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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    18

    अ॑होरा॒त्रेनासि॑के॒ दिति॒श्चादि॑तिश्च शीर्षकपा॒ले सं॑वत्स॒रः शिरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । नासि॑के॒ इति॑ । दिति॑: । च॒ । अदि॑ति: । च॒ । शी॒र्ष॒क॒पा॒ले इति॑ शी॒र्ष॒ऽक॒पा॒ले । स॒म्ऽव॒त्स॒र: । शिर॑: ॥१८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहोरात्रेनासिके दितिश्चादितिश्च शीर्षकपाले संवत्सरः शिरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहोरात्रे इति । नासिके इति । दिति: । च । अदिति: । च । शीर्षकपाले इति शीर्षऽकपाले । सम्ऽवत्सर: । शिर: ॥१८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    व्रात्य के सामर्थ्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [इस व्रात्य के] (नासिके) दो नथने (अहोरात्रे) दिन रात्रि, (च) और (शीर्षकपाले) मस्तक के दोनोंखोपड़े (दितिः) दिति [खण्डित विकृति अर्थात् विनश्वर सृष्टि] (च) और (अदितिः)अदिति [अखण्डित प्रकृति अर्थात् नाशरहित जगत् सामग्री] हैं और [उसका] (शिरः) शिर (संवत्सरः) संवत्सर [कालज्ञान] है ॥४॥

    भावार्थ

    संन्यासी अपने नथनेश्वास-प्रश्वास के मार्गों को दिन-रात्रि के समान बहुत बड़ा मान कर मस्तक केखोपड़ों में सृष्टि और प्रकृति के नियमों को और मस्तक के भीतर कालज्ञान प्राप्तकरता है अर्थात् वह अपनी स्वस्थ सचेत इन्द्रियों द्वारा समस्त संसार के ज्ञान कोग्रहण करता है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(अहोरात्रे) रात्रिदिने (नासिके) नासाच्छिद्रे (दितिः)खण्डिता विकृतिः। विनश्वरा सृष्टिः (च) (अदितिः) अखण्डिता विनाशरहिता प्रकृतिः।जगत्सामग्री (शीर्षकपाले) शिरोऽस्थिनी (संवत्सरः) सवत्सरज्ञानमित्यर्थः ॥

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    विषय

    व्रात्याय नमः

    पदार्थ

    १. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य की-अमृतत्व को प्राप्त करनेवाले तथा प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले व्रात्य की (यत् अस्य दक्षिणम् अक्षि) = जो इसकी दाहिनी आँख है (असौ स आदित्यः) = वही आदित्य है। (यत् अस्य सव्य अक्षि) = जो इसकी बायौं आँख है (असौ स चन्द्रमा:) = वही चन्द्रमा है। दाहिनी आँख ज्ञान का आदान करनेवाली है तो बायीं आँख सबको चन्द्र-शीतल ज्योत्स्ना की भाँति प्रेम से देखनेवाली है। (यः) = जो (अस्य दक्षिण: कर्ण:) = इसका दाहिना कान है (अयं स:) = वह ये (अग्नि:) = अग्नि है, (यः अस्य सव्यः कर्ण:) = जो इसका बायौँ कान है, (अयं सः) = वह यह (पवमानः) = पवमान है। दाहिने कान से यह अग्रगति [उन्नति] की बातों को सुनता है तो बाएँ कान से उन्हीं ज्ञानचर्चाओं को सुनता है जो उसे पवित्र बनानेवाली हैं। २. इसके (अहोरात्रे नासिके) = नासिका-छिद्र अहोरात्र हैं। दाहिना छिद्र अहन् है तो बायाँ रात्रि। दाहिना सूर्यस्वरवाला [दिन] है तो बायाँ चन्द्रस्वरवाला [रात] है। दाहिना प्राणशक्ति का संचार करता है तथा बायाँ अपान के द्वारा दोषों को दूर करता है। इसी दृष्टि से यह दिन-रात प्राणसाधना का ध्यान करता है। इस व्रात्य के (दितिः च अदितिः च शीर्षकपाले) = दिति और अदिति सिर के दो कपाल हैं [Cerebrum, cerebelium] प्रकृति विद्या ही दिति है, आत्मविद्या अदिति । यह विविध प्रकार का ज्ञान प्राप्त करता है। संवत्सरं शिर:-इसका संवत्सर ही सिर है। सम्पूर्ण वर्ष उसी ज्ञान को प्राप्त करने का यह प्रयत्न करता है, जोकि उसके निवास को उत्तम बनाने के लिए आवश्यक है। ३. इस प्रकार अपने जीवन को बनाकर वह व्रात्यः-व्रतमय जीवनवाला पुरुष अह्नः-दिनभर के कार्यों को करने के द्वारा दिन की समाप्ति पर (प्रत्यङ्) = अपने अन्दर आत्मतत्त्व को देखने का प्रयत्न करता है और रात्र्या सम्पूर्ण रात्रि के द्वारा अपने जीवन में शक्ति का संचार करके प्राङ् [प्र अञ्च] अपने कर्तव्य-कर्मों में आगे बढ़ता है। (व्रात्याय नम:) = इस व्रात्य के लिए हम नमस्कार करते हैं।

