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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 44
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - परोष्णिक् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    19

    वेद॒ तत्ते॑ अमर्त्य॒ यत्त॑ आ॒क्रम॑णं दि॒वि। यत्ते॑ स॒धस्थं॑ पर॒मे व्योमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेद॑ । तत् । ते॒ । अ॒म॒र्त्य॒ । यत् । ते॒ । आ॒ऽक्रम॑णम् । दि॒वि । यत् । ते॒ । स॒धऽस्थ॑म् । प॒र॒मे । व‍िऽओ॑मन् ॥१.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेद तत्ते अमर्त्य यत्त आक्रमणं दिवि। यत्ते सधस्थं परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेद । तत् । ते । अमर्त्य । यत् । ते । आऽक्रमणम् । दिवि । यत् । ते । सधऽस्थम् । परमे । व‍िऽओमन् ॥१.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 44
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अमर्त्य) हे अमर ! [अविनाशी परमेश्वर] (ते) तेरे (तत्) उस को (वेद) मैं जानता हूँ, (यत्) जो (ते) तेरा (आक्रमणम्) चढ़ाव [व्याप्ति] (दिवि) प्रत्येक व्यवहार में है और (यत्) जो (ते) तेरा (सधस्थम्) सह स्थान (परमे) सबसे बड़े (व्योमन्) विविध रक्षासाधन [मोक्ष पद] में है ॥४४॥

    भावार्थ

    योगी को योग्य है कि उस नित्य शुद्ध परमात्मा को प्रत्येक पदार्थ में साक्षात् करके मोक्षसुख प्राप्त करे ॥४४॥

    टिप्पणी

    ४४−(वेद) जानामि (तत्) प्रसिद्धम् (ते) तव (अमर्त्य) हे अमर। अविनाशिन् (यत्) (ते) (आक्रमणम्) उपरिगमनम् (दिवि) प्रत्येकव्यवहारे (यत्) (ते) (सधस्थम्) सहस्थानम् (परमे) सर्वोत्कृष्टे (व्योमन्) विविधरक्षासाधने मोक्षपदे ॥

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    विषय

    स्वाध्याय व ध्यान

    पदार्थ

    १. हे (अमर्त्य) -= अमरणधर्मा, अविनाशी प्रभो ! (यत् ते) = जो आपका (दिवि आक्रमणम्) = प्रकाशमय लोकों में आक्रमण है, (ते तत् वेद) = आपके उस रूप को मैं जानता हैं, 'आप प्रकाशस्वरूप हैं', ऐसा मैं समझता हूँ। २. (यत्) = जो (ते) = आपका (परमे व्योमन्) = इस सर्वोत्कृष्ट हृदयाकाश में (सधस्थम्) = मिलकर ठहरना-आत्मा के साथ स्थित होना है, उसे मैं जानता हूँ। जीव को दो बातें समझनी हैं-१. यह कि प्रभु प्रकाशरूप हैं, प्रभु की प्राप्ति के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। २. प्रभु का दर्शन हृदयदेश में होगा, जब भी चित्तवृत्ति का निरोध करके हम अन्तर्मुखी वृत्तिवाले बनेंगे तभी हृदय में प्रभु के साथ अपने को स्थित पाएँगे।

    भावार्थ

    प्रभु-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि स्वाध्याय द्वारा हम ज्ञान को बढ़ाएँ तथा चित्तवृत्ति के निरोध का अभ्यास करते हुए अन्तर्मुख वृत्तिवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (अमर्त्य) हे अमर परमेश्वर ! (यत्) जो (ते) तेरा (दिवि) मस्तिष्क में (आक्रमणम्) आक्रमण करना है (ते) तेरे (तत्) उस आक्रमण को (वद) मैं जानता हूं। तथा (ते) तेरे उस (सधस्थम्) साथ बैठने के स्थान को भी मैं जानता हूं, (यत्) जो कि (परमे व्योमन्) उत्कृष्ट हृदयाकाश में है।

    टिप्पणी

    [दिवि =देखो “द्याम्” (मन्त्र ४३)। परमे व्योमन्= परम व्योम है हृदयाकाश (छान्दोग्य उप० अध्या०८, खं० १, सन्दर्भ १-६)‌। हृदयाकाश "सधस्थ" है। इस में जीवात्मा तथा परमेश्वर साथ बैठते है]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (अमर्त्य) मरण धर्म से रहित, कभी न मरनेहारे आत्मन् (तत्) उस (ते) अपने, तेरे स्वरूप को (वेद) तू जान (यत्) जिससे (ते) तेरा (दिवि) तेजोमय मोक्षलोक में (आक्रमणम्) गमन हो। और उसको भी जान (यत्) जो (ते) तेरे (सधस्थम्) सदा साथ रहने वाला परम आत्मा (परमे व्योमन् वि-ओमन्) परम विविध रक्षा करनेहारे मोक्ष में विद्यमान है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Lord of Immortality and Eternity, I know and realise your emergence and radiance in the highest region of light and your seat of presence which is in the ultimate haven of bliss.

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    Translation

    O immortal one, I know that of yours, that is your progression in the firmament, and that your abode in the highest heaven.

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    Translation

    O Immortal one ! I know thy that mysterious activity which is (working) in the heavenly region. I know that cosmic order of Thee which Thou halt in the tremendously vast space.

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    Translation

    O Immortal soul, know thy progress towards salvation. Know God, thy constant companion, thy guardian in the state of emancipation !

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४४−(वेद) जानामि (तत्) प्रसिद्धम् (ते) तव (अमर्त्य) हे अमर। अविनाशिन् (यत्) (ते) (आक्रमणम्) उपरिगमनम् (दिवि) प्रत्येकव्यवहारे (यत्) (ते) (सधस्थम्) सहस्थानम् (परमे) सर्वोत्कृष्टे (व्योमन्) विविधरक्षासाधने मोक्षपदे ॥

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