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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
    22

    यत्पुरु॑षं॒ व्यद॑धुः कति॒धा व्यकल्पयन्। मुखं॒ किम॑स्य॒ किं बा॒हू किमू॒रू पादा॑ उच्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। पुरु॑षम्। वि। अद॑धुः। क॒ति॒ऽधा। वि। अ॒क॒ल्प॒य॒न्। मुख॑म्। किम्। अ॒स्य॒। किम्। बा॒हू इति॑। किम्। ऊ॒रू इति॑। पादौ॑। उ॒च्ये॒ते॒ इति॑ ॥६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य किं बाहू किमूरू पादा उच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। पुरुषम्। वि। अदधुः। कतिऽधा। वि। अकल्पयन्। मुखम्। किम्। अस्य। किम्। बाहू इति। किम्। ऊरू इति। पादौ। उच्येते इति ॥६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टिविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (पुरुषम्) पुरुष [परिपूर्ण परमात्मा] को (वि) विविध प्रकार से (अदधुः) उन [विद्वानों] ने धारण किया, (कतिधा) कितने प्रकार से [उसको] (वि) विशेष करके (अकल्पयन्) उन्होंने माना। (अस्य) इस [पुरुष] का (मुखम्) मुख (किम्) क्या [कहा जाता है], (बाहू) दोनों भुजाएँ (किम्) क्या, (ऊरू) दोनों घुटने और (पादौ) दोनों पाँव (किम्) क्या (उच्येते) कहे जाते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग परमात्मा के सामर्थ्यों को विचारते हुए कल्पना करें, जैसे मनुष्य के मुखादि अङ्ग शरीर की पुष्टि करते हैं, वैसे ही इस बड़ी सृष्टि में धारण-पोषण के लिये ऐसे बड़े परमात्मा के मुख के समान श्रेष्ठ, भुजाओं के समान बल को धारण करनेवाला, घुटनों के समान सबके बीच में व्यवहार करनेवाला और पाँवों के समान चल-फिर के सेवा करनेवाला कौन है ? इसका उत्तर अगले मन्त्र में है ॥५॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।११ और यजुर्वेद ३१।१० ॥ ५−(यत्) यदा (पुरुषम्) म० १। पूर्णं परमात्मानम् (वि) विविधम् (अदधुः) धारितवन्तः। समाहितवन्तः (कतिधा) कतिभिः प्रकारैः (वि) विशेषेण (अकल्पयन्) कल्पितवन्तः। निश्चितवन्तः (मुखम्) मुखस्थानीयं श्रेष्ठम् (किम्) (अस्य) पुरुषस्य (किम्) (बाहू) भुजाविव बलेन धारकः (किम्) (ऊरू) जङ्घे यथा सर्वमध्ये व्यवहारसाधकः (पादौ) पादाविव गमनागमनेन सेवाशीलः (उच्येते) कथ्येते ॥

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    विषय

    प्रभु का धारण

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब साधनामय जीवनवाले पुरुष (पुरुषम्) = उस परमपुरुष प्रभु को (व्यदधुः) = अपने में विशेष रूप से धारण करते हैं तब वे (कतिधा) = कितने प्रकार से (व्यकल्पयन्) = अपने को विशिष्ट सामर्थ्यवाला बनाते हैं। प्रभु का धारण करनेवाला प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर असामान्य शक्तिवाला हो जाता है। २. (अस्य) = इस प्रभु के धारण करनेवाले का (मुखं किम्) = मुख क्या बन जाता है? सामान्य व्यक्ति व इस साधक के मुख में क्या अन्तर होता है? (किं बाह) = इसकी बाहुएँ (किम् उच्यते) = क्या कही जाती है? (उरू किम्) = जाँ क्या कही जाती है? और इसीप्रकार (पादा:) = इसके पाँव [किम् उच्यते] क्या कहे जाते हैं, अर्थात् इस साधक के मुख, भुजाओं, जाँघों व पाँवों की क्रियाओं में क्या अन्तर आ जाता है? प्रभु के धारण से इसके अंगों में क्या विशेषता उत्पन्न होती है?

