अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - पूषादयो मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा उष्णिग्गर्भा ककुम्मती अनुष्टुप्
सूक्तम् - नारीसुखप्रसूति सूक्त
35
सू॒षा व्यू॑र्णोतु॒ वि योनिं॑ हापयामसि। श्र॒थया॑ सूषणे॒ त्वमव॒ त्वं बि॑ष्कले सृज ॥
स्वर सहित पद पाठसू॒पा । वि । ऊ॒र्णो॒तु॒ । वि । योनि॑म् । हा॒प॒या॒म॒सि॒ । श्र॒थय॑ । सू॒ष॒णे॒ । त्वम् । अव॑ । त्वम् । बि॒ष्क॒ले॒ । सृ॒ज॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सूषा व्यूर्णोतु वि योनिं हापयामसि। श्रथया सूषणे त्वमव त्वं बिष्कले सृज ॥
स्वर रहित पद पाठसूपा । वि । ऊर्णोतु । वि । योनिम् । हापयामसि । श्रथय । सूषणे । त्वम् । अव । त्वम् । बिष्कले । सृज ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टिविद्या का वर्णन।
पदार्थ
(सूषा) सन्तान उत्पन्न करनेवाली माता (व्यूर्णोतु) अङ्गों को कोमल करे (योनिम्) प्रसूतिका गृह को (विहापयामसि) हम प्रस्तुत करते हैं। (सूषणे) हे जन्म देने हारी माता ! (त्वम्) तू (श्रथय) प्रसन्न हो। (विष्कले) हे वीर स्त्री ! (त्वम्) तू (अव सृज) [बालक को] उत्पन्न कर ॥३॥
भावार्थ
गर्भ के पूरे दिनों में गर्भिणी की शारीरिक और मानसिक अवस्था को विशेष ध्यान से स्वस्थ रक्खें। माता के प्रसन्न और सुखी रहने से बालक भी प्रसन्न और सुखी होता है। प्रसूतिका गृह भी पहिले से देश, काल विचार कर प्रस्तुत रक्खें कि प्रसूता स्त्री और बालक भले प्रकार स्वस्थ और हृष्ट पुष्ट रहें ॥३॥
टिप्पणी
३−सूषा। सूषति प्रसवतीति। षूष, सूष वा प्रसवे-अच्, टाप्। सवित्री जननी, माता। वि+ऊर्णोतु। म० १। अङ्गानि प्रस्तुतानि करोतु। योनिम्। वहिश्रिश्रुयुद्रुग्लाहात्वरिभ्यो नित्। उ० ४।५१। इति यु मिश्रणामिश्रणयोः−नि। योनिर्गृहनाम−निघ० ३।४। गृहम्। प्रसूतिकागृहम्। वि+हापयामसि। ओहाङ् गतौ-णिच्। अर्त्तिह्री०। पा० ७।३।३६। इति पुगागमः। इदन्तो मसिः। पा० ७।१।४६। इकारः। विहापयामः। विशेषेण गमयामः। प्रस्तुतं कुर्मः। श्रथय। श्रथ यत्ने प्रहर्षे च, चुरादिः। यतस्व। हृष्टा भव। सूषणे। संपदादिभ्यः क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। इति षूङ् प्रसवे-क्विप्। सूः सवनम्, उत्पत्तिः। छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।३।२७। इति सू+षण दाने−इन्। सुवं सनोति ददातीति सूषणिः। तत्सम्बोधनम्। हे प्रसवस्य दात्रि कारिणि ! विष्कले। कलस्तृपश्च। उ० १।१०४। इति विष्क हिंसायां दर्शने च कल प्रत्ययः। टाप्। हे वीरे, शूरे। दर्शनीये। अव+सृज। उपसर्गस्य व्यवधानम्। सृज विसर्गे। गर्भं बालकम् उत्पादय ॥
विषय
सूषणा-विष्कला
पदार्थ
१. (सूषा) = [सूपति, begets] सन्तान को जन्म देनेवाली यह माता वि (ऊर्णोतु) = आवरण को दूर हटानेवाली हो। (योनिम्) = योनि-प्रदेश को (विहापयामसि) = खला करते हैं। योनिप्रदेश की संकीर्णता के कारण सुख-प्रसव में होनेवाली बाधा को दूर करते हैं। २. हे (सूषणे) = उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाली जननि! (त्वम्) = तू (श्रथय) = प्रसन्न मनोवृत्तिवाली हो [to beglad] | सुख-प्रसव के लिए मानस प्रसाद की अत्यन्त आवश्यकता है। मन के विकास के साथ अन्य अङ्गों का भी विकास होता है और मन के मुरझाने के साथ अन्य अङ्गों का भी सङ्कोच । यह सोच सुख प्रसव में बाधा बनता है। ३. हे (बिष्कले) = [बिष्कल to kill] विनों को नष्ट करनेवाली अथवा [बिष्क to see, perceive] सब स्थिति को ठीक रूप में देखनेवाली वीर स्त्रि। (त्वम्) = तू (अवसुज) = सब अङ्गों को शिथिल कर दे। उनमें किसी प्रकार का तनाव न रहने दे और इसप्रकार सुख से सन्तान को जन्म देनेवाली हो।
