अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 56/ मन्त्र 3
ऋषिः - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
12
बृ॑ह॒द्गावासु॑रे॒भ्योऽधि॑ दे॒वानुपा॑वर्तत महि॒मान॑मि॒च्छन्। तस्मै॒ स्वप्ना॑य दधु॒राधि॑पत्यं त्रयस्त्रिं॒शासः॒ स्वरानशा॒नाः ॥
स्वर सहित पद पाठबृ॒ह॒त्ऽगावा॑। असु॑रेभ्यः। अधि॑। दे॒वान्। उप॑। अ॒व॒र्त॒त॒। म॒हि॒मान॑म् । इ॒च्छन्। तस्मै॑। स्वप्ना॑य। द॒धुः॒। आधि॑पत्यम्। त्र॒यः॒ऽत्रिं॒शासः॑। स्वः᳡। आ॒न॒शा॒नाः ॥५६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहद्गावासुरेभ्योऽधि देवानुपावर्तत महिमानमिच्छन्। तस्मै स्वप्नाय दधुराधिपत्यं त्रयस्त्रिंशासः स्वरानशानाः ॥
स्वर रहित पद पाठबृहत्ऽगावा। असुरेभ्यः। अधि। देवान्। उप। अवर्तत। महिमानम् । इच्छन्। तस्मै। स्वप्नाय। दधुः। आधिपत्यम्। त्रयःऽत्रिंशासः। स्वः। आनशानाः ॥५६.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
निद्रा त्याग का उपदेश।
पदार्थ
[जो स्वप्न] (बृहद्गावा) बड़ी गतिवाला, (महिमानम्) [अपनी] महिमा (इच्छन्) चाहता हुआ, (असुरेभ्यः अधि) असुरों [अविद्वानों] के पास से (देवान्) विद्वानों के (उप अवर्तत) पास वर्तमान हुआ है। (तस्मै स्वप्नाय) उस स्वप्न को (स्वः) सुख (आनशानाः) पा चुकनेवाले (त्रयस्त्रिंशासः) तेंतीस संख्यावाले [देवताओं] ने (आधिपत्यम्) अधिपतिपन (दधुः) दिया है ॥३॥
भावार्थ
तेंतीस देवता, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य वा महीने, एक इन्द्र वा बिजुली, और एक प्रजापति वा यज्ञ हैं [देखो अथर्व० ६।१३९।१]। भावार्थ विचारना चाहिये ॥३॥
टिप्पणी
३−(बृहद्गावा) आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। गाङ् गतौ-क्वनिप्। महागतिशीलः (असुरेभ्यः) सुरविरोधिभ्यः। अविद्वद्भ्यः (अधि) (देवान्) विदुषः पुरुषान् (उपावर्तत) समीपं प्राप्तवान् (महिमानम्) स्वप्रभावम्। (इच्छन्) कामयमानः (तस्मै) तादृशाय (स्वप्नाय) (दधुः) दत्तवन्तः (आधिपत्यम्) साम्राज्यम् (त्रयस्त्रिंशासः) सर्वेषां त्रयस्त्रिंशत्संख्यापूरणत्वात् डट्-प्रत्ययः। त्रयस्त्रिंशत्संख्याकाः। अष्टौ वसवः, एकादश रुद्राः, द्वादशादित्याः, इन्द्रः प्रजापतिश्चेति-अथर्व० ६।१३९।१। (स्वः) सुखम् (आनशानाः) अश्नोतेर्लिटः कानच्। प्राप्तवन्तः ॥
भाषार्थ
(महिमानम् इच्छन्) महिमा चाहता हुआ (बृहद्गावा) बड़ी गति अर्थात् वेगवाले स्वप्न, (असुरेभ्यः अधि) प्राणपोषणतत्पर लोगों से मानो पृथक् होकर, (देवान्) दिव्यगुणियों के (उप) पास (अवर्तत) चला गया। तब (स्वः) स्वर्गीय सुख को (आनशानाः) प्राप्त (त्रयस्त्रिंशासः) ३३ देवताओं ने (तस्मै स्वप्नाय) उस स्वप्न को (आधिपत्यम्) अधिपतिपन (दधुः) प्रदान किया।
टिप्पणी
[स्वप्न बड़ी गतिवाला है, महावेगी है, दूरंगम है। यह स्वप्न लेने वाले को क्षण में ही कहीं का कहीं पहुंचा देता है। बृहद्गावा= बृहद्+गावा (गाङ् गतौ)। कविता में स्वप्न को चेतनसा मान कर कहा है कि स्वप्न ने जब महिमा प्राप्त करनी चाही, तब यह प्राणपोषणतत्पर लोगों से पृथक् होकर देवों के पास चला गया। असुरों के स्वप्न आसुरी भावनाओं से ओतप्रोत होते हैं, तब स्वप्नों की महिमा नहीं होती। दिव्यगुणियों के स्वप्न सात्त्विक होते हैं, दिव्य गुणों वाले होते हैं, जो कि स्वर्गीय सुख तक पहुंचाने में सहायक होते हैं। इसलिये देवों ने ऐसे दिव्य स्वप्नों को अपने पर आधिपत्य का अधिकार दे दिया। जैसे ३३ देवता आधिदैविक हैं, वैसे ३३ देवता आध्यात्मिक भी हैं, जिन का कि निवास शरीर में भी है— यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे।]
विषय
'असुर व दिव्य' विविध स्वप्न
पदार्थ
१. (बृहदगावा) = [बृहत:-दुष्पवर्षान् अपि गाते]-बड़े शक्तिशाली पुरुषों को भी प्राप्त होनेवाला यह स्वप्न (असुरेभ्यः) = अपने ही प्राणों में रमण करनेवाले विलासी पुरुषों से (देवान्) = उपावर्तत देववृत्ति के पुरुषों को प्राप्त हुआ। मानो, यह स्वप्न भी (महिमानम् इच्छन्) = महत्त्व की कामनावाला हो, स्वप्न यह नहीं चाहता कि यह कहा जाए कि 'स्वप्न असुरों को ही आते हैं, सुरों को नहीं। २. त्रयस्त्रिंशास: तेतीस के तेतीस स्व: आनशाना:-स्वर्ग को व प्रकाश को व्याप्त करते हुए देव तस्मै स्वप्नाय-उस स्वप्न के लिए आधिपत्यं दधः-आधिपत्य को स्थापित करते हैं। स्वप्न को ये देव सभी का अधिपति बनाते हैं। अन्तर इतना ही है कि असुरों को आसुर [बुरे] स्वप्न आते हैं और देवों को दिव्य [उत्तम] स्वप्न आया करते हैं। स्वप्नज्ञानालम्बनं वा' इस योगसूत्र के अनुसार वे देव प्रभु का भी स्वप्न में ही तो दर्शन करते हैं। ये स्वप्न सचमुच महिमावाले होते हैं।
