अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 24
तुभ्य॑मार॒ण्याः प॒शवो॑ मृ॒गा वने॑ हि॒ता हं॒साः सु॑प॒र्णाः श॑कु॒ना वयां॑सि। तव॑ य॒क्षं प॑शुपते अ॒प्स्वन्तस्तुभ्यं॑ क्षरन्ति दि॒व्या आपो॑ वृ॒धे ॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑म् । आ॒र॒ण्या: । प॒शव॑: । मृ॒गा: । वने॑ । हि॒ता: । हं॒सा: । सु॒ऽप॒र्णा: । श॒कु॒ना: । वयां॑सि । तव॑ । य॒क्षम् । प॒शु॒ऽप॒ते॒ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । तुभ्य॑म् । क्ष॒र॒न्ति॒ । दि॒व्या: । आप॑: । वृ॒धे ॥२.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्यमारण्याः पशवो मृगा वने हिता हंसाः सुपर्णाः शकुना वयांसि। तव यक्षं पशुपते अप्स्वन्तस्तुभ्यं क्षरन्ति दिव्या आपो वृधे ॥
स्वर रहित पद पाठतुभ्यम् । आरण्या: । पशव: । मृगा: । वने । हिता: । हंसा: । सुऽपर्णा: । शकुना: । वयांसि । तव । यक्षम् । पशुऽपते । अप्ऽसु । अन्त: । तुभ्यम् । क्षरन्ति । दिव्या: । आप: । वृधे ॥२.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(तुभ्यम्) तेरे [शासन मानने] के लिये (आरण्याः) वनैले (पशवः) पशु [जीव], (मृगाः) हरिण आदि, (हंसाः) हंस, (सुपर्णाः) बड़े उड़नेवाले [गरुड़ आदि], (शकुनाः) शक्तिवाले [गिद्ध चील्ह आदि] (वयांसि) पक्षी (वने) वन में (हिताः) स्थापित हैं। (पशुपते) हे दृष्टिवाले [जीवों] के रक्षक [परमेश्वर] (तव) तेरा (यज्ञम्) पूजनीय स्वरूप (अप्सु अन्तः) तन्मात्राओं के भीतर है, (तुभ्यम्) तेरे [शासन मानने] के लिये (दिव्याः) दिव्य [अद्भुत] (आपः) तन्मात्राएँ (वृधे) वृद्धि करने को (क्षरन्ति) चलती हैं ॥२४॥
भावार्थ
संसार के भीतर सब भयानक और शीघ्रगामी प्राणी परमेश्वर के आज्ञापालक हैं और अणु-अणु में संयोग-वियोग उसी की शक्ति से है ॥२४॥
टिप्पणी
२४−(तुभ्यम्) तवाज्ञापालनाय (आरण्याः) अरण्ये भवाः (पशवः) जन्तवः (मृगाः) हरिणादयः (वने) अरण्ये (हिताः) स्थापिताः (हंसाः) पक्षिविशेषाः (सुपर्णाः) शोभनपतनाः (शकुनाः) शक्तिमन्तो गृध्रचिल्हादयः (वयांसि) पक्षिणः (तव) (यक्षम्) यक्ष पूजायाम्-घञ्। पूज्यं स्वरूपम् (पशुपते) हे दृष्टिमतां जीवानां रक्षक (अप्सु) आपो व्यापिकास्तन्मात्राः-दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२५। तन्मात्रासु (तुभ्यम्) (क्षरन्ति) संचरन्ति) (दिव्याः) अद्भुताः (आपः) तन्मात्राः (वृधे) वर्धनाय ॥
विषय
प्रभु के शासन में
पदार्थ
१. (तुभ्यम्) = तेरे शासन के मानने के लिए ही ये सब (आरण्याः पशव:) = वन्य पशु हैं। आपसे ही (वने) = वन में (मृगाः) = हरिण, शार्दूल, सिंह आदि पशु, (हंसा:) = हंस, (सुपर्णा:) = शोभनपतनवाले श्येन आदि, (शकुना:) = शक्तिशाली गृध्र आदि (वयांसि) = [वनचर] पक्षी (हिता:) = स्थापित किये गये हैं। २. (तव) = आपका (यक्षम्) = पूजनीय अंश ही (अप्सु अन्त:) = सब प्रजाओं के अन्दर है। (दिव्या: आप:) = ये अन्तरिक्षस्थ जल (तुभ्यं वृधे) = आपको महिमा को बढ़ाने के लिए ही (क्षरन्ति) = क्षरित हो रहे हैं। बरसते हुए मेघों में प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है।
भावार्थ
सब आरण्य पशु-पक्षी प्रभु के शासन में ही गति कर रहे हैं। प्रजाओं में भी वह-वह विभूति उस प्रभु के अंश के कारण ही है। बरसते हुए मेघों में भी प्रभु को हो महिमा दिखती है।
भाषार्थ
(आरण्याः पशवः) जंगली पशु तथा (वने) वनोपवन में (हिताः) स्थित (मृगाः) मृग, (हंसाः, सुपर्णाः) हंस और श्येन, (शकुनाः) शक्तिशाली चीलें गृध्र आदि, (वयांसि) तथा कौए (तुभ्यम्) तेरे प्रति अपने आप को समर्पित किये हुए हैं, तेरे आश्रय पर जीवित हैं। (पशुपते) हे सब प्राणियों के स्वामिन् ! (तव यक्षम्) तेरा पूजनीय स्वरूप (अप्सु अन्तः) समुद्रों तथा अन्य जलों में भी विद्यमान है, तथा (वृधे) प्राणी आदि की वृद्धि के लिये (दिव्याः आपः) अन्तरिक्षीय-मेघीय-जल (तुभ्यम्) तेरी प्रसन्नता के लिये (क्षरन्ति) प्रवाहित होते हैं।
टिप्पणी
