अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 49
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - भुरिक् त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
23
प॑रेयि॒वांसं॑प्र॒वतो॑ म॒हीरिति॑ ब॒हुभ्यः॒ पन्था॑मनुपस्पशा॒नम्। वै॑वस्व॒तं सं॒गम॑नं॒जना॑नां य॒मं राजा॑नं ह॒विषा॑ सपर्यत ॥
स्वर सहित पद पाठप॒रे॒यि॒ऽवांस॑म् । प्र॒ऽवत॑: । म॒ही: । इति॑ । ब॒हुऽभ्य॑: । पन्था॑म् । अ॒नु॒ऽप॒स्प॒शा॒नम् । वै॒व॒स्व॒तम् । स॒म्ऽगम॑नम् । जना॑नाम् । य॒मम् । राजा॑नम् । ह॒विषा॑ । स॒प॒र्य॒त॒ ॥१.४९॥
स्वर रहित मन्त्र
परेयिवांसंप्रवतो महीरिति बहुभ्यः पन्थामनुपस्पशानम्। वैवस्वतं संगमनंजनानां यमं राजानं हविषा सपर्यत ॥
स्वर रहित पद पाठपरेयिऽवांसम् । प्रऽवत: । मही: । इति । बहुऽभ्य: । पन्थाम् । अनुऽपस्पशानम् । वैवस्वतम् । सम्ऽगमनम् । जनानाम् । यमम् । राजानम् । हविषा । सपर्यत ॥१.४९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा की शक्ति का उपदेश।
पदार्थ
(प्रवतः) उत्तमगतिवाली (महीः) बड़ी भूमियों को (परेयिवांसम्) पराक्रम से पहुँच चुके हुए, (इति) इसी से, (बहुभ्यः) बहुत से [लोकों और जीवों] के लिये (पन्थाम्) मार्ग (अनुपस्पशानम्) गाँठनेवाले (वैवस्वतम्) सूर्यलोकों में विदित, (जनानाम्)मनुष्यों के (संगमनम्) मेल करानेवाले (यमम्) यम [न्यायकारी परमात्मा] (राजानम्)राजा [शासक] को (हविषा) भक्ति के साथ (सपर्यत) तुम पूजो ॥४९॥
भावार्थ
जो परमात्मा सब लोकोंमें व्यापक और सूर्य आदि का आकर्षक और मनुष्य आदि का नियामक है, सब लोग उसकीउपासना से उन्नति करें ॥४९॥मन्त्र ४९, ५० कुछ भेद से ऋग्वेद में−१०।१४।१, २। औरऋग्वेदपाठ महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण में उद्धृत हैं॥
टिप्पणी
४९−(परेयिवांसम्) उपयिवाननाश्वाननूचानश्च। पा० ३।२।१०९। परा+इण् गतौ-क्वस्वन्तोनिपातितः। परा पराक्रमेण गतवन्तम् (प्रवतः) अ० ३।१।४। उपसर्गाच्छन्दसिधात्वर्थे। पा० ५।१।११८। इति उपसर्गात् साधने धात्वर्थे वर्तमानात् स्वार्थेवतिः प्रत्ययः। प्रकृष्टगतीः (महीः) भूमिलोकान् (इति) अस्मात् कारणात् (बहुभ्यः)सर्वलोकेभ्यः प्राणिभ्यश्च (पन्थाम्) मार्गम् (अनुपस्पशानम्) स्पशबाधनग्रन्थनग्रहणसंश्लेषणेषु कानच्। अनु निरन्तरं ग्रन्थन् प्रबध्नन् (वैवस्वतम्) तत्र विदित इति च। पा० ५।१।४३। इत्यण्, बाहुलकात्। विवस्वत्सुसूर्यलोकेषु विदितम् (संगमनम्) संगमयितारम् (जनानाम्) (यमम्) न्यायकारिणंपरमात्मानम् (राजानम्) शासकम्) (हविषा) भक्तिदानेन (सपर्यत) पूजयत ॥
विषय
'वैवस्वत-यमराजा' का उपासन
पदार्थ
१. (प्रवत:) = [प्रकृष्टकर्मवतः] उत्कृष्ट कर्मोंवाले, (मही:) = [मह पूजायाम्] पूजा व उपासना करनेवालों को (परेयिवांसम्) = सुदूर स्थानों से भी प्राप्त होनेवाले प्रभु को (इति) = इस कारण से (हविषा सपर्यत) = हवि के द्वारा पूजित करो। प्रभु अज्ञानियों के लिए दूर-से-दूर होते हैं, परन्तु वे ही प्रभु 'पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम् ज्ञानियों के लिए यहाँ शरीर में ही गुहा के भीतर निहित होते हैं। (इति) = इस कारण इस हृदयस्थ प्रभु के दर्शन के लिए आवश्यक है कि हम उत्कृष्ट कर्मों में लगे रहें [प्रवत्] तथा प्रात:-सायं उस अद्वितीय सत् प्रभु का उपासन करनेवाले हों [महि]। वे प्रभु ही इन (बहुभ्य:) = अनेक अपासकों के लिए (पन्थाम्) = जीवन-मार्ग को (अनुपस्पशानम्) = अनुकूलता से दिखानेवाले होते हैं। सोम्यानां भृमिरसि' वे प्रभु इन शान्त, सौम्य स्वभाववाले उपासकों को, अज्ञानवश विरुद्ध दिशा में जा रहे हों तो मुख मोड़कर ठीक दिशा में चलानेवाले होते हैं । २. वे प्रभु (वैवस्वतम्) = ज्ञान की किरणोंवाले हैं। अपने उपासकों के हृदयों को इन ज्ञान-किरणों से उज्ज्वल करनेवाले हैं। यह ज्ञान का प्रकाश ही इन उपासकों को प्रथभ्रष्ट होने से बचाता है। (जनानां संगमनम्) = ये प्रभु लोगों के एकत्र होने के स्थान हैं। इस प्रभु में अधिष्ठित होने पर सब मनुष्य परस्पर एकत्व का अनुभव करते हैं। (यमम्) = हदयस्थ रूपेण वे प्रभु सबका नियमन करनेवाले हैं तथा (राजानम्) = सूर्य-चन्द्र व तारे आदि सभी लोक-लोकान्तरों की गति को व्यवस्थित करनेवाले हैं। इन प्रभु का उपासन हवि के द्वारा होता है।
भावार्थ
उत्कृष्ट कर्मोंवाले उपासकों को प्रभु प्राप्त होते हैं। इन विनीत उपासकों के लिए प्रभु मार्ग-दर्शन करते हैं। वे प्रभु ज्ञान की किरणोंवाले हैं। सबका निवासस्थान होते हुए हमें परस्पर एकत्व का अनुभव कराते हैं। उस नियामक व शासक प्रभु का पूजन यही है कि हम यज्ञशेष का सेवन करें।
भाषार्थ
(प्रवतः) दूर-दूर के (महीः) महालोकलोकान्तरों में (परेयिवांसम) पहुंचे हुए, (बहुभ्यः) नाना उपासकों को (पन्थाम्, अनु पस्पशानम्)१ निरन्तर मार्ग दर्शाते हुए, (वैवस्वतम्) सूर्याधिपति (जनानाम्) उपासक-जनों को (संगमनम्) निज संगति में लानेवाले, (यमम्) जगन्नियन्ता, (राजानम्) जगत् के महाराज परमेश्वर की, (हविषा) आत्मसमर्पण की हवियों द्वारा, (सपर्यत) परिचर्या किया करो।
टिप्पणी
["पस्पशाह्निक" (महाभाष्य पतञ्जलि) तथा "स्पशाः" शब्दों में स्पश धातु दर्शनार्थक प्रतीत होती है। अंग्रेजी के "spy" शब्द में भी इसी "स्पश" का प्रयोग है। यह वैदिक धातु है।]
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
हे मनुष्यो ! (महीः प्रवतः) बड़े दूर २ के देशों तक में, (परियावांसम्) पहुंचे हुए, व्यापक (इति) और इसी प्रकार (बहुभ्यः) बहुतों को (पन्थाम्) मार्ग का (अनुपस्पशानम्) उपदेश करने हारे (जनानाम्) सत्र जनों के (संगमनम्) एक मात्र उत्तम शरण, (वैवस्वतम्) विशेष ऐश्वर्यवान् (यमम् राजानम्) सर्वनियामक, सब में विराजमान, सब के राजा, प्रभु, परमात्मा को (हविषा) ज्ञान या स्मरण द्वारा (सपर्यंत) उपासना करो।
टिप्पणी
(प्र०) ‘महीरनु’ (च०) ‘हविषा दुवस्थ’ इति ऋ०। ‘दुवस्थत’ (प्र०) ‘परेयुवांस’ (द्वि०) ‘अनपस्यशानम’ तै० आ०। (प्र०) ‘महीरति’ इति शं० पा०। ‘महीरनु’ सायणाभिमतः। ऋग्वेदे यम-ऋषिः। यमो देवताः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
With homage of havi and self-sacrifice in karma, serve and worship Yama, leading light and ruler of life with justice and dispensation, who shows the paths of living for all and leads the pioneers of initiative and advancement to distant lands of their choice and who, lord of the worlds of light like regent of the Sun, is the ultimate haven and home of people.
Subject
Yama
Translation
Him that went away to the advances called great, spying out the road for many, Vivasvant’s son, gatherer of people, king Yama, honor ye with oblation.
Translation
N/A
Translation
O men, worship God with devotion, Who pervades the distant parts of the Earth, preaches the right path to innumerable souls, is highly Dignified, Controller and Lord of all!
Footnote
See Rig, 10-14-1
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४९−(परेयिवांसम्) उपयिवाननाश्वाननूचानश्च। पा० ३।२।१०९। परा+इण् गतौ-क्वस्वन्तोनिपातितः। परा पराक्रमेण गतवन्तम् (प्रवतः) अ० ३।१।४। उपसर्गाच्छन्दसिधात्वर्थे। पा० ५।१।११८। इति उपसर्गात् साधने धात्वर्थे वर्तमानात् स्वार्थेवतिः प्रत्ययः। प्रकृष्टगतीः (महीः) भूमिलोकान् (इति) अस्मात् कारणात् (बहुभ्यः)सर्वलोकेभ्यः प्राणिभ्यश्च (पन्थाम्) मार्गम् (अनुपस्पशानम्) स्पशबाधनग्रन्थनग्रहणसंश्लेषणेषु कानच्। अनु निरन्तरं ग्रन्थन् प्रबध्नन् (वैवस्वतम्) तत्र विदित इति च। पा० ५।१।४३। इत्यण्, बाहुलकात्। विवस्वत्सुसूर्यलोकेषु विदितम् (संगमनम्) संगमयितारम् (जनानाम्) (यमम्) न्यायकारिणंपरमात्मानम् (राजानम्) शासकम्) (हविषा) भक्तिदानेन (सपर्यत) पूजयत ॥
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