अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 107/ मन्त्र 2
ओज॒स्तद॑स्य तित्विष उ॒भे यत्स॒मव॑र्तयत्। इन्द्र॒श्चर्मे॑व॒ रोद॑सी ॥
स्वर सहित पद पाठओज॑: । तत् । अ॒स्य॒ । ति॒त्वि॒षे॒ । उ॒भे इति॑ । यत् । स॒म्ऽअव॑र्तयत् ॥ इन्द्र॑: । चर्म॑ऽइव। रोद॑सी॒ इति॑ ॥१०७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ओजस्तदस्य तित्विष उभे यत्समवर्तयत्। इन्द्रश्चर्मेव रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठओज: । तत् । अस्य । तित्विषे । उभे इति । यत् । सम्ऽअवर्तयत् ॥ इन्द्र: । चर्मऽइव। रोदसी इति ॥१०७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अस्य) इस [परमेश्वर] का (ओजः) बल (तत्) तब (तित्विषे) प्रकाशित हुआ, (यत्) जब (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और भूमि को (चर्म इव) चमड़े के समान (समवर्तयत्) यथाविधि वर्तमान किया ॥२॥
भावार्थ
जैसे कोई चमड़े को कमाकर ठीक करता है, वैसे ही परमात्मा परमाणुओं के संयोग-वियोग से सृष्टि बनाता है, तब उसकी महिमा प्रकट होती है ॥२॥
टिप्पणी
२−(ओजः) बलम् (तत्) तदा (अस्य) परमेश्वरस्य (तित्विषे) त्विष दीप्तौ-लिट्। दिदीपे (उभे) (यत्) यदा (समवर्तयत्) यथाविधि वर्तितवान् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (चर्म) (इव) यथा (रोदसी) आकाशभूमी ॥
विषय
ज्ञान+शक्ति-ओजस्विता
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (चर्म इव) = चर्म की भाँति (यत्) = जब (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी को (समवर्तयत्) = ओढ़ [Wrap up] लेता है, अर्थात् मस्तिष्करूप द्युलोक तथा शरीररूप पृथिवीलोक दोनों का धारण करता है, (तत्) = तब (अस्य ओज:) = इस जितेन्द्रिय पुरुष का ओज [शक्ति] (तित्विषे) = चमक उठता है। २. ओजस्विता केवल शरीर की शक्ति से नहीं, अपितु मस्तिष्क का ज्ञान होने पर भी चमकती है। शरीर की शक्ति व मस्तिष्क का ज्ञान' दोनों के ही धारण की आवश्यकता है। ये दोनों सम्मिलितरूप से धारण किये जाने पर इस रूप में हमारे रक्षक होते हैं, जैसे कि एक ढाल [चर्म]। जैसे एक योद्धा ढाल के द्वारा अपने को शत्रु के प्रहार से बचाता है, इसप्रकार उपासक को 'शक्ति व ज्ञान' रोग व वासनारूप शत्रुओं से बचाते हैं।
भावार्थ
शरीर की शक्ति व मस्तिष्क का ज्ञान-दोनों को सम्मिलितरूप से धारण करने पर हम ओजस्वी बनते हैं। यह ओजस्विता ही हमारा रक्षण करनेवाली ढाल बनती है।
भाषार्थ
(अस्य) इस परमेश्वर का (तत्) वह प्रसिद्ध (ओजः) पराक्रम (तित्विषे) चमकता है, (यत्) जब कि (इन्द्रः) परमेश्वर (रोदसी) द्युलोक और भूलोक—(उभे) इन दोनों को, प्रलय काल में, (सम् अवर्तयत्) आसानी से लपेट लेता है, (इव) जैसे कि कोई (चर्म) मृगछाला को लपेट लेता है।
विषय
परमेश्वर।
भावार्थ
(चर्म इव) जिस प्रकार चमड़े या मृगछाला को कोई जब चाहे बिछा देता और जब चाहे लपेट लेता है उसी प्रकार (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (यत्) जो (उभे रोदसी) पृथ्वी और आकाश दोनों लोकों को (सम् अवर्तयत्) बनाता है। (तत्) वह (अस्य) इस परमेश्वर का (ओजः) महान् पराक्रम ही (तित्विषे) चमक रहा है, स्पष्ट प्रतीत होता है। अर्थात् पृथ्वी आकाश आदि का सुगमता से पैदा होना और बने रहना यह ईश्वरी शक्ति का विलास है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१-३ वत्सः, ४-१२ बृहद्दिवोऽथर्वा, १३-१४ ब्रह्मा, १५ कुत्सः। देवता—१-१२ इन्द्र, १३-१५ सूर्यः। छन्दः—१-३ गायत्री, ४-१२,१४,१५ त्रिष्टुप, १३ आर्षीपङ्क्ति॥
इंग्लिश (4)
Subject
Agni Devata
Meaning
When Indra, Lord Almighty, pervades and envelops both heaven and earth in the cover of light, the light that shines is only the lord’s divine splendour that blazes with glory.
Translation
The power of Almighty God shines brightly when he brings together the heaven and earth (in their respective place) like a skin.
Translation
The power of Almighty God shines brightly when he brings together the heaven and earth (in their respective place) like a skin.
Translation
Just as a king breaks the head of the wicked person, who strikes terror in the hearts of the general people, with his deadly weapon of hundred parts, similarly does the Mighty God shatters forces of evil and ignorance, agitating the world with His strong and deadly means of destruction, working in hundreds of ways.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(ओजः) बलम् (तत्) तदा (अस्य) परमेश्वरस्य (तित्विषे) त्विष दीप्तौ-लिट्। दिदीपे (उभे) (यत्) यदा (समवर्तयत्) यथाविधि वर्तितवान् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (चर्म) (इव) यथा (रोदसी) आकाशभूमी ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
১-১২ পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(অস্য) এই [পরমেশ্বরের] (ওজঃ) বল (তৎ) তখন (তিত্বিষে) প্রকাশিত হয়/হল/হয়েছে, (যৎ) যখন (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান পরমাত্মা] (উভে) উভয় (রোদসী) আকাশ এবং ভূমিকে (চর্ম ইব) চর্মের সমান (সমবর্তয়ৎ) যথাবিধি বর্তমান করেছেন॥২॥
भावार्थ
যেমন কোনো চমড়াকে কমিয়ে ঠিক করা হয়, তেমনই পরমাত্মা পরমাণুর সংযোগ-বিয়োগ দ্বারা সৃষ্টি রচনা করেন, তখন পরমেশ্বরের মহিমা প্রকট হয়॥২॥
भाषार्थ
(অস্য) এই পরমেশ্বরের (তৎ) সেই প্রসিদ্ধ (ওজঃ) পরাক্রম (তিত্বিষে) চমকিত/প্রদীপ্ত হয়, (যৎ) যখন (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (রোদসী) দ্যুলোক এবং ভূলোক—(উভে) এই উভয়কে, প্রলয় কালে, (সম্ অবর্তয়ৎ) সহজে আবর্তিত করেন, (ইব) যেমন কোনো (চর্ম) মৃগচর্ম জড়িয়ে নেওয়া হয়।
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