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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 29
    ऋषिः - आदित्य देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
    34

    ऋ॒तेन॑ गु॒प्तऋ॒तुभि॑श्च॒ सर्वै॑र्भू॒तेन॑ गु॒प्तो भव्ये॑न चा॒हम्। मा मा॒ प्राप॑त्पा॒प्मामोत मृ॒त्युर॒न्तर्द॑धे॒ऽहं स॑लि॒लेन॑ वा॒चः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तेन॑ । गु॒प्त: । ऋ॒तुऽभि॑: । च॒ । सर्वै॑: । भू॒तेन॑ । गु॒प्त: । भव्ये॑न । च॒ । अ॒हम् । मा । मा॒ । प्र । आ॒प॒त् । पा॒प्मा । मा । उ॒त । मृ॒त्यु: । अ॒न्त: । द॒धे॒ । अ॒हम् । स॒लि॒लेन॑ । वा॒च: ॥१.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतेन गुप्तऋतुभिश्च सर्वैर्भूतेन गुप्तो भव्येन चाहम्। मा मा प्रापत्पाप्मामोत मृत्युरन्तर्दधेऽहं सलिलेन वाचः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतेन । गुप्त: । ऋतुऽभि: । च । सर्वै: । भूतेन । गुप्त: । भव्येन । च । अहम् । मा । मा । प्र । आपत् । पाप्मा । मा । उत । मृत्यु: । अन्त: । दधे । अहम् । सलिलेन । वाच: ॥१.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 29
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अहम्) मैं (ऋतेन)सत्य धर्म से (च) और (सर्वैः ऋतुभिः) सब ऋतुओं से (गुप्तः) रक्षा किया हुआ और (भूतेन) बीते हुए से (च) और (भव्येन) होनेवाले से (गुप्तः) रक्षा किया हुआ हूँ। (मा) मुझे (पाप्मा) पाप [बुराई] (मा प्र आपत्) न पावे, (उत) और (मा)(मृत्युः)मृत्यु [पावे], (अहम्) मैं (वाचः) वेदवाणी के (सलिलेन) जल के साथ (अन्तः दधे)अन्तर्धान होता हूँ [डुबकी लगाता हूँ] ॥२९॥

    भावार्थ

    मनुष्य धर्म का सहारालेकर सब भूत, भविष्यत् और वर्तमान को विचार के सबकाल में सुरक्षित रह कर निष्पापऔर अमर अर्थात् यशस्वी होवें, यही वेदवाणीरूप जल में स्नातक होना है॥२९॥

    टिप्पणी

    २९−(ऋतेन) सत्यधर्मेण (गुप्तः) रक्षितः (ऋतुभिः) वसन्तादिकालैः (च) (सर्वैः) (भूतेन) अतीतेन (गुप्तः) (भव्येन) भविष्यता (च) (अहम्) उपासकः (मा) माम् (माप्रापत्) मा प्राप्नुयात् (पाप्मा) पापम् (मा) निषेधे (उत) अपि च (मृत्युः) मरणम् (अन्तर्दधे) अन्तर्धानं करोमि (अहम्) (सलिलेन) जलेन (वाचः) वेदवाण्याः ॥

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    विषय

    पाप व मृत्यु से दूर

    पदार्थ

    १. (अहम्) = मैं तेन गुप्तः ऋत के द्वारा नियमित क्रियाओं के द्वारा रक्षित किया गया हूँ (च) = और (सर्वैः तुभिः) = सब ऋतुओं से रक्षित हुआ हूँ। ऋतुचर्या के ठीक पालन के कारण स्वस्थ बना हूँ। (भूतेन भव्येन च गुप्त:) = उपादानकारणभूत 'पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश' रूप पञ्चभूतों से तथा इन भूतों से उत्पन्न शरीर आदि से मैं (गुप्त:) = सुरक्षित हुआ हूँ। इन भूतों के साथ उचित सम्पर्क से स्वाभाविक जीवन बिताने से मैं स्वस्थ बना दूँ। २. (मा) = मुझे पाप्मा पाप (मा प्रापत्) = मत प्राप्त हो। उत और (मृत्युः मा) = मृत्यु भी मत प्राप्त हो। पाप का परिणाम ही मृत्यु होती है। (अहम्) = मैं (वाच:) = ज्ञान की बाणियों के (सलिलेन) = जल से (अन्तर्दधे) = अपने को अन्तर्हित करता हूँ। इनसे अन्तर्हित होने पर मुझ तक पाप व मृत्यु का पहुँचना नहीं हो पाता। जैसे जल से भरी खाई [परिखा] शत्रु को किले की दीवार तक नहीं आने देती, इसीप्रकार ज्ञानजल से अन्तर्हित मुझ तक ये पाप व मृत्यु नहीं पहुँच पाते।

