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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अत्रिः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२
    15

    ऋ॑जी॒षी व॒ज्री वृ॑ष॒भस्तु॑रा॒षाट्छु॒ष्मी राजा॑ वृत्र॒हा सो॑म॒पावा॑। यु॒क्त्वा हरि॑भ्या॒मुप॑ यासद॒र्वाङ्माध्य॑न्दिने॒ सव॑ने मत्स॒दिन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒जी॒षी । व॒ज्री । वृ॒ष॒भ: । तु॒रा॒षाट् । शु॒ष्मी । राजा॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । सो॒म॒ऽपावा॑ ॥ यु॒क्त्वा । हर‍ि॑ऽभ्याम् । उप॑ । या॒स॒त् । अ॒र्वाङ् । माध्यं॑दिने । सव॑ने । म॒त्स॒त् । इन्द्र॑: ॥१२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋजीषी वज्री वृषभस्तुराषाट्छुष्मी राजा वृत्रहा सोमपावा। युक्त्वा हरिभ्यामुप यासदर्वाङ्माध्यन्दिने सवने मत्सदिन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋजीषी । वज्री । वृषभ: । तुराषाट् । शुष्मी । राजा । वृत्रऽहा । सोमऽपावा ॥ युक्त्वा । हर‍िऽभ्याम् । उप । यासत् । अर्वाङ् । माध्यंदिने । सवने । मत्सत् । इन्द्र: ॥१२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 12; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऋजीषी) महाधनी, (वज्री) वज्रधारी [शस्त्र-अस्त्रोंवाला], (वृषभः) बलवान्, (तुराषाट्) हिंसक शत्रुओं का हरानेवाला, (शुष्मी) बलवान् सेनावाला, (राजा) राजा, (वृत्रहा) वैरियों का मारनेवाला, (सोमपावा) सोम [महौषधियों के रस] का पीनेवाला (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी सेनापति] (हरिभ्याम्) दो घोड़ों से [रथ को] (युक्त्वा) जोतकर (अर्वाङ्) सामने (उप यासत्) आवे और (माध्यन्दिने) मध्याह्न में (सवने) यज्ञ के बीच (मत्सत्) आनन्द पावे ॥७॥

    भावार्थ

    राजा महाधनी, प्रतापी, शस्त्र-अस्त्रधारी होकर शत्रुओं का नाश करके प्रजा की रक्षा करे और दोपहर दिन के समान लोगों में आनन्द का प्रकाश करे ॥७॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र ऋग्वेद में है-।४०।४ ॥ ७−(ऋजीषी) अर्जेर्ऋज च। उ० ४।२८। अर्ज अर्जने-ईषन्, कित्, ऋजादेशश्च। ऋजीषं धनमस्यास्तीति-इति। महाधनी (वज्री) शस्त्रास्त्रभृत् (वृषभः) बलिष्ठः (तुराषाट्) तुर हिंसायाम्-क+षह अभिभवे-ण्वि, अन्येषामपि दृश्यते। पा० ६।३।१३७। इति दीर्घः। तुराणां हिसकशत्रूणामभिभविता (शुष्मी) शुष्मं बलिष्ठं सैन्यं विद्यते यस्य सः (राजा) शासकः (वृत्रहा) शत्रुहन्ता (सोमपावा) श्रेष्ठौषधिरसस्य पानकर्ता (युक्त्वा) योजयित्वा (हरिभ्याम्) अश्वाभ्याम् (उप यासत्) आगच्छेत् (अर्वाङ्) अभिमुखः (माध्यन्दिने) मध्याह्ने (सवने) यज्ञमध्ये (मत्सत्) आनन्देत् (इन्द्रः) महाप्रतापी सेनापतिः ॥

