अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 20
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदासुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
11
म॒न्युना॑न्ना॒देनान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठम॒न्युना॑ । अ॒न्न॒ऽअ॒देन॑ । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑॥१४.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्युनान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठमन्युना । अन्नऽअदेन । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद॥१४.२०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिके उपकार का उपदेश।
पदार्थ
वह [अतिथि] (अन्नादेन)जीवनरक्षक (मन्युना) ज्ञान से (अन्नम्) जीवन की (अत्ति) रक्षा करता है, (यः) जो (एवम्) व्यापक परमात्मा को (वेद) जानता है ॥२०॥
भावार्थ
मन्त्र १, २ के समान॥१९, २०॥
टिप्पणी
१९, २०−(देवान्)विदुषः पुरुषान् (ईशानः) समर्थः (मन्युम्) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। मनज्ञाने-युच्। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो वधकर्मणो वा-निरु०१०।२९। ज्ञानम्। प्रकाशम् (मन्युना) ज्ञानेन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥
विषय
ईशान+अन्नादमन्यु
पदार्थ
१. (सः) = वह व्रात्य (यत्) = जय (देवान् अनुव्यचलत्) = दिव्यगुणों की प्रासि को लक्ष्य करके चला तब (ईशानः भूत्वा अनुव्यचलत्) = ईशान-इन्द्रियों का स्वामी बनकर गतिवाला हआ। बिना ईशान बने दिव्यगुणों का सम्भव कहाँ? जितेन्द्रियता ही उस वृत्त का केन्द्र है, जिसकी परिधि पर सब दिव्यगुणों की स्थिति है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार जितेन्द्रियता व सद्गुणों के कारणकार्य भाव को समझ लेता है, वह (मन्युम्) = [A sacrifice, spirit, couarge] त्याग व उत्साह को (आनन्दं कृत्वा) = आनन्द बनाकर चलता है। (मन्युना अन्नादेन अन्न अत्ति) = त्याग व उत्साहरूप अन्नादि से ही अन्न को खाता है। उसी सात्विक भोजन का ग्रहण करता है जो उसके मन में त्यागवृत्ति व उत्साह को जन्म दे।
भावार्थ
जितेन्द्रियता ही सब दिव्यगुणों का मूल है। जितेन्द्रियता के लिए हम उन्हीं भोजनों को करें जो हमारे हृदयों में उत्साह व त्यागवृत्ति का संचार करें।
भाषार्थ
(यः) जो व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार आचरण करता है, वह (अन्नादेन) अन्नभोगी (मन्युना) ज्ञानपूर्वक क्रोध की परिपुष्टि की दृष्टि से (अन्नम्, अत्ति) अन्न खाता है।
विषय
व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।
भावार्थ
(सः यद् देवान् अनुव्यचलत्) वह जब देवों की ओर चला तब वह (ईशानः भूत्वा मन्युम् अन्नादं कृत्वा) स्वयं ‘ईशान’ हो कर और मन्यु को ‘अन्नाद’ बना कर (अनुव्यचलत्) चला। (यः एवं वेद) जो प्रजापति के इस स्वरूप को जानता है वह (मन्युना अन्नादेन) मन्यु रूप अन्नाद से (अन्नम् अत्ति) अन्न का भोग करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The man who knows this eats food, taking, and thus making, Manyu as the receiver, consumer and giver of righteous passion.
Translation
With the fervour enjoyer of food, he enjoyes food, whoso know it thus
Translation
He who possesses the knowledge of this eats grain with Manyu consuming the food.
Translation
He who hath this knowledge of the Omnipresent God, preserves life with knowledge as life-preserver.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९, २०−(देवान्)विदुषः पुरुषान् (ईशानः) समर्थः (मन्युम्) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। मनज्ञाने-युच्। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो वधकर्मणो वा-निरु०१०।२९। ज्ञानम्। प्रकाशम् (मन्युना) ज्ञानेन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥
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