[आरण्यवासी पशु, तथा वनोपवनों में रहने वाले मृग, तथा आकाश विहारी पक्षिगण तेरे आश्रय पर जीवित हैं। तेरा स्वरूप सामुद्रिक जलों में भी प्रतीत हो रहा है, जिस तेरी सत्ता के कारण जलीय प्राणी जीवित हैं। दिव्य जल अर्थात् पर्वतों से प्रवाहित होने वाले और अन्तरिक्ष से बरसने वाले मधुर जल तेरी प्रसन्नता के निमित्त प्रवाहित हो रहे हैं, और प्राणियों की वृद्धि कर रहे हैं। जलप्रवाह परमेश्वर के निमित्त हो रहा है, देखो (अथर्व १०।७।४)]
विषय
रुद्र ईश्वर के भव और शर्व रूपों का वर्णन।
भावार्थ
हे रुद्र ! (तुभ्यम्-तव) तेरे ही ये (आरण्याः) जंगल के (पशवः) पशु (मृगाः) हरिण, सिंह, हाथी आदि (वने हिताः) जंगल में रखे हैं। और (हंसाः) हंस आदि (सुपर्णाः) सुन्दर पंखों वाले और (शकुनाः) अति शक्तिशाली (वयांसि) गृद्ध आदि पक्षी ये सब भी तेरे ही हैं। हे (पशुपते) समस्त जीवों के स्वामिन् ! (तव यक्षम्) तेरी ही पूज्यतम आत्मा (अप्सु अन्तः) जलों या प्रजाओं के भीतर है। (तुभ्यं वृधे) तेरी महिमा को बढ़ाने के लिये (दिव्या आपः क्षरन्ति) ये दिव्य-आकाशस्थ जल मेघ से वर्षा रूप में बरसते हैं।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘तुभ्यं वयांसि शकुनाः पतत्रिणः’ ‘आपो मृधे’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १ परातिजागता विराड् जगती, २ अनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती चतुष्पात्स्वराडुष्णिक्, ४, ५, ७ अनुष्टुभः, ६ आर्षी गायत्री, ८ महाबृहती, ९ आर्षी, १० पुरः कृतिस्त्रिपदा विराट्, ११ पञ्चपदा विराड् जगतीगर्भा शक्करी, १२ भुरिक्, १३, १५, १६ अनुष्टुभौ, १४, १७–१९, २६, २७ तिस्त्रो विराड् गायत्र्यः, २० भुरिग्गायत्री, २१ अनुष्टुप्, २२ विषमपादलक्ष्मा त्रिपदा महाबृहती, २९, २४ जगत्यौ, २५ पञ्चपदा अतिशक्वरी, ३० चतुष्पादुष्णिक् ३१ त्र्यवसाना विपरीतपादलक्ष्मा षट्पदाजगती, ३, १६, २३, २८ इति त्रिष्टुभः। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rudra
Meaning
Wild animals, deer and other beasts collectively living in the forest, swans, eagles, vultures and crows, all do homage to you. O Pashupati, your adorable spirit rolls in the waters. For you, in your adoration, for your exaltation celestial showers rain down and bless the earth.
Translation
To thee are assigned the forest animals (pasu), the wild beasts in the woods, the geese (hansa), eagles, hawks, birds; thine, O lord of cattle, is the monster (? yaksa) within the waters; for thine increase flow the waters of the heaven.
Translation
It is due to the power of this fire that wild beasts and sylvan creatures placed in the forest and small birds, swans and eagles are living established. The substance of this fire is protecting creatures, found in the waters. The showers from sky come down to prove its glory.
Translation
O King, the lord of people! for thee were forest beasts and sylvan creatures placed in the wood, and small birds, swans, eagles, and garudas. Thy venerable soul works amongst the subjects; to swell thy strength flow waters from the sky.
Footnote
God placed these beasts and birds in the forest to be protected by the king. These Sylvan birds should be preserved from destruction by the king.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४−(तुभ्यम्) तवाज्ञापालनाय (आरण्याः) अरण्ये भवाः (पशवः) जन्तवः (मृगाः) हरिणादयः (वने) अरण्ये (हिताः) स्थापिताः (हंसाः) पक्षिविशेषाः (सुपर्णाः) शोभनपतनाः (शकुनाः) शक्तिमन्तो गृध्रचिल्हादयः (वयांसि) पक्षिणः (तव) (यक्षम्) यक्ष पूजायाम्-घञ्। पूज्यं स्वरूपम् (पशुपते) हे दृष्टिमतां जीवानां रक्षक (अप्सु) आपो व्यापिकास्तन्मात्राः-दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२५। तन्मात्रासु (तुभ्यम्) (क्षरन्ति) संचरन्ति) (दिव्याः) अद्भुताः (आपः) तन्मात्राः (वृधे) वर्धनाय ॥
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