अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
ऋषिः - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
33
न वै तं चक्षु॑र्जहाति॒ न प्रा॒णो ज॒रसः॑ पु॒रा। पुरं॒ यो ब्रह्म॑णो॒ वेद॒ यस्याः॒ पुरु॑ष उ॒च्यते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । वै । तम् । चक्षु॑: । ज॒हा॒ति॒ । न । प्रा॒ण: । ज॒रस॑: । पु॒रा । पुर॑म् । य: । ब्रह्म॑ण: । वेद॑ । यस्या॑: । पुरु॑ष: । उ॒च्यते॑ ॥२.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
न वै तं चक्षुर्जहाति न प्राणो जरसः पुरा। पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठन । वै । तम् । चक्षु: । जहाति । न । प्राण: । जरस: । पुरा । पुरम् । य: । ब्रह्मण: । वेद । यस्या: । पुरुष: । उच्यते ॥२.३०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(तम्) उस [मनुष्य] को (न वै) न कभी (चक्षुः) दृष्टि और (न) न (प्राणः) प्राण [जीवनसामर्थ्य] (जरसः पुरा) [पुरुषार्थ के] घटाव से पहिले (जहाति) तजता है, (यः) जो मनुष्य (ब्रह्मणः) ब्रह्म [परमात्मा] की (पुरम्) [उस] पूर्ति को (वेद) जानता है, (यस्याः) जिस [पूर्ति] से वह [परमेश्वर] (पुरुषः) पुरुष [परिपूर्ण] (उच्यते) कहा जाता है ॥३०॥
भावार्थ
जो मनुष्य पूर्ण परमात्मा को जानता है, उस मनुष्य में दिव्यदृष्टि और आत्मबल सदा बना रहता है, जब तक वह पुरुषार्थ करता रहता है ॥३०॥
टिप्पणी
३०−(न) निषेधे (वै) एव (तम्) मनुष्यम् (चक्षुः) दृष्टिः (जहाति) त्यजति (न) (प्राणः) (जरसः) जरायाः। पुरुषार्थहानेः सकाशात् (पुरा) पूर्वम्। अन्यत् पूर्ववत्−मन्त्रे २८ ॥
विषय
'स्वस्थ दीर्घ जीवन
पदार्थ
१.(यः) = [यम+उ] जो संयमी पुरुष (पुरम्) = इस शरीर-नगरी को (ब्रह्मण: वेद) = ब्रह्मा की जानता है, इसे प्रभु की ही धरोहर समझता है, (यस्या:) = जिससे वह प्रभु (पुरुषः उच्यते) = पुरुष-पुरी में निवास करनेवाले कहे जाते हैं, (तम्) = उस संयमी पुरुष को (वै) = निश्चय से (चक्षुः न जहाति) = आँख आदि इन्द्रियाँ छोड़ नहीं जाती-उसकी सब इन्द्रियाँ ठीक बनी रहती हैं, (प्राण:) = प्राण भी उसे (जरसः पुरा) = पूर्ण बृद्धावस्था से पूर्व (न) = नहीं छोड़ जाता, अर्थात् वह पूर्ण दीर्घायुष्य प्राप्त करता है।
भावार्थ
संयमी बनकर जब हम इस शरीर-नगरी को प्रभु का समझकर इसका पूरा ध्यान व आदर करते हैं तब हम स्वस्थ व दीर्घ जीवन को प्राप्त करनेवाले बनते हैं।
भाषार्थ
(वै) निश्चय से (तम्) उसे, (जरसः पूरा) जरावस्था से पूर्व, (न चक्षुः न प्राणः) न दृष्टि और न प्राण (जहाति) त्यागता है (यः) जोकि [शरीर को] (ब्रह्मणः पुरम्) ब्रह्म की पुरी रूप में जान लेता है, (यस्याः) जिस के सम्बन्ध से ब्रह्म (पुरुषः उच्यते) पुरुष कहा जाता है।
टिप्पणी
[जो निज शरीर को ब्रह्म-की-पूरी जानता है अर्थात् यह जानता है कि इस पुरी का राजा ब्रह्म है, वह निज राजा द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलने लगता है, जिस से कि उस की शारीरिक आदि शक्तियों का अपव्यय नियत काल से पूर्व, नहीं होने पाता। पुरुषः= पुरिशेते वसति वा इति, जोकि शरीर पुरी में शयन करता या वसता है।
विषय
पुरुष देह की रचना और उसके कर्त्ता पर विचार।
भावार्थ
(यः) जो (ब्रह्मणः पुरं वेद) ब्रह्म की उस पुरी को जानता है (यस्याः) जिसका अध्यक्ष साक्षात् (पुरुष उच्यते) पुरुष कहा जाता है। (तम्) उसको (चक्षुः) चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियगण (न जहाति) नहीं छोड़ते (न प्राणः) और न प्राण ही (जरसः पुरा) बुढ़ापे के पूर्व त्यागता है।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘जरसः पुरः’ (च०) ‘यस्मात् पुरुष उच्यते’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। पार्ष्णी सूक्तम्। ब्रह्मप्रकाशिसूक्तम्। १-४, ७, ८, त्रिष्टुभः, ६, ११ जगत्यौ, २८ भुरिगवृहती, ५, ४, १०, १२-२७, २९-३३ अनुष्टुभः, ३१, ३२ इति साक्षात् परब्रह्मप्रकाशिन्यावृचौ। त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kena Suktam
Meaning
The eye of clairvoyance forsakes him not, nor pranic energy and vitality forsakes him, before the completion of full age. Who knows the body as the City of God, for that very reason he knows that the soul is called ‘purusha’, resident of the City of God.
Translation
Surely the vision does not desert him, nor the vitality before the natural decay, who knows the supreme Lord’s castle, due to which man is named purusa. (Puram = castle).
Translation
Before life’s natural decay sight does not leave him, life or vitality does not quit him, who knows the fort of Supreme Spirit, the human body and the Universe on the base of which He Is called Brahman, the Supreme Spirit.
Translation
Sight leaves him not, breath quits not him before old age, who knows the mighty strength of God, whereby He is named as Purusha.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३०−(न) निषेधे (वै) एव (तम्) मनुष्यम् (चक्षुः) दृष्टिः (जहाति) त्यजति (न) (प्राणः) (जरसः) जरायाः। पुरुषार्थहानेः सकाशात् (पुरा) पूर्वम्। अन्यत् पूर्ववत्−मन्त्रे २८ ॥
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