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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - यक्षविबर्हणम्(पृथक्करणम्) चन्द्रमाः, आयुष्यम् छन्दः - अनुष्टुप्, चतुष्पाद्भुरिगुष्णिक् सूक्तम् - यक्षविबर्हण
    12

    आ॒न्त्रेभ्य॑स्ते॒ गुदा॑भ्यो वनि॒ष्ठोरु॒दरा॒दधि॑। यक्ष्मं॑ कु॒क्षिभ्या॑म्प्ला॒शेर्नाभ्या॒ वि वृ॑हामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒न्त्रेभ्य॑: । ते॒ । गुदा॑भ्य: । व॒नि॒ष्ठो: । उ॒दरा॑त् । अधि॑ । यक्ष्म॑म् । कु॒क्षिऽभ्या॑म् । प्ला॒शे: । नाभ्या॑: । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥३३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोरुदरादधि। यक्ष्मं कुक्षिभ्याम्प्लाशेर्नाभ्या वि वृहामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आन्त्रेभ्य: । ते । गुदाभ्य: । वनिष्ठो: । उदरात् । अधि । यक्ष्मम् । कुक्षिऽभ्याम् । प्लाशे: । नाभ्या: । वि । वृहामि । ते ॥३३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शारीरिक विषय में शरीररक्षा।

    पदार्थ

    (ते) तेरी (आन्त्रेभ्यः) आँतों से, (गुदाभ्यः) गुदा की नाड़ियों से, (वनिष्ठोः) वनिष्ठु [भीतरी मलस्थान] से, (उदरात् अधि) उदर में से और (ते) तेरी (कुक्षिभ्याम्) दोनों कोखों से, (प्लाशेः) कोख में की थैली से और (नाभ्याः) नाभि से (यक्ष्मम्) क्षयी रोग को (वि वृहामि) मैं उखाड़े देता हूँ ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उदर के अवयवों का वर्णन है। भावार्थ मन्त्र १ के समान है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४–आन्त्रेभ्यः। अ० १।३।६। भ्रस्जिगमिनमि०। उ० ४।१६०। इति अति बन्धने–ष्ट्रन्। उदरनाडीविशेषेभ्यः। पुरीतद्भ्यः। गुदाभ्यः। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति गुद खेलने–क। टाप्। गोदते खेलति चलति अपानवायुर्यया। मलत्यागनाडीभ्यः। वनिष्ठोः। वन संभक्तौ–ओणादिक इष्ठुप् प्रत्ययः। स्थूलान्त्रात्। उदरात्। उदि दृणातेरलचौ पूर्वपदान्त्यलोपश्च। उ० ५।१९। इति उद्+दृ विदारे–अच्। उपसर्गस्य दलोपः। नाभिस्तनयोर्मध्यभागात्। जठरात्। कुक्षिभ्याम्। प्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। उ० ३।१५५। इति कुष निष्कर्षे–क्सि। दक्षिणोत्तरोदरभागाभ्याम्। प्लाशेः। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति प्र+अशू व्याप्तौ–इञ्, रस्य लः। बहुच्छिद्रात् मलपात्रात्–इति सायणः [Mesentery–Griffith.]। शिश्नात्, यथा महीधरः–यजु० १९।८७। कुक्षिस्थनाडीविशेषात्। नाभ्याः। अ० १।१३।३। उदरावर्तात्। नाभिमण्डलात्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    आन्त्र आदि से रोग का दूर करना

    पदार्थ

    १. (ते) = तेरी (आन्त्रेभ्य:) = आँतों से (गदाभ्यः) = गुदा से-मल-मूत्र-प्रवहण मार्गों से (वनिष्ठो:) = स्थविरान्त्र से [मलस्थान से], (उदरात् अधि) = सर्वाधारभूत जठर से (यक्ष्मम्) = रोग को (विवहामि) = पृथक् करता हूँ। २. (कुक्षिभ्याम्) = दक्षिण व उत्तर उदर-भागों से [दाएँ-बाएँ पासे से] (प्लाशे:) = बहुछिद्र मलपात्र से [अन्दर की थैली से] और (नाभ्या:) = नाभि से (ते) = तेरे (यक्ष्मम्) = रोगों को (विवृहामि) = निकाल फेंकता हूँ।

    भावार्थ

    आन्त्र आदि प्रदेशों से रोग-बीजों को दूर किया जाए।

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    भाषार्थ

    (आन्त्रेभ्यः) आंतों से, (ते) तेरी (गुदाभ्यः) आंतों के समीपस्थ मल-मूत्र के प्रवहन मार्गों से, (वनिष्ठोः) स्थूलान्त्र से, (उदरात् अधि) उदर से, (कुक्षिभ्याम्) दोनों कोखों से, (प्लाशेः) प्लाशि से, (नाभ्याः) नाभि से (ते यक्ष्म) तेरे यक्ष्मा रोग को (वि वृहामसि) हम निकाल देते हैं।

