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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शान्ति सूक्त
    19

    शं नो॑ अ॒ज एक॑पाद्दे॒वो अ॑स्तु॒ शमहि॑र्बु॒ध्न्यः शं स॑मु॒द्रः। शं नो॑ अ॒पां नपा॑त्पे॒रुर॑स्तु॒ शं नः॒ पृष्णि॑र्भवतु दे॒वगो॑पा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम्। नः॒। अ॒जः। एक॑ऽपात्। दे॒वः । अ॒स्तु॒। शम्। अहिः॑। बु॒ध्न्यः᳡। शम्। स॒मु॒द्रः। शम्। नः॒। अ॒पाम्। नपा॑त्। पे॒रुः। अ॒स्तु॒। शम्। नः॒। पृश्निः॑। भ॒व॒तु॒। दे॒वऽगो॑पा ॥११.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शमहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः। शं नो अपां नपात्पेरुरस्तु शं नः पृष्णिर्भवतु देवगोपा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम्। नः। अजः। एकऽपात्। देवः । अस्तु। शम्। अहिः। बुध्न्यः। शम्। समुद्रः। शम्। नः। अपाम्। नपात्। पेरुः। अस्तु। शम्। नः। पृश्निः। भवतु। देवऽगोपा ॥११.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    इष्ट की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (अजः) अजन्मा, (एकपात्) एक डगवाला [एकरस व्यापक], (देवः) प्रकाशमय परमात्मा (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक (अस्तु) हो, (अहिः) न मारनेवाला, (बुध्न्यः) मूल तत्त्वों में रहनेवाला [आदि कारण जगदीश्वर] (शम्) शान्तिदायक हो, (समुद्रः) यथावत् सींचनेवाला ईश्वर (शम्) शान्तिदायक हो। (अपाम्) प्रजाओं का (नपात्) न गिरानेवाला, (पेरुः) पार लगानेवाला (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक (अस्तु) हो, (देवगोपा) प्रकाशमय परमात्मा से रक्षा की गयी (पृश्निः) पूँछने योग्य प्रकृति [जगत्सामग्री] (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक (भवतु) हो ॥३॥

    भावार्थ

    जगत्पिता परमात्मा की महिमा को विचारता हुआ मनुष्य प्रकृति के संयोग को खोजकर अपनी उन्नति करे ॥३॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ३-५ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−७।३५।१३-१५ ॥ ३−(शम्) शान्तिप्रदः (नः) अस्मभ्यम् (अजः) अजन्मा जगदीश्वरः (एकपात्) सर्वं जगदेकस्मिन् पादे पादगतिप्रमाणे अंशे वा यस्य सः (देवः) प्रकाशमयः परमात्मा (अस्तु) (शम्) (अहिः) आङि श्रिहनिभ्यां ह्रस्वश्च। उ० ४।१३८। इति बाहुलकात्, नञ्+हन वधे-इण्, डित्। अहन्ता। अमारकः (बुध्न्यः) बुध्नेषु तत्त्वमूलेषु विद्यमानः (शम्) (समुद्रः) समुद्र आदित्यः, समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। सर्वसेचकः परमात्मा (शम्) (नः) (अपाम्) प्रजानाम् (नपात्) न पातयिता। सर्वदा रक्षकः (पेरुः) मीपीभ्यां रुः। उ० ४।१०१। पीङ् पाने-रु प्रत्ययः। यद्वा पा रक्षणे-रु प्रत्ययः, आकारस्य एकारः। यद्वा पार कर्मसमाप्तौ−उ प्रत्ययः आकारस्य एकारः। पानकर्ता। रक्षकः। पारयिता (अस्तु) (शम्) (नः) (पृश्निः) प्रष्टव्या प्रकृतिः। जगत्सामग्री (भवतु) (देवगोपा) देव+गुपू रक्षणे-अच्, टाप्। देवः परमेश्वरो गोपो रक्षको यस्याः सा ॥

