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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 950
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    17

    न꣢ कि꣣ष्ट्व꣢द्र꣣थी꣡त꣢रो꣣ ह꣢री꣣ य꣡दि꣢न्द्र꣣ य꣡च्छ꣢से । न꣢ कि꣣ष्ट्वा꣡नु꣢ म꣣ज्म꣢ना꣣ न꣢ किः꣣ स्व꣡श्व꣢ आनशे ॥९५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । किः꣣ । त्व꣢त् । र꣣थी꣡त꣢रः । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । यत् । इ꣣न्द्र । य꣡च्छ꣢꣯से । न । किः꣣ । त्वा । अ꣡नु꣢꣯ । म꣣ज्म꣡ना꣢ । न । किः꣣ । स्व꣡श्वः꣢꣯ । सु꣣ । अ꣡श्वः꣢꣯ । आ꣡नशे ॥९५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न किष्ट्वद्रथीतरो हरी यदिन्द्र यच्छसे । न किष्ट्वानु मज्मना न किः स्वश्व आनशे ॥९५०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    न । किः । त्वत् । रथीतरः । हरीइति । यत् । इन्द्र । यच्छसे । न । किः । त्वा । अनु । मज्मना । न । किः । स्वश्वः । सु । अश्वः । आनशे ॥९५०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 950
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुनः जीवात्मा को सम्बोधन किया गया है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) विघ्नों को विदीर्ण करनेवाले जीवात्मन् ! (न किः) कोई भी नहीं (त्वत्) तेरी अपेक्षा (रथीतरः) अधिक प्रशस्त रथारोही है, (यत्) क्योंकि, तू (हरी) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय-रूप घोड़ों को (यच्छसे)शरीररूप रथ में नियन्त्रित किये रखता है। (न किः) कोई भी नहीं (त्वा) तेरी (मज्मना) बल में (अनु) बराबरी करता है। (न किः) कोई भी नहीं (स्वश्वः) उत्कृष्ट घोड़ोंवाला भी (आनशे) तेरे बराबर हो सकता है ॥२॥

    भावार्थ

    प्रोद्बोधन दिया हुआ जीवात्मा जब वीररस को अपने अन्दर सञ्चारित करता है तब कोई भी अन्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता ॥२॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (त्वत्-रथीतरः-न किः) तुझ से भिन्न मोक्षरथ—रमणस्थान का स्वामी कोई नहीं (हरी यत्-यच्छसे) ऋक् साम स्तुति—उपासना को तू ही अपने में स्थान देता है (मज्मना त्वा-अनु न किः) बल से*102 भी तेरे समान कोई नहीं (स्वश्वः न किः-आनशे) शोभन व्यापन धर्म वाला भी तेरा जैसा कोई संसार भर में नहीं व्यापता है॥२॥

    टिप्पणी

    [*102. “मज्मना बलनाम” [निघं॰ २.९]।]

    विशेष

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    विषय

    रथी-तर

    पदार्थ

    अपने जीवन को पवित्र करनेवाला ‘पावकः'=उन्नति-पथ पर चलनेवाला 'अग्नि: 'अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करनेवाला 'बार्हस्पत्यः' अथवा इस प्रभु-प्रदत्त शरीररूप घर की रक्षा करनेवाला ‘गृहपतिः'=रक्षा के उद्देश्य से अपने को पापों से पृथक् कर पुण्य से जोड़नेवाला 'यविष्ठ', परिणामतः शक्ति का पुतला बना हुआ 'सहसः पुत्र' मन्त्र का ऋषि है । इसके ऐसा बन सकने का रहस्य मन्त्र में निम्न शब्दों में वर्णित हुआ है

    १. (त्वत्) = तुझसे (रथीतर:) = उत्तम रथवाला (नकि:) = और कोई नहीं है (यत्) = क्योंकि हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठात: ! तू हरी-ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों को (यच्छसे) = वश में करके उत्तम रथवाला बनने के लिए यत्न करता है । 'इन्द्रियों को वश में करना' आवश्यक है। इससे शक्ति भी बढ़ती है और ज्ञान भी, परिणामतः न व्याधियाँ इस शरीर को घेरती हैं न आधियाँ । शक्ति का अभाव व्याधियों का कारण होता है और ज्ञानाभाव आधियों का ।