भावार्थ
सुख-प्रसव के लिए आवश्यक है कि [क] योनि-प्रदेश संकीर्ण न हो, [ख] माता प्रसन्न मनवाली हो और [ग] अङ्गों में किसी प्रकार का तनाव न हो।
भाषार्थ
(सूषा) प्राणिगर्भ विमोचन करके शिशु देनेवाली सेविका (व्यूर्णोतु) आसन्न प्रसवा के वस्त्राच्छादन को विगत करे, पृथक् करे, और (योनिम्) योनिमार्ग को (विहापयामसि) हम [शल्यकर्म में दक्षों द्वारा ] विवृत कराते हैं [ये दूसरी सेविकाएँ हैं]। (सूषणे) हे सुखपूर्वक जन्म देनेवाली माता ! (त्वम्) तू (श्रथय) अपने शरीर को शिथिल कर। (विष्कले) हे चान्द्रकला के सदृश सूक्ष्म नाभिनाल को विगत करनेवाली सेविका ! तू (विसृज) नाभिनाल को काट दे ।
टिप्पणी
[सूषा=षूङ् प्राणिगर्भविमोचने (सायण तथा अदादिः) + षणु दाने; जनसनखनक्रमगमो विट् (अष्टा० ३।१।६७) इति विट् । विड्वनोरनुनासिकस्यात् (अष्टा० ६।४।४१) इति आत्त्वम् (सायण)। व्यूर्णोतु=वि+ ऊर्णुञ् आच्छादने (अदादिः) वस्त्राच्छादन को विगत करनेवाली। विसृज= सर्जन=पैदा करना; विसर्जन= काटना। ये सेविकाएँ बच्चा पैदा करने के हस्पताल की हैं। विष्कला अथवा विष्क हिंसायाम् (चुरादिः)+ ला आदाने (अदादिः)। धात्रीक्रिया में हिंसा है, नाभिनाल छेदन। धात्री=दाई।]
विषय
सुखपूर्वक प्रसवविद्या ।
भावार्थ
(सूषा) सुख से बालक को प्रसव देने वाली दाई ( वि उर्णोतु ) गर्भ को जेर से पृथक करे ( योनिं ) और बालक के प्रसव के लिये अन्य सहकारीजन योनिद्वार को ( विहापयामसि ) विशेष रूप से विस्तृत कर के गर्भ को बाहर आने दें । हे ( सूषणे ) वालक का प्रसव करने हारी हे माता ? ( त्वं ) तू अपने अंगों को ( श्रथय ) ढीला छोड़ दे । हे ( विष्कले ) बालक को बाहिर फैकने वाली माता ? ( त्वं ) तू बालक को ( अव सृज) नीचे को प्रेरित कर ।
टिप्पणी
‘पूषां व्यूर्णोतु गर्भ वियोनि’ इति ह्विटनीकामितः पाठः
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः पूषा देवता । १ पंक्तिश्छन्दः, २ अनुष्टुप् ३ उष्णिगर्भा ककुम्मती अनुष्टुप्, ४–६, पथ्यापंक्तिः । षड़र्चं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Easy Delivery
Meaning
Let the parturient woman open up, let the maternity staff relax the system for the birth. O mother, relax, let the procreative system open up and deliver the baby.
Translation
Let this woman, having easy child-birth unclose her. We hereby make the vagina expand. O woman, release your genitals. O courageous woman, let the child come out.
Translation
Let the Nurse separate the embryo from the caul and other assist to stretch the mouth of the womb. O parturient woman; you leave your parts loose. O brave women; leave the child downward.
Translation
O pregnant woman, keep your organs loose and soft, we expand the womb. O mother, about to deliver a child, remain happy. O brave and patient mother, give birth to the child.