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    विषय

    अज: एकपाद् देवः

    पदार्थ

    १. (नः) = हमारे लिए (अज:) = गति के द्वारा सब बुराइयों को दूर करनेवाला (एकपात्) = अद्वितीय गतिबाला (देव:) = प्रकाशमय सूर्य (शम्) = शान्ति दे। (अहिर्बुध्य:) = अहीन बुध्नवाला-जिसका मूल नष्ट नहीं होता-ऐसा यह वायु (शम् अस्तु) = शान्तिकर हो । (समुद्रः शम्) = यह अन्तरिक्ष का समुद्र 'मेघ' शान्ति दे। २. (अपां नपात्) = प्रजाओं को न नष्ट होने देनेवाला यह (पेरु:) = पालक अग्नि [fire] (नः शम् अस्तु) = हमारे लिए शान्तिकर हो। (देवगोपा) = देवों का रक्षण करनेवाली (पृश्नि:) = सब रसों का स्पर्श करनेवाली यह पृथिवी (नः शं भवतु) = हमारे लिए शान्तिकर हो। इस पृथ्वी पर जो भी व्यक्ति देववृत्ति के बनकर चलते हैं, यह पृथिवी उनका रक्षण करती ही है।

    भावार्थ

    'सूर्य, वायु, मेघ, अग्नि व पृथिवी' ये सब हमारे लिए शान्तिकर हों।

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    भाषार्थ

    (देवः) द्योतमान (अजः) गतिशील (एकपाद्) और अल्प रश्मियों द्वारा सौरमण्डल का रक्षक सूर्य (नः) हमें (शम् अस्तु) सुख-प्रदाता हो। (बुध्न्यः) अन्तरिक्षस्थ (अहिः) मेघ (शम्) सुखदायक हो, (समुद्रः) अन्तरिक्ष और पार्थिव समुद्र (शम्) सुखदायक हों। (अपां नपात्) विद्युत् (पेरुः) जो कि जल पिलाती है, (नः) हमें (शम्) सुखदायिका हो, (देवगोपा) परमेश्वर-देव तथा दिव्यगुणी राजा द्वारा रक्षित (पृश्निः) पृथिवी (नः) हमें (शं भवतु) सुखदायिक हो।

    टिप्पणी

    [अज एकपाद्=“अजनः” (=गमनः), एकेन१ पादेन१ पाति” (निरु० १२.३.२९), सूर्य प्रत्यक्षदृष्ट्या गतिमान् और अल्पकिरणरूपी एक पाद द्वारा सौर-मण्डल की रक्षा करता है। “अज एकपाद्” द्वारा परमेश्वर का भी ग्रहण सम्भव है। परमेश्वर अज है, अजन्मा है, और अपने एक पाद् द्वारा समग्र विश्व की रक्षा कर रहा है। यथा— “पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि” (यजुः० ३१.३), तथा “त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः” (यजुः० ३१.४)। अहिः=मेघनाम (निघं० १.१०)। बुध्नयः=बुध्नमन्तरिक्षं तन्निवासात् (निरु० १०.४.४४)। अपां नपात्= नपादित्यनन्तरायाः प्रजाया नामधेयम् (निरु० ८.२.५)। जलों की प्रजा है मेघ, और मेघ की प्रजा है विद्युत्। पेरुः=मीपीभ्यां रुः (उणा० ४.१०२)। पृश्निः=पृथिवी (तै० ब्रा० १.४.१५), तथा सायण ऋग्वेदभाष्य १.२३.१०; और (उणा० ४.५३ टिप्पणी) महर्षि दयानन्द।] [१. एक= अल्प। यथा-एकोऽन्यार्थे प्रधाने च प्रथमे केवले तथा। साधारणे समानेऽल्पे संख्यायां च प्रयुज्यते ॥ पाद= सूर्य की रश्मियों को पद अर्थात् पाद कहा है। यथा "अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि" (ऋ० १.१५४.६) ।

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    विषय

    शान्ति की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (एकपात्) समस्त स्थावर जंगम, चराचर प्राणियों को अपने चित्मय या आनन्दमय एक चरण में धारण करने वाला अथवा ‘एक’ ब्रह्मरूप से जानने योग्य (अजः) कभी उत्पन्न न होने वाला (देवः) प्रकाशमय परमेश्वर (नः शम् अस्तु) हमें शांतिदायक हो। (अहिर्बुध्न्यः) जो कभी नाश नहीं हो, वह सर्वाधार स्वरूप, सर्वाश्रय परमेश्वर (शम्) शान्ति प्रदान करे। (सम्-उद्रः) समस्त संसार का उत्पत्ति स्थान अर्थात् जैसे समस्त नदियां समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं ऐसे ही समस्त लोकों और आत्माओं के लीन होने के परमस्थान, महासमुद्र रूप परमेश्वर (शम्) हमें शान्ति प्रदान करे। (पेरुः) समस्त दुःखों से पार उतारने हारा (अपां नपात्) जलों को न गिरने देने हारा, मेघ के समान, समस्त आपोमय प्राणों को धारण करने वाला, प्रजाओं को न गिरने देने वाला, सबको जीवन प्रद परमेश्वर (नः शम्) हमें शांति दे। (देवगोपाः) समस्त देव, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ऋतु, दिन, मास, पक्ष, एवं पृथिव्यादि पांचभूत, १० इन्द्रिय, पञ्च प्राण आदि समस्त देवों का रक्षक एवं उन सबसे सुरक्षित (पृश्निः) समस्त रसों और ज्योतिर्मय पिण्डों का आश्रय, परमेश्वर (नः शम्) हमें शांति दे। अथवा एकपाद् अज=सूर्य, अहिर्बुध्न्य= वायु, समुद्र=पर्जन्य, अपां नपात्=अग्नि, पृश्नि=पृथिवी थे कल्याणकारी हों।

