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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 900
    ऋषिः - बृहन्मतिराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    12

    अ꣣य꣢꣫ꣳ स यो दि꣣व꣡स्परि꣢꣯ रघु꣣या꣡मा प꣣वि꣢त्र꣣ आ꣢ । सि꣡न्धो꣢रू꣣र्मा꣡ व्यक्ष꣢꣯रत् ॥९००॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣य꣢म् । सः । यः । दि꣣वः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । र꣡घुया꣡मा꣢ । र꣣घु । या꣡मा꣢꣯ । पवि꣡त्रे꣢ । आ । सि꣡न्धोः꣢꣯ । ऊ꣣र्मा꣢ । व्य꣡क्ष꣢꣯रत् । वि꣣ । अ꣡क्ष꣢꣯रत् ॥९००॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयꣳ स यो दिवस्परि रघुयामा पवित्र आ । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरत् ॥९००॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । सः । यः । दिवः । परि । रघुयामा । रघु । यामा । पवित्रे । आ । सिन्धोः । ऊर्मा । व्यक्षरत् । वि । अक्षरत् ॥९००॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 900
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्द-रस का प्रवाह वर्णित है।

    पदार्थ

    (अयम्) यह हमसे अनुभव किया जाता हुआ (सः) वह प्रसिद्ध ब्रह्मानन्दरस है, (यः) जो (रघुयामा) शीघ्र गतिवाला होता हुआ (दिवः परि) आनन्दमय परमेश्वर के पास से (पवित्रे आ) पवित्र हृदय में आकर (सिन्धोः ऊर्मौ) आत्मारूप समुद्र की तरङ्ग में (व्यक्षरत्) क्षरित हो रहा है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे सोमौषधि का रस दशापवित्र नामक छन्नी से क्षरित होकर द्रोणकलश में गिरता है, अथवा जैसे चाँदनी का रस पवित्र अन्तरिक्ष से क्षरित होकर समुद्र में गिरता है, वैसे ही परमात्मा के पास से आया हुआ आनन्दरस पवित्र हृदय से क्षरित होकर अन्तरात्मा में आता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (अयं सः-यः) यह वह जो परमात्मा (रघुयामा) मीठी गति वाला*35 (दिवः परि) अमृतधाम—मोक्षधाम का अध्यक्ष है*36 (पवित्रे-आ) पवित्र आत्मा उपासक के अन्दर आक्षरित होता है—आ जाता है (सिन्धोः-ऊर्मा) स्यन्दमान महान् जलाशय की तरङ्ग*37 जैसे*38 विविध रूप से क्षरित हो जाती है॥३॥

    टिप्पणी

    [*34. “रसो वृष्टिः” [मै॰ २.५.७]।][*35. “रघ आस्वादने” [चुरादि॰ ]।] [*36. “पञ्चम्याः परावध्यर्थे” [अष्टा॰ ८.३.५१]।] [*37. आकारादेशश्छान्दसः।] [*38. लुप्तोपमावाचकालङ्कारः।]

    विशेष

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    विषय

    संयमी, स्फूर्तिमय, पवित्र

    पदार्थ

    (अयम्) = यह बृहन्मति (सः) = वह है (यः) = जो (सिन्धोः) = शरीर में स्यन्दमान [बहनेवाले] रेत:कणों की (ऊर्मा) =  ऊर्ध्वगति होने पर रघुयामा तीव्रगतिवाला, शीघ्रता से अपने कर्मों में व्याप्त होनेवाला (पवित्र:) = पवित्र जीवनवाला (दिवः) = अपने मस्तिष्करूप द्युलोक से (आपरिव्यक्षरत्) = सब प्रकार से, चारों ओर विविध ज्ञान की धाराओं को प्रवाहित करता है ।

    यहाँ बृहन्मति की तीन विशेषताओं का उल्लेख है – १. वह सोम वा रेतस् की ऊर्ध्वगतिवाला हो। शरीर में ही सोम का पान करे जिससे ‘आङ्गिरस'=शक्तिशाली बना रहे, २. रघुयामा तीव्रता से मार्ग का आक्रमण करनेवाला हो– इसके जीवन से स्फूर्ति टपके। इसके जीवन की स्फूर्ति लोगों के जीवन में भी स्फूर्ति का संचार करेगी, ३. (पवित्रः) = यह पवित्र जीवनवाला हो । स्वयं पवित्र होकर भिन्न-भिन्न उपायों से सर्वत्र ज्ञान का प्रचार करे ।

    भावार्थ

    संयमी, स्फूर्तिमय व पवित्र बनकर मैं विविध ज्ञानों का प्रकाश करूँ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (यः) जो सोम (दिवः परि) सूर्य में (रघुयामा) हलका सूक्ष्म रूप होकर विचरता है (सः) वह (पवित्रे) मलादि दोष रहित, (सिन्धोः) स्रवण करने हारे जल के (ऊर्मौ) संघात रूप में (वि अक्षरन्) नाना प्रकार से क्षरित होता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ब्रह्मानन्दरसप्रवाहं वर्णयति।

    पदार्थः

    (अयम्) एषः अस्माभिरनुभूयमानः (सः) प्रसिद्धः ब्रह्मानन्दरसो वर्तते। (यः रघुयामा) शीघ्रगतिः सन् (दिवः परि) आनन्दमयात् परमेश्वरात्। [दिवु धातोरर्थेषु मोदार्थोऽपि परिगणितः।] (पवित्रे आ) पवित्रे हृदये आगम्य (सिन्धोः ऊर्मौ) आत्मसमुद्रस्य तरङ्गे (व्यक्षरत्) परिस्रवति ॥३॥

    भावार्थः

    यथा सोमौषधिरसो दशापवित्रात् क्षरित्वा द्रोणकलशे पतति यथा वा चन्द्रिकारसः पवित्रादन्तरिक्षात् क्षरित्वा समुद्रे पतति तथैव परमात्मनः सकाशादागत आनन्दरसः पवित्राद् हृदयात् क्षरित्वाऽन्तरात्मानमागच्छति ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।३९।४।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This is the Soma, which, free from the dirt, reaches heaven diversely in a rarefied form, through the air of the atmosphere.

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    Meaning

    This Soma is the spirit of joy which, at instant and universal speed, descends and manifests in the devotees pure soul from the light of divinity and stimulates oceanic waves of ecstasy to roll in the heart. (Rg. 9-39-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अयं सः यः) એ તે જે પરમાત્મા (रघुयामा) મધુર ગતિવાળા (दिवः परि) અમૃતધામ-મોક્ષધામનો અધ્યક્ષ છે. (पवित्रे आ) પવિત્ર આત્મા ઉપાસકની અંદર આરક્ષિત થાય છે-આવી જાય છે. (सिन्धोः ऊर्मा) સ્પંદમાન મહાન જળાશયના તરંગ જેમ વિવિધ રૂપથી ક્ષરિત થઈ જાય છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा सोम औषधीचा रस दशापवित्र नावाच्या चाळणीतून क्षरित होऊन द्रोणकलशात पडतो, अथवा जसा चांदण्याचा रस पवित्र अंतरिक्षातून क्षरित होऊन समुद्रात पडतो, तसेच परमात्म्याकडून आलेला आनंदरस पवित्र हृदयातून क्षरित होऊन अंतरात्म्यात येतो. ॥३॥

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