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    विषय

    माध्यन्दिने सवने मत्सत् इन्द्रः

    पदार्थ

    १. (ऋजीषी) = [ऋजु+इष्] वे प्रभु हृदयस्थ होकर सदा सरलता की प्रेरणा देनेवाले हैं। (वज्री) = क्रियाशीलतारूप ब्रज को हाथ में लिये हुए हैं। (वृषभ:) = सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। (तुरापाट्) = हिंसक शत्रुओं का अभिभव करनेवाले हैं। (शुष्मी) = शत्रुशोषक बलवाले हैं। राजा दीप्तरूपवाले वे प्रभु (वृत्रहा) = वासनाओं का विनाश करनेवाले व (सोमपावा) = हमारे शरीरों में सोम का रक्षण करनेवाले हैं। २. (हरिभ्याम्) = इन्द्रियों से (युक्त्वा) = हमारे शरीर-रथों को योजित करके (अर्वाङ्) = हमारे अभिमुख प्राप्त होते हुए (उपयासत्) = हमें प्राप्त हों। ये (इन्द्र:) = परमेश्वर्यशाली प्रभु (माध्यन्दिने सवने) = जीवन के इस माध्यन्दिन सवन में (मत्सत्) = सोम-रक्षण द्वारा हमें आनन्दित करें। प्रात:सवन में भी सोम-रक्षण आवश्यक है। उस समय आचार्यकुल में सारा वातावरण उसके अनुकूल-सा ही होता है। सायन्तन सवन में भी वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम में सोम-रक्षण सरल है। माध्यन्दिन में-गृहस्थ के समय ही इसका रक्षण सर्वाधिक कठिन होता है। उस समय प्रभु स्मरण इसमें सहायक होता है।

    भावार्थ

    ऋजुता की प्रेरणा देनेवाले प्रभु हमें वासनाओं का विजय करके सोम-रक्षण के योग्य बनाएँ। प्रभु हमें प्राप्त हों और यह प्रभु-स्मरण जीवन के मध्याह्न में भी हमें सोम-रक्षण में समर्थ करे। ___ यह सोमी पुरुष सुन्दर दिव्यगुणों को धारण करके 'वामदेव' बनता है। प्रशस्त इन्द्रियोंवाला होने से गोतम' है। वासनाओं का संहार करनेवाला यह 'कुत्स' होता है [कुथ हिंसायाम] तथा सभी के साथ स्नेह से चलनेवाला 'विश्वामित्र' होता है। ये ही क्रमशः अगले सूक्त में ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (ऋजीषी) ऋजु अर्थात् सत्यमार्ग चाहनेवाला, (वज्री) न्यायवज्रधारी, (वृषभः) आनन्दरसवर्षी, (तुराषाट्) शीघ्रकष्टहारी, (शुष्मी) बलशाली, (राजा) ब्रह्माण्ड का स्वामी, (वृत्रहा) पापविनाशी, (सोमपावा) भक्तिरस की रक्षा करनेवाला (इन्द्रः) परमेश्वर (हरिभ्याम्) ऋक् और साम की विधियों द्वारा, (युक्त्वा) हम उपासकों को योगयुक्त करके, (अर्वाङ्) हमारी ओर (उपयासत्) हमारे समीप आये, और (माध्यन्दिने) मध्याह्न में अर्थात् युवाकाल की माध्यमिक आयु में किये गये (सवते) उपासना-यज्ञों में (मत्सत्) प्रसन्न होवे, और हमें प्रसन्न करे।

    टिप्पणी

    [हरिभ्याम्=ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी (ऐत০ ब्रा০ २.२४)। माध्यन्दिन सवन=“पुरुषो वाव यज्ञः। अथ यानि चतुश्चत्वारशद् वर्षाणि तन्माध्यन्दिनं सवनम्” (छान्दो০ ३.१६.१,३)। इस वचन में ४४ वर्ष की आयु को माध्यन्दिन सवन कहा है।

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन

    भावार्थ

    (ऋजीषी) समस्त अर्जन करने योग्य धन ऐश्वर्यों से सम्पन्न (वज्री) वज्रवान्, पाप और अज्ञान का वर्जन करने वाले, ज्ञान से युक्त (वृषभः) सुखों का वर्षक, (तुराषाट्) अति शीघ्रगामी, या हिंसक शत्रुओं का भी विजेता, (शुष्मी) बलवान्, (राजा) राजा के समान सबका महाराज, (वृत्रहा) आवरणकारी विघ्नों का नाशक, (सोमपावा) सोमरस के समान समस्त उत्पादक और प्रेरक बल का स्वयं धारक, (हरिभ्याम्) अपने धारण और आकर्षण बलों से (युक्त्वा) भीतर समाधि द्वारा युक्त होकर (अर्वाङ्) साक्षात् (उप यासत्) हमें प्राप्त हो और (इन्द्रः) वह इन्द्र, ऐश्वर्यवान् प्रभु (मध्यन्दिने सवने) दिन के मध्य भाग दोपहर के (सवने) काल में सूर्य के समान प्रखर कान्तिमान् होकर (मत्सत्) हमारे हृदयाकाश में भी पूर्ण प्रबल तेज से प्रकाशित हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-६ वसिष्ठः। ७ अत्रिर्ऋषिः। त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Dynamic guardian of the path of rectitude to the last, wielder of thunder, generously brave, breaker of tempestuous missiles instantly, terribly forceful, refulgent ruler and sovereign commander, destroyer of the darkest enemies and protector of peaceful prosperity and joy of the people, Indra comes post haste by fastest horses, and at the noon day session of yajna joins the celebrations of the nation’s honour and excellence.