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    विषय

    देह के अङ्गों से रोग नाश करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    (ते आन्त्रेभ्यः) तेरी आंतों से, (गुदाभ्यः) गुदाओं से, (वनिष्ठोः) स्थूल आंतों से, (उदराद् अधि) और उदर अर्थात् आमाशय से (कुक्षिभ्यां) दोनों कोखों से, (प्लाशेः) मलाशय से और (नाभ्याः) तेरी नाभि से (यक्ष्मं वि वृहामि) रोग को दूर करता हूं ।

    टिप्पणी

    ‘यक्ष्मं श्रोणिभ्यां भासदाद् भंससो विवृहामि ते’ इत्युत्तरार्धे पाठभेदः। (तृ०) ‘कुक्षिभ्यां पाण्योः’ (च०) ‘वृहामसि’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। यक्ष्मविवर्हणं चन्द्रमा वा देवता। आयुष्यं सूक्तम्। १, २ अनुष्टुभौ । ३ ककुम्मती। ४ चतुष्पदा भुरिग् उष्णिक्। ५ उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ६ उष्णिग् गर्भा निचृदनुष्टुप्। ७ पथ्या पंङ्क्तिः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Uprooting the Cancerous

    Meaning

    I remove and uproot the consumptive, cancerous disease from your intestines, anal area, colon, stomach, flanks, lower abdomen and navel area.

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    Translation

    Out of your intestines (antra),out of your guts (gūdā),out of your bowels (vanistha),out of your abdomen (udara),out of your two flanks (kuksi),out of your mesentery (plāša),and out of your naval (nabhi),I pluck off your wasting disease.

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    Translation

    I, the physician extirpate tubercular affect bowels and intertines, from your rectum and from your belly, from your flanks, navels and from your mesentery.

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    Translation

    From bowels and intestines, from the rectum and the belly, I extirpate thy consumption, from flanks, mesentery and navel.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४–आन्त्रेभ्यः। अ० १।३।६। भ्रस्जिगमिनमि०। उ० ४।१६०। इति अति बन्धने–ष्ट्रन्। उदरनाडीविशेषेभ्यः। पुरीतद्भ्यः। गुदाभ्यः। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति गुद खेलने–क। टाप्। गोदते खेलति चलति अपानवायुर्यया। मलत्यागनाडीभ्यः। वनिष्ठोः। वन संभक्तौ–ओणादिक इष्ठुप् प्रत्ययः। स्थूलान्त्रात्। उदरात्। उदि दृणातेरलचौ पूर्वपदान्त्यलोपश्च। उ० ५।१९। इति उद्+दृ विदारे–अच्। उपसर्गस्य दलोपः। नाभिस्तनयोर्मध्यभागात्। जठरात्। कुक्षिभ्याम्। प्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। उ० ३।१५५। इति कुष निष्कर्षे–क्सि। दक्षिणोत्तरोदरभागाभ्याम्। प्लाशेः। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति प्र+अशू व्याप्तौ–इञ्, रस्य लः। बहुच्छिद्रात् मलपात्रात्–इति सायणः [Mesentery–Griffith.]। शिश्नात्, यथा महीधरः–यजु० १९।८७। कुक्षिस्थनाडीविशेषात्। नाभ्याः। अ० १।१३।३। उदरावर्तात्। नाभिमण्डलात्। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (আন্ত্রেভ্যঃ) অন্ত্রসমূহ থেকে, (তে) তোমার (গুদাভ্যঃ) অন্ত্রের সমীপস্থ মল মূত্রের প্রবহন মার্গ থেকে, (বনিষ্ঠোঃ) স্থূলান্ত্র থেকে, (উদরাৎ অধি) উদর থেকে, (কুক্ষিভ্যাম্) দুই কুক্ষি থেকে, (প্লাশেঃ) প্লাশি/গর্ভাশয় থেকে, (নাভ্যাঃ) নাভি থেকে (তে যক্ষ্ম) তোমার যক্ষ্মরোগকে (বি বৃহামসি) আমি নিষ্কাশিত করি।

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    मन्त्र विषय

    শারীরিকবিষয়ে শরীররক্ষা

    भाषार्थ

    (তে) তোমার (আন্ত্রেভ্যঃ) অন্ত্রসমূহ থেকে, (গুদাভ্যঃ) মলদ্বারের নাড়ি থেকে, (বনিষ্ঠোঃ) বনিষ্ঠু [অভ্যন্তরীণ মলস্থান] থেকে, (উদরাৎ অধি) উদর থেকে এবং (তে) তোমার (কুক্ষিভ্যাম্) কুক্ষিদ্বয় থেকে, (প্লাশেঃ) গর্ভাশয় থেকে এবং (নাভ্যাঃ) নাভি থেকে (যক্ষ্মম্) ক্ষয়ী রোগকে (বি বৃহামি) আমি পৃথক/উৎপাটিত করি ॥৪॥

    भावार्थ

    এই মন্ত্রে উদরের অবয়বের বর্ণনা হয়েছে। ভাবার্থ মন্ত্র ১ এর সমান ॥৪॥

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