भावार्थ
स्वप्न असुरों व देवों दोनों को ही प्राप्त होते हैं। असुरों के स्वप्न आसुरपन को लिये हुए होते हैं तो देवों को स्वप्न दिव्यतावाले हुआ करते हैं। ये दिव्यस्वप्न भी महिमाशाली होते हैं|
विषय
विद्वान को अप्रमाद का उपदेश।
भावार्थ
(बृहद्गावा) वह विशाल गति वाला या बड़ों बड़ों को भी प्राप्त होने वाला, स्वप्न, आलस्य, प्रमाद (असुरेभ्यः अधि) केवल प्राणों में रमण करने वाले विलासी पुरुषों से चलकर (देवान्) ज्ञानवान्, इन्द्रियों पर विजयशील, जितेन्द्रिय पुरुषों को भी मानो (महिमानम् इच्छन्) उनपर भी महत्व, अपना या प्रभुत्व चाहता हुआ (उप अवर्तत) प्राप्त होता है। वे (त्रयस्त्रिंशासः) तैंतीसों देवता जो (स्वः आनशानाः) सुखका या प्रकाश का भी भोग करते होते हैं वे भी (तस्मै) उस (स्वप्नाय) ‘स्वप्न’ वृत्ति को ही (आधिपत्यं) आधिपत्य प्रभुत्व (श्रादधुः) प्रदान करते हैं।। अर्थात् अध्यात्म में वह निद्रा कर्मेन्द्रियों की थकावट से उत्पन्न होकर देव अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों पर भी आ जाता है। शरीर के तैंतीसों तत्व सुख को भोग करते हुए स्वप्न के वश होजाते हैं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘बृहद् ग्रावा' इति क्वचित्। ‘बृहद् गवो’ इति शं० पा० अनुमितः। ‘बृहंग्रावासु’ इति पैप्प० सं०। (द्वि०) उपावर्तस्व इति क्वचित्। ‘ऋच्छन्’ इति पैप्प० सं०। ‘त्रयस्त्रिंशाः। सः। स्व-’ इति क्वचित् पदपाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यमऋषिः। दुःखनाशनो देवता। त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svapna
Meaning
The man of unbounded sense and imagination came from the demonic tendencies close to the divinities in search of greatness and glory. The thirty-three divinities enjoying heavenly bliss and potential blessed him with full mastery over the realisation of his dream.
Translation
Like a huger stone; desirous óf greatness, from the ‘life: destroyers he crossed over to the enlightened ones. To that dream, the thirty-three enlightened ones, dwelling in the World of light, granted the supreme domination.
Translation
May the knower of all the disease and applier of preventive measures see it before the emergence of night or in the day, therefore, this dream concealing its form the physicians overcomes this living system.
Translation
The state of unconsciousness, wherein the patient speaks aloud, has come to the self-controlled persons from those who revel in pleasures of life, wishing to attain its grandeur. The thirty-three divinities, enjoying happiness and calmness, have given predominance to this state of laziness or lassitude.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(बृहद्गावा) आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। गाङ् गतौ-क्वनिप्। महागतिशीलः (असुरेभ्यः) सुरविरोधिभ्यः। अविद्वद्भ्यः (अधि) (देवान्) विदुषः पुरुषान् (उपावर्तत) समीपं प्राप्तवान् (महिमानम्) स्वप्रभावम्। (इच्छन्) कामयमानः (तस्मै) तादृशाय (स्वप्नाय) (दधुः) दत्तवन्तः (आधिपत्यम्) साम्राज्यम् (त्रयस्त्रिंशासः) सर्वेषां त्रयस्त्रिंशत्संख्यापूरणत्वात् डट्-प्रत्ययः। त्रयस्त्रिंशत्संख्याकाः। अष्टौ वसवः, एकादश रुद्राः, द्वादशादित्याः, इन्द्रः प्रजापतिश्चेति-अथर्व० ६।१३९।१। (स्वः) सुखम् (आनशानाः) अश्नोतेर्लिटः कानच्। प्राप्तवन्तः ॥
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