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    Translation

    The Almighty God is most impellent force, possessor of thunder-power, most strong, most over-powering force, vigoirous, illumining light, dispeller of the eris and the preserver of the world. He harnessing the sun and moon directly moving the all worlds. May he gladen us in our Yajna of mid-day.

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    Translation

    The Almighty God is most impellent force, possessor of thunder-power, most strong, most over-powering force, vigorous, illumining light, dispeller of the erls and the preserver of the world. He harnessing the sun and moon directly moving the all worlds. May he gladden us in our Yajna of mid-day.

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    Translation

    Let the Glorious God, the Lord of all fortunes, the Emblem of destruction of evil and ignorance, the showerer of all comforts, the conqueror" ofthe fast-moving foes of humanity, the Powerful, the Radiant,.the Dispelier of darkness of ignorance, the Generator of the essence of medicines, and of bliss in salvation, united with His forces of attraction arid sustenance. He reveals Himself to the yogis in deep contemplation and shines like the mid-day sun in their hearts.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र ऋग्वेद में है-।४०।४ ॥ ७−(ऋजीषी) अर्जेर्ऋज च। उ० ४।२८। अर्ज अर्जने-ईषन्, कित्, ऋजादेशश्च। ऋजीषं धनमस्यास्तीति-इति। महाधनी (वज्री) शस्त्रास्त्रभृत् (वृषभः) बलिष्ठः (तुराषाट्) तुर हिंसायाम्-क+षह अभिभवे-ण्वि, अन्येषामपि दृश्यते। पा० ६।३।१३७। इति दीर्घः। तुराणां हिसकशत्रूणामभिभविता (शुष्मी) शुष्मं बलिष्ठं सैन्यं विद्यते यस्य सः (राजा) शासकः (वृत्रहा) शत्रुहन्ता (सोमपावा) श्रेष्ठौषधिरसस्य पानकर्ता (युक्त्वा) योजयित्वा (हरिभ्याम्) अश्वाभ्याम् (उप यासत्) आगच्छेत् (अर्वाङ्) अभिमुखः (माध्यन्दिने) मध्याह्ने (सवने) यज्ञमध्ये (मत्सत्) आनन्देत् (इन्द्रः) महाप्रतापी सेनापतिः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সেনাপতিকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ঋজীষী) মহাধনী, (বজ্রী) বজ্রধারী [শস্ত্র-অস্ত্রযুক্ত], (বৃষভঃ) বলবান, (তুরাষাট্) হিংসক শত্রুদের পরাজিতকারী, (শুষ্মী) বলবান সেনাযুক্ত, (রাজা) রাজা, (বৃত্রহা) শত্রুদের হননকারী, (সোমপাবা) সোম [মহৌষধির রস] পানকারী (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী সেনাপতি] (হরিভ্যাম্) দুই ঘোড়ার সাথে [রথকে] (যুক্ত্বা) যুক্ত করে (অর্বাঙ্) সামনে (উপ যাসৎ) আসুক এবং (মাধ্যন্দিনে) মধ্যাহ্নে (সবনে) যজ্ঞের মাঝে (মৎসৎ) আনন্দ প্রাপ্ত করুক ॥৭॥

    भावार्थ

    রাজা মহাধনী, প্রতাপী, শস্ত্র-অস্ত্রধারী হয়ে শত্রুদের বিনাশ করে প্রজার রক্ষা করে/করুক এবং মধ্যাহ্