुरूंच्या सत्काराने व परमेश्वराच्या उपासनेने विद्या व आनंद प्राप्त करून बाह्य व आंतरिक शत्रूंना पराजित करून सत्कर्माचे आचारण केले पाहिजे. ॥२॥

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