अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - प्राणः, अपानः, आयुः
छन्दः - एदपदासुरीत्रिष्टुप्
सूक्तम् - बल प्राप्ति सूक्त
31
ओजो॒ऽस्योजो॑ मे दाः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठओज॑: । अ॒सि॒ । ओज॑: । मे॒ । दा॒: । स्वाहा॑ ॥१७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ओजोऽस्योजो मे दाः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठओज: । असि । ओज: । मे । दा: । स्वाहा ॥१७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आयु बढ़ाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
[हे ईश्वर] तू (ओजः) शारीरिक सामर्थ्य (असि) है, (मे) मुझे (ओजः) शारीरिक सामर्थ्य (दाः=दद्याः) दे, (स्वाहा) यह सुन्दर आशीर्वाद हो ॥१॥
भावार्थ
(ओजः) बल और प्रकाश का नाम है। वैद्यक में रसादि सात धातुओं से उत्पन्न, आठवें धातु शरीर के बल और पुष्टि के कारण और ज्ञानेन्द्रियों की नीरोगता को (ओजः) कहते हैं। जैसे (ओजः) हमारे शरीरों के लिये है, वैसे ही परमात्मा सब ब्रह्माण्ड के लिये है, ऐसा विचारकर मनुष्यों को शारीरिक शक्ति बढ़ानी चाहिये ॥१॥ इस सूक्त का पाठ यजुर्वेद के पाठ से प्रायः मिलता है–अ० १९।९। तेजो॑ऽसि॒ तेजो॒ मयि॑ धेहि। वी॒र्य॒मसि वीर्यं॑ मयि॑ धेहि। बल॑मसि॒ बलं॒ मयि॑ धेहि। ओजो॒ऽस्योजो॒ मयि॑ धेहि। म॒न्युर॑सि म॒न्युं मयि॑ धेहि। सहो॑ऽसि॒ सहो॒ मयि॑ धेहि ॥१॥ तू तेज है, मुझमें तेज धारण कर–इत्यादि ॥
टिप्पणी
१–ओजः। अ० १।१२।१। ओज बले, तेजसि–असुन्। बलम्। प्रकाशः। वैद्यके रसादिसप्तधातुसारजधातुविशेषः शरीरस्य बलपुष्टिकारणम्। ज्ञानेन्द्रियाणां पाटवम्। मे। मह्यम्। दाः। त्वं दद्याः, देयाः ॥
विषय
ओजस्
पदार्थ
१. गतसूक्त के अन्तिम मन्त्र में प्रभु को 'विश्वम्भर' कहा था-सब शक्तियों का भरण करनेवाला। उस विश्वम्भर से प्रार्थना करते हैं कि-(ओजः असि) = आप ओज हो, (मे) = मेरे लिए भी (ओज: दा:) = इस ओज को दीजिए। (स्वाहा) = [सु+आइ] मेरी वाणी सदा यही शुभ प्रार्थना करनेवाली हो। २. 'ओजस्'वह शक्ति है जो सब प्रकार की वृद्धि का कारण बनती है [ओज to increase]| इस ओज को प्राप्त करके मैं वृद्धि के मार्ग पर आगे बढ़ें।
भावार्थ
प्रभु ओज के पुञ्ज हैं। मैं भी प्रभु को इस रूप में स्मरण करता हुआ ओजस्वी बनें।
भाषार्थ
(ओजः असि) तू ओजस् रूप है, (मे) मुझे (ओजः) ओजस् ( दा:) प्रदान कर, (स्वाहा) सु आह।
टिप्पणी
[सूक्त में कोई दैवतनाम नहीं। पूर्व सूक्त से विश्वम्भर पद का अन्वय जानना चाहिए। ओजस् है उब्ज आर्जवे (तुदादि:), वह शक्ति जिसे देखते शत्रु ऋजु हो जाता है, और शत्रुता को त्याग देता है।]
विषय
ओज, सहनशीलता, बल, आयु और इन्द्रियों की प्रार्थना।
भावार्थ
हे परमात्मन् ! (ओजः) आप ओज, कान्ति और तेजःस्वरूप हैं। आप (मे) मुझे (ओजः) कान्ति, ओज (दाः) दें । (स्वाहा) यह मेरी उत्तम प्रार्थना है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । प्राणापानौ वायुश्च देवताः । १-६ एकावसाना आसुर्यस्त्रिष्टुभः । ७ आसुरी उष्णिक् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Elan Vital at the Full
Meaning
You are the life and lustre of existence. Give me the lustre of life. This is the voice of truth in faith.
Subject
Ojas
Translation
You are endeavour (ojas). May you bestow endeavour on me. Svāhā.
Translation
O God! Thou art power, give me power. What a beautiful utterance.
Translation
O God, Power art Thou, give me power! This is my humble prayer.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१–ओजः। अ० १।१२।१। ओज बले, तेजसि–असुन्। बलम्। प्रकाशः। वैद्यके रसादिसप्तधातुसारजधातुविशेषः शरीरस्य बलपुष्टिकारणम्। ज्ञानेन्द्रियाणां पाटवम्। मे। मह्यम्। दाः। त्वं दद्याः, देयाः ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ওজঃ অসি) তুমি ওজঃ স্বরূপ, (মে) আমাকে (ওজঃ) ওজঃ (দাঃ) প্রদান করো, (স্বাহা) সু আহ।
टिप्पणी
[সূক্তে কোনো দৈবতনাম নেই। পূর্ব সূক্ত থেকে বিশ্বম্ভর পদের অন্বয় জানা উচিত। ওজস্ হল উব্জ আর্জবে (তুদাদি), সেই শক্তি যা দেখে শত্রু ঋজু হয়ে যায় এবং শত্রুতা ত্যাগ করে দেয়।]
मन्त्र विषय
আয়ুর্বর্ধনায়োপদেশঃ
भाषार्थ
[হে ঈশ্বর] তুমি (ওজঃ) শারীরিক সামর্থ্য (অসি) হও, (মে) আমাকে (ওজঃ) শারীরিক সামর্থ্য (দাঃ=দদ্যাঃ) প্রদান করঝ, (স্বাহা) এই সুন্দর আশীর্বাদ হোক ॥১॥
भावार्थ
(ওজঃ) বল ও প্রকাশের নাম। বৈদ্যক এ রসাদি সাতটি ধাতু থেকে উৎপন্ন, অষ্টম ধাতু শরীরের বল ও পুষ্টির কারণ এবং জ্ঞানেন্দ্রিয়ের নীরোগতাকে (ওজঃ) বলে। যেমন (ওজঃ) আমাদের শরীরের জন্য, তেমনিই পরমাত্মা সকল ব্রহ্মাণ্ডের জন্য, এমনটা বিচার করে মনুষ্যদের শারীরিক শক্তি বৃদ্ধি করা উচিত ॥১॥ এই সূক্তের পাঠ যজুর্বেদের পাঠের সাথে প্রায় মিলে যায়–অ০ ১৯।৯। তেজো॑ঽসি॒ তেজো॒ ময়ি॑ ধেহি। বী॒র্য॒মসি বীর্যং॑ ময়ি॑ ধেহি। বল॑মসি॒ বলং॒ ময়ি॑ ধেহি। ওজো॒ঽস্যোজো॒ ময়ি॑ ধেহি। ম॒ন্যুর॑সি ম॒ন্যুং ময়ি॑ ধেহি। সহো॑ঽসি॒ সহো॒ ময়ি॑ ধেহি ॥১॥ তুমি তেজ, আমার মধ্যে তেজ ধারণ করো–ইত্যাদি ॥
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