    भावार्थ

    मेरा जीवन नियमित हो। ऋतुचर्या का मैं ठीक से पालन करूँ। पृथिवी आदि पञ्चभूतों व तज्जन्य सूर्य आदि से मेरा समुचित सम्पर्क हो। साथ ही ज्ञान के जल से मैं अपने को सदा पवित्र बनाऊँ। इसप्रकार पाप व मृत्यु से मैं बचा रहूँ।

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    भाषार्थ

    (ऋतेन) सत्यधर्म द्वारा (च) और (सर्वैः) सर्व (ऋतुभिः) ऋतुओं द्वारा (गुप्तः) सुरक्षित; (भूतेन) बीते जीवन द्वारा (च) और (भव्येन) भावी जीवन द्वारा (गुप्तः) सुरक्षित (अहम्) मैं हुआ हूं। इस लिये हे परमेश्वर ! (पाप्मा) पाप (मा) मुझे (मा)(प्रापत्) प्राप्त हो, (उत) और (मा)(मृत्युः) प्राप्त हो। (वाचः) वेदवाणी के (सलिलेन) जलवत् शान्तिदायक सदुपदेशों द्वारा [पाप और मृत्यु को] (अहम्) मैं (अन्तर्दधे) अन्तर्हित करता हूं, व्यवहित करता हूं, पृथक् करता हूं।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में पाप और मृत्यु से बचने के उपायों का निर्देश किया है। इस के लिये सत्य वैदिकधर्म का पालन, बीते जीवन में किये कर्मों का स्मरण, यथा “कृतं स्मर" (यजु० ४०।१५), भावी जीवन में किये जाने वाले कर्मों पर विचार, तथा वेदवाणी के शान्तिप्रद सदुपदेशों के अनुसार आचरण करना चाहिये। और ऋतुचर्या के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिये। मृत्यु = जन्म-मरण की परम्परा]

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (अहम्) मैं (ऋतेन) सत्यज्ञान, (सर्वैः ऋतुभिः) समस्त ऋतु, सत्यज्ञान धारण करने वाले विद्वानों और (भूतेन) भूत और (भव्येन च) भविष्यत् से (गुप्तः) सुरक्षित रहूं। (पाप्मा मा मा प्रापत्) पाप मुझतक न पहुंचे। (मृत्युः मा उत) और मृत्यु भी मुझे प्राप्त न हो। (अहम्) मैं (वाचः सलिलेन) वाणी के बल से जल से भरी खाई से नगर के समान (अन्तः दधे) अपनी रक्षा करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    I am protected by Rtam, eternal truth and the laws of eternal truth. I am protected by all the seasons through the year. And I am protected by the past and future of my life as pursued or to be pursued in accordance with the laws of eternal truth. Never must any sin or anything sinful ever approach me. Never must even death violate me. I have sin and fear of death washed away and disappear from within me by the holy waters of Vedic speech.

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    Translation

    Protected (I am) by righteousness and by all the seasons, protected by the past and present and by the future I am. May not the evil approach me, nor the death. I conceal myself with the flood of speech.

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    Translation

    I am guarded by the natural law, I am made safe by the group of seasons and I am protected by the past and future. Let not sin or distress and even the death come to me. O overwhelm them through the Vedi (salila) of Vak, the Agni.

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    Translation

    Guarded am I by Truth and all the learned lovers of truth, protected by the past and by the future. Let not sin, yea, let not the fear of Death come nigh me : I defend myself with the force of Vedic knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २९−(ऋतेन) सत्यधर्मेण (गुप्तः) रक्षितः (ऋतुभिः) वसन्तादिकालैः (च) (सर्वैः) (भूतेन) अतीतेन (गुप्तः) (भव्येन) भविष्यता (च) (अहम्) उपासकः (मा) माम् (माप्रापत्) मा प्राप्नुयात् (पाप्मा) पापम् (मा) निषेधे (उत) अपि च (मृत्युः) मरणम् (अन्तर्दधे) अन्तर्धानं करोमि (अहम्) (सलिलेन) जलेन (वाचः) वेदवाण्याः ॥

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