    भावार्थ

    जिज्ञासु प्रश्न करता है कि साधक के अंगों में प्रभु के धारण से किस अद्भत् शक्ति का प्रादुर्भाव होता है? प्रश्न का उत्तर अगले मन्त्र में देते हैं।

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    भाषार्थ

    हे विद्वानों! (यत्) जो तुम (पुरुषम्) पूर्ण परमेश्वर को (व्यदधुः) हृदयों में विशेषरूप से धारण करते हो, उसके सम्बन्धवाली सृष्टि में तुम (कतिधा) कितने प्रकार की (व्यकल्पयन्) विशिष्ट कल्पनाएँ करते हो? अर्थात् (अस्य) इस परमेश्वर की सृष्टि में (मुखम्) मुख के समान श्रेष्ठ (किम्) कौन कहा जाता हैं? (बाहू) भुजबल का धारण करनेवाला (किम्) कौन कहा जाता हैं? (उरू, पादा=पादौ) जंघाओं के कार्य करनेवाले, और पावों के समान निचले (किम्) कौन (उच्येते) कहे जाते हैं? [महर्षि दयानन्दभाष्य, यजुर्वेद ३१.१० के आधार पर अर्थ किया है।]

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    विषय

    महान् पुरुष का वर्णन।

    भावार्थ

    (यत्) जो विद्वान् ज्ञानी पुरुष (पुरुषम्) उस महान् पूर्ण पुरुष का (वि अदधुः) विधान करते हैं, विशेष रूप से प्रतिपादन करते हैं उसको उन्होंने (कतिधा) भला कितने प्रकार से (वि, अकल्पयन्) विविध रूपों में कल्पित किया है विभक्त किया है ? (अस्य) इसके (मुखम् किम्) मुख क्या पदार्थ है। (बाहू किम्) बाहुए क्या हैं (ऊरू किम्) जांघें क्या पदार्थ हैं और (पादौ) उसके पैर भाग क्या (उच्येते) कहे जाते हैं ?

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘मुखं किमस्यासीत् कि’ इति यजु०। ‘कौबाहू’ इति ऋ० । ‘काबूरु’ इति तै० आ० ‘पादावुच्यते’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुरुषसूक्तम्। नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। अनुष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Purusha, the Cosmic Seed

    Meaning

    How do the visionary sages visualise the self- manifestive modes of Purusha in the world of existence? What is Its mouth? What the arms? What the thighs? What the feet as they may be said to be?

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    Translation

    When they formed Purusa (cosmic man), ín how many parts did they fashion Him. What was His mouth, what the two arms, what the two thighs; and what were His feet? (Yv. XXXI.10. Vari.)

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    Translation

    when the natural and ultranatural forces devided Purusha. the social structure how many divisions they did make ? What was like the mouth what were the arms, what were thighs and what were called the feet of this social order.

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    Translation

    When the learned persons make expositions about the All-pervading God, in how many forms have they thought of Him. What has been described by them as His mouth, what, His arms, and what. His thighs and feet?

    Footnote

    The Omnipresent and Omniscient Creator has no body and hence no limbs. In the figurative language here in the verse, He is imagined to be embodied in all humanity, whose limbs are being questioned to be described later on in the next verse, cf. Rig, 10.90.11, Yajur, 31.10.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।११ और यजुर्वेद ३१।१० ॥ ५−(यत्) यदा (पुरुषम्) म० १। पूर्णं परमात्मानम् (वि) विविधम् (अदधुः) धारितवन्तः। समाहितवन्तः (कतिधा) कतिभिः प्रकारैः (वि) विशेषेण (अकल्पयन्) कल्पितवन्तः। निश्चितवन्तः (मुखम्) मुखस्थानीयं श्रेष्ठम् (किम्) (अस्य) पुरुषस्य (किम्) (बाहू) भुजाविव बलेन धारकः (किम्) (ऊरू) जङ्घे यथा सर्वमध्ये व्यवहारसाधकः (पादौ) पादाविव गमनागमनेन सेवाशीलः (उच्येते) कथ्येते ॥

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