Footnote
‘We’ refers to the nurses attending upon the pregnant woman, who through their medical skill, make the delivery convenient. Griffith has not translated the verses 3-6, remarking that they are strictly obstetric and not presentable in English.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−सूषा। सूषति प्रसवतीति। षूष, सूष वा प्रसवे-अच्, टाप्। सवित्री जननी, माता। वि+ऊर्णोतु। म० १। अङ्गानि प्रस्तुतानि करोतु। योनिम्। वहिश्रिश्रुयुद्रुग्लाहात्वरिभ्यो नित्। उ० ४।५१। इति यु मिश्रणामिश्रणयोः−नि। योनिर्गृहनाम−निघ० ३।४। गृहम्। प्रसूतिकागृहम्। वि+हापयामसि। ओहाङ् गतौ-णिच्। अर्त्तिह्री०। पा० ७।३।३६। इति पुगागमः। इदन्तो मसिः। पा० ७।१।४६। इकारः। विहापयामः। विशेषेण गमयामः। प्रस्तुतं कुर्मः। श्रथय। श्रथ यत्ने प्रहर्षे च, चुरादिः। यतस्व। हृष्टा भव। सूषणे। संपदादिभ्यः क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। इति षूङ् प्रसवे-क्विप्। सूः सवनम्, उत्पत्तिः। छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।३।२७। इति सू+षण दाने−इन्। सुवं सनोति ददातीति सूषणिः। तत्सम्बोधनम्। हे प्रसवस्य दात्रि कारिणि ! विष्कले। कलस्तृपश्च। उ० १।१०४। इति विष्क हिंसायां दर्शने च कल प्रत्ययः। टाप्। हे वीरे, शूरे। दर्शनीये। अव+सृज। उपसर्गस्य व्यवधानम्। सृज विसर्गे। गर्भं बालकम् उत्पादय ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
(সৃষ্টি বিদ্যা বর্ণনম্) সৃষ্টিবিদ্যার বর্ণনা
भाषार्थ
(সূষা) সন্তান জন্মদাত্রী মাতা (ব্যূর্ণোতু) অঙ্গকে কোমল করুক (যোনিম্) প্রসূতিকা গৃহ (বিহাপয়ামসি) আমরা প্রস্তুত করি। (সূষণে) হে জন্মদাত্রী মাতা ! (ত্বম্) তুমি (শ্রথয়) প্রসন্ন হও। (বিষ্কলে) হে বীর স্ত্রী ! (ত্বম্) তুমি (অব সৃজ) [সন্তানকে] জন্ম দাও ॥৩॥
भावार्थ
গর্ভের পূর্ণ দিনে গর্ভিণীর শারীরিক ও মানসিক অবস্থাকে বিশেষভাবে খেয়াল/বিচার করে সুস্থ রাখুক। মাতা প্রসন্ন ও সুখী থাকলে বালকও প্রসন্ন এবং সুখী হয়। প্রসূতিকা গৃহও প্রথম থেকে দেশ, কাল বিচার করে প্রস্তুত রাখুক যেন প্রসূতা স্ত্রী এবং বালক উত্তমরূপে সুস্থ ও হৃষ্টপুষ্ট থাকে ॥৩॥
भाषार्थ
(সূষা) প্রাণিগর্ভ বিমোচন করে শিশু প্রদানকারী সেবিকা (ব্যূর্ণোতু) আসন্ন প্রসবার বস্ত্রাচ্ছাদন বিগত করে/করুক, পৃথক্ করে/করুক, এবং (যোনিম্) যোনিমার্গকে (বিহাপয়ামসি) আমরা [শল্যকর্মে দক্ষদের দ্বারা] বিবৃত করাই [এঁরা হল অনান্য সেবিকা]। (সূষণে) হে সুখপূর্বক জন্মপ্রদাত্রী মাতা ! (ত্বম্) তুমি (শ্রথয়) নিজের শরীরকে শিথিল করো। (বিষ্কলে) গর্ভ প্রেরণকারী সেবিকা! তুমি (অবসৃজ) গর্ভকে নীচে প্রেরিত করো।
टिप्पणी
[সূষা=ষূঙ্ প্রাণিগর্ভবিমোচনে (সায়ণ তথা অদাদিঃ) + ষণু দানে; জনসনখনক্রমগমো বিট্ (অষ্টা০ ৩।১।৬৭) ইতি বিট্ । বিড্বনোরনুনাসিকস্যাৎ (অষ্টা০ ৬।৪।৪১) ইতি আত্ত্বম্ (সায়ণ)। ব্যূর্ণোতু= বি+ ঊর্ণুঞ্ আচ্ছাদনে (অদাদিঃ) বস্ত্রাচ্ছাদন বিগতকারী। বিসৃজ= সৃষ্টি=জন্ম দেওয়া; বিসর্জন= কাটা। এই সেবিকারা সন্তান জন্ম দেওয়ার হাসপাতালের। বিষ্কলা অথবা বিষ্ক হিংসায়াম্ (চুরাদিঃ)+ লা আদানে (অদাদিঃ)। ধাত্রীক্রিয়ায় হিংসা হল, নাভিনাল ছেদন। ধাত্রী=দাঈ।]
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal