अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 9
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुरवसाना सप्तपदा भुरिगतिधृतिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
17
कृ॒ष्णं नि॒यानं॒ हर॑यः सुप॒र्णा अ॒पो वसा॑ना॒ दिव॒मुत्प॑तन्ति। त आव॑वृत्र॒न्त्सद॑नादृ॒तस्य॑। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒ष्णम् । नि॒ऽयान॑म् । हर॑य: । सु॒ऽप॒र्णा: । अ॒प: । वसा॑ना: । दिव॑म् । उत् । प॒त॒न्ति॒ । ते । आ । अ॒व॒वृ॒त्र॒न् । सद॑नात् । ऋ॒तस्य॑। तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति। त आववृत्रन्त्सदनादृतस्य। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठकृष्णम् । निऽयानम् । हरय: । सुऽपर्णा: । अप: । वसाना: । दिवम् । उत् । पतन्ति । ते । आ । अववृत्रन् । सदनात् । ऋतस्य। तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(हरयः) जल खींचनेवाली (सुपर्णाः) अच्छे प्रकार उड़नेवाली किरणें, (अपः) जल को (वसानाः) ओढ़कर, (कृष्णम्) खींचनेवाले (नियानम्) नित्य गमनस्थान अन्तरिक्ष में [होकर] (दिवम्) प्रकाशमय सूर्यमण्डल को (उत् पतन्ति) चढ़ जाती हैं। (ते) वे [किरणें] (ऋतस्य) जल के (सदनात्) स्थान [सूर्य] से (आ अववृत्रन्) [ईश्वरनियम के अनुसार] लौट आती हैं। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [मन्त्र १] ॥९॥
भावार्थ
जिस ईश्वर ने सूर्य की किरणों को सूर्य तक जल खींचने, मेघ द्वारा बरसाने और सृष्टि के लिये उपकारी होने का सामर्थ्य दिया है, सब मनुष्य उसकी उपासना करें ॥९॥इस मन्त्र का (कृष्णं.... ऋतस्य) यह भाग आ चुका है-अ० ६।२२।१। तथा ९।१०।२२। और ऋग्० १।१६४।४७ ॥
टिप्पणी
९−कृष्णमित्यादि व्याख्यातम्-अ० ६।२२।१। अत्र शब्दार्थो दीयते (कृष्णम्) आकर्षकम् (नियानम्) नित्यगमनस्थानमन्तरिक्षं प्रति (हरयः) रसं हरन्तः (सुपर्णाः) आदित्यरश्मयः-निरु० ७।२४। (अपः) जलानि (वसानाः) आच्छादयन्तः (दिवम्) प्रकाशमयं सूर्यमण्डलम् (उत्) उद्गत्य (पतन्ति) प्राप्नुवन्ति (ते) किरणाः (आ अववृत्रन्) आवर्तन्ते। आगच्छन्ति (सदनात्) गृहात्। सूर्यमण्डलात् (ऋतस्य) उदकस्य ॥
विषय
द्युलोक की ओर जाना व फिर वहाँ से लौटना
पदार्थ
१. (हरयः) = जल का वाष्पीभवन द्वारा हरण करनेवाली, (सुपर्णा:) = सम्यक् पालन व पोषण करनेवाली (अप: वसाना:) = जल को धारण करनेवाली सूर्य की किरणें (कृष्णं नियानम्) = कृष्ण वर्ण या नील वर्णवाले सबके स्थानरूप (दिवं उत पतन्ति) = द्युलोक की ओर गतिवाली होती हैं। सूर्य की किरणों के द्वारा जल का वाष्पीभवन होता है। इन बाष्पीभूत जलों को लेकर सूर्य की किरणे मानो फिर आकाश की ओर गतिवाली होती हैं। २. (ते) = वे सूर्य की किरणें (ऋतस्य सदनात्) = इस ऋत [rain-water] के सदन से-वृष्टिजल के घररूप अन्तरिक्षलोक से (आववृत्रन्) = फिर यहाँ लौटनेवाली बनती हैं। सूर्य की किरणरूप हाथों द्वारा जलवाष्पों को ऊपर ले-जाता है, सूर्य के ये किरणरूप हाथ जलों को लेने के लिए फिर इस पृथिवीलोक की ओर आवृत होते हैं। प्रभु की यह क्या विचित्र रचना है? इस रचना में प्रभु की महिमा को देखनेवाले ब्रह्मज्ञानी की हत्या करना पाप है।
भावार्थ
सूर्य की किरणें जलों को लेकर ऊपर अन्तरिक्ष में जाती हैं। वहाँ के जलकणों को स्थापित करके पुन: जलकणों को लेने के लिए यहाँ लौटती हैं। इस प्रक्रिया में प्रभु की महिमा को देखनेवाले ब्रह्मज्ञानी का आदर करना हमारा कर्तव्य है। उसकी हिंसा करना महान् पाप है। [मुक्तात्मा भी झुलोक की ओर जाता है और परान्तकाल के पश्चात् फिर वहाँ से यहाँ लौटता है]।
भाषार्थ
(हरयः) जल का हरण करने वाली (सुपर्णाः) पक्षियों के सदृश उत्तम-उड्डनशील किरणें अथवा सुपालक किरणें (कृष्णम्) काले (नियानम्) नीचे के मार्ग को प्राप्त कर, (अपो वसानाः) और जल को धारण कर (दिवम्) द्युलोक की ओर (उत्पतन्ति) उड़ जाती हैं। (ते) वे किरणें (ऋतस्य सदनात्) जल के सदन से (आववृत्रन) फिर लौटती हैं। (तस्य देवस्य....पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १)।
टिप्पणी
[कृष्णं नियानम् = सूर्य से नीचे की ओर आता हुआ नीलाम्बर का काला मार्ग। ऋतस्य = जलस्य (निघं० १।१२)। ऋत का सदन =मेघ या अन्तरिक्ष। आववृत्रन् = लौटती हैं, वर्षा काल में]।
विषय
रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
(सुपर्णाः) शोभन रीति से गमन करने हारे पक्षियों के समान सात्विक ज्ञान से युक्त (हरयः) प्रति उज्वल रूप, अज्ञाननाशक मुक्तात्मा जन, सूर्य किरणों के समान (अपः वसानः) ज्ञान रूप जलों को धारण करते हुए (कृष्णम्) सूर्य के समान आकर्षणकारी (नियानम्) सबके परम गन्तव्य, परमेश्वर और (दिवम्) प्रकाशमय मोक्ष लोक की तरफ (उत्पतन्ति) ऊर्ध्व गति करते हैं। और पुनः मोक्ष काल के उपरान्त (ऋतस्य) परम आत्म-ज्ञान के (सदनात्) आश्रय से (आ ववृत्रन्) पुनः इस लोक में लौट आते हैं। (तस्य ०) इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
To the Sun, against Evil Doer
Meaning
Sun rays of golden wings wearing vestments of water vapours rise to the regions of the sun, centre of solar gravitation, drawing, holding and ordaining the motions of planets and planetary atmospheres. They turn back to the earth from the sun, house of waters and the centre seat of the law of the solar-planetary system. To that divine presence of Brahma in the sun and the solar system, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana, the man who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler high risen and self-refulgent, shake up that person, punish him down to naught, extend the snares of justice and retribution to the Brahmana- violator.
Translation
Dark the descent, the strong-winged birds are golden; they fly aloft to heaven, enrobed in waters, They have come higher from the seat of order, against to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares upon the harasser of intellectual persons.
Translation
He who.....(In whose control) the water raising rays of the sun taking water go towards the sun which is black and support of the other bodies and (again in rainy season) they return back from Place of Water (atmosphere).
Translation
Highly talented souls aspiring after emancipation, enrobed in knowledge, move on to Pleasant God, and the glittering goal of salvation. After the expiry o! the period of salvation, they return to Earth, through the force of their spiritual knowledge. This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahmin who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!
Footnote
See Rig, 1-164-17, Atharva, 6-32-1 and 9-10-32. Period of salvation: 4320000000 years. Soul returns to the Earth. As its powers are finite, the result of their efforts cannot be infinite.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−कृष्णमित्यादि व्याख्यातम्-अ० ६।२२।१। अत्र शब्दार्थो दीयते (कृष्णम्) आकर्षकम् (नियानम्) नित्यगमनस्थानमन्तरिक्षं प्रति (हरयः) रसं हरन्तः (सुपर्णाः) आदित्यरश्मयः-निरु० ७।२४। (अपः) जलानि (वसानाः) आच्छादयन्तः (दिवम्) प्रकाशमयं सूर्यमण्डलम् (उत्) उद्गत्य (पतन्ति) प्राप्नुवन्ति (ते) किरणाः (आ अववृत्रन्) आवर्तन्ते। आगच्छन्ति (सदनात्) गृहात्। सूर्यमण्डलात् (ऋतस्य) उदकस्य ॥
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