    २. (मज्मना) = बल के दृष्टिकोण से भी [मज्म-बल] त्(वा अनु न कि:) = तेरा अनुगमन करनेवाला कोई नहीं बनता, अर्थात् तू अद्वितीय शक्तिशाली बनता है । ३. तेरे समान (स्वश्वः) = उत्तम इन्द्रियरूप घोड़ोंवाला भी (न किः आनशे) = अपने मार्ग का व्यापन नहीं करता [अश् व्याप्तौ] । जिस सुन्दरता से तू अपने घोड़ों को मार्ग पर चला रहा है वैसा और कोई नहीं मिलता । इसी का यह फल है कि निरन्तर कर्मों में लगे रहने से तू 'पावक, यविष्ठ व सहसः पुत्र' बना है और सतत ज्ञानप्राप्ति ने तुझे 'अग्नि, बृहस्पति व गृहपति' बनाया है ।

    भावार्थ

    हम उत्तम रथी हों, इन्द्रियरूप घोड़ों को वश में रक्खें, शक्ति की वृद्धि करें और उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले हों । इन्द्रियाश्व शक्तिशाली भी हों और हमारे वश में भी हों ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (यत्) क्योंकि तू संसार को चलाने हारे बलवान् अश्वों के समान (हरी) ज्ञान और शक्तिरूप बलों को (यच्छसे) नियम में रखता है अतः (त्वत्) तुझ से (रथीतरंः) बड़ा रथका स्वामी या अधिक आनन्दरस और बलवाला (नकिः) कोई दूसरा नहीं है। (मज्मना) बल के कारण भी (त्वा अनु) तेरे मुकाबले पर (नकिः) कोई नहीं है। और (सु-अश्वः) उत्तम व्यापन शक्ति से सम्पन्न या वेगवान् कोई पदार्थ भी (नकिः आनशे) इस संसार में तुझसे बढ़कर और कोई व्यापक नहीं है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनर्जीवात्मा सम्बोध्यते।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) विघ्नविद्रावक जीवात्मन् ! (न किः) न कोऽपि (त्वत्) त्वदपक्षेया (रथीतरः) अतिशयेन प्रशस्तः रथारोही अस्ति, (यत्) यस्मात्, त्वम् (हरी) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ अश्वौ (यच्छसे) देहरथे नियन्त्रयसि। (न किः) न कश्चित् (त्वा) त्वाम् (मज्मना) बलेन। [मज्म इति बलनाम। निघं० २।९।] (अनु)अनुकरोति। (न किः) नैव कश्चित् (स्वश्वः) शोभनाश्वः अपि (आनशे) त्वां व्याप्नोति, त्वत्तुल्योऽस्तीति भावः ॥२॥२

    भावार्थः

    प्रोद्बोधितो जीवात्मा यदा वीररसं स्वात्मनि सञ्चारयति तदा न कोऽप्यन्यस्तत्तुल्यतां कर्त्तुमर्हति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।८४।६। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं सभाध्यक्षसेनाध्यक्षविषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    0 God, Thou Controllest knowledge and action like two powerful horses to maintain the world. None is stronger than Thee. None hath surpassed Thee in Thy Might. None is more pervading and faster than Thee !

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    Meaning

    Indra, while you yoke and drive the horses, powers of the chariot of your dominion, none could be a better master of the chariot. None could equal you in power, courage and force. None as master of horse and chariot could claim even to approach you in power, efficiency and glory. (Rg. 1-84-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (त्वत् रथितरः न किः) તારાથી ભિન્ન બીજો કોઈ મોક્ષરથરમણસ્થાનનો સ્વામી નથી. (हरी यत् यच्छसे) ૠક્-સામ સ્તુતિ-ઉપાસનાને તું જ પોતાનામાં સ્થાન આપે છે. (मज्मना त्वा अनु न किः) બળમાં પણ તારા સમાન બીજો કોઈ શક્તિમાન નથી. (स्वश्वः न किः आनशे) શોભન વ્યાપક ધર્મવાળો પણ તારા જેવો આ સંસારમાં બીજો કોઈ નથી. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रोद्बोधन केलेला जीवात्मा जेव्हा वीररसाला आपल्यामध्ये संचारित करतो तेव्हा कोणीही दुसरा त्याची बरोबरी करू शकत नाही. ॥२॥

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