    भावार्थ

    व्रतमय जीवनवाले पुरुष की दाहिनी आँख ज्ञान का आदान करती है तो बायीं आँख सबको प्रेम से देखती है। इसका दाहिना कान अग्रगति की बातों को सुनता है तो बायाँ कान पवित्रता की। इसके नासिका-छिद्र दिन-रात दीर्घश्वास लेनेवाले होते हैं। यह प्रकृतिविद्या व आत्मविद्या को प्राप्त करता है। कालज्ञ बनता है-सब कार्यों को ठीक स्थान व ठीक समय पर करता है। दिनभर के कार्य के पश्चात् आत्मचिन्तन करता है और रात्रि विश्राम के बाद कर्तव्यों में प्रवृत्त होता है। यह व्रात्य नमस्करणीय है।

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    भाषार्थ

    (नासिके) नासिका के दो छिद्र (अहोरात्रे) दिन और रात्रि है, (शीर्षकपाले) सिर के दो कपाल (दितिः च, अदितिः१ च) दिति और अदिति है, (शिरः) सिर (संवत्सरः) वर्ष है।

    टिप्पणी

    [१. यजुर्वेद में भी आदित्य का सम्बन्ध सिर के साथ दर्शाया है। यथा "अदितिं शीर्ष्णा" (२५।२)।]

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    विषय

    व्रात्य के अन्य अङ्ग प्रत्यङ्ग।

    भावार्थ

    उस व्रात्य के (नासिके अहोरात्रे) दिन और रात दोनों नासिकाओं के समान है। (दितिः च अदितिः च) दिति= द्यौ अदिति पृथ्वी ये दोनों (शीर्षकपाले) शिर के दोनों कपाल हैं। (संवत्सरः शिरः) और संवत्सर शिर है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ दैवी पंक्तिः, २, ३ आर्ची बृहत्यौ, ४ आर्ची अनुष्टुप् ५ साम्न्युष्णिक्। पञ्चर्चं अष्टादशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The day-night cycle is the nostrils, the constant and mutable phases of Nature are two lobes of the brain, and the year is the head.

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    Translation

    Day and night are his two nostrils; the finitude (diti) and infinity (aditi) are his two halves of his Skull; the year is his head.

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    Translation

    Day and night are his nostrils, the Diti and Aditi are his cerebrum and cerebellum and Samvatsara, the year is his head (complete head including medule oblongata).

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    Translation

    Day and Night are his nostrils. Evanescent created world, and eternal Matter are his skulls. The knowledge of time is his head.

    Footnote

    The learned-philanthropic guest prolongs the breaths in his nostril like day and night through Pranayama, realises in his head the attributes of indestructible Matter and impermanent world and knowledge of time. In fact through his organs he masters the knowledge of the whole world.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(अहोरात्रे) रात्रिदिने (नासिके) नासाच्छिद्रे (दितिः)खण्डिता विकृतिः। विनश्वरा सृष्टिः (च) (अदितिः) अखण्डिता विनाशरहिता प्रकृतिः।जगत्सामग्री (शीर्षकपाले) शिरोऽस्थिनी (संवत्सरः) सवत्सरज्ञानमित्यर्थः ॥

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