    टिप्पणी

    संस्पृष्टो ज्योतिर्भिः पुण्यकृद्भिश्चेति। निरु० २। ४। २॥ (द्वि०) ‘शं नो हिर्बुध्न्यः’ (च०) ‘देवगोपाः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शान्तिकामा ब्रह्मा ऋषिः। सोमो देवता । त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shanti

    Meaning

    May the eternal and unborn lord refulgent of his own absolute power be for our peace and well being. May the cloud of the sky be for our peace and well being. May the sea be for our peace and good. May the light and lightning born of and sustainer of the showers of water be for our peace. And may the earth, darling of divine forces, be for our peace and well being.

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    Translation

    May the divine unborn Lord, the one-footed (in whose one foot measure is the entire universe) bless us for our happiness; may the clouds of midspace confer happiness; may the cosmic oceans be for happiness; may the heat and electricity, born of water, be gracious, and may the midspace, the sky, guarded by divine powers, be for our happiness, (Rg. VII.35.13)

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    Translation

    May Infinite unbegotten Divinity bless us with His beatitude, may cloud moving in the atmosphere be for our will-being, May Ocean be for our benefit, may our boats in the water pleasantly sail us to our destination and may vast space as residence of the celestial bodies be auspicious for us.

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    Translation

    Let the Glorious and Birthless God, who sustains all the creation by one-fourth of His being, be gracious to us. May the Indestructible, All-sustainer God be peace-showering. May God, Who engulfs all at the time of annihilation of the universe be blissful. May the Life-supporter and EvilDestroyer God be peaceful to us. May God, Who maintains and protects all the divine beings shower peace and calmness on us.

    Footnote

    cf. Rig, 7.35.13. The verse may also mean एकपाद् अज= सूर्य (the Sun); अहिर्बुध्न्यः (the cloud in the atmosphere) समुद्र (sea) अपां नपात् (fire or electricity); पृश्नि (the earth).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ३-५ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−७।३५।१३-१५ ॥ ३−(शम्) शान्तिप्रदः (नः) अस्मभ्यम् (अजः) अजन्मा जगदीश्वरः (एकपात्) सर्वं जगदेकस्मिन् पादे पादगतिप्रमाणे अंशे वा यस्य सः (देवः) प्रकाशमयः परमात्मा (अस्तु) (शम्) (अहिः) आङि श्रिहनिभ्यां ह्रस्वश्च। उ० ४।१३८। इति बाहुलकात्, नञ्+हन वधे-इण्, डित्। अहन्ता। अमारकः (बुध्न्यः) बुध्नेषु तत्त्वमूलेषु विद्यमानः (शम्) (समुद्रः) समुद्र आदित्यः, समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। सर्वसेचकः परमात्मा (शम्) (नः) (अपाम्) प्रजानाम् (नपात्) न पातयिता। सर्वदा रक्षकः (पेरुः) मीपीभ्यां रुः। उ० ४।१०१। पीङ् पाने-रु प्रत्ययः। यद्वा पा रक्षणे-रु प्रत्ययः, आकारस्य एकारः। यद्वा पार कर्मसमाप्तौ−उ प्रत्ययः आकारस्य एकारः। पानकर्ता। रक्षकः। पारयिता (अस्तु) (शम्) (नः) (पृश्निः) प्रष्टव्या प्रकृतिः। जगत्सामग्री (भवतु) (देवगोपा) देव+गुपू रक्षणे-अच्, टाप्। देवः परमेश्वरो गोपो रक्षको यस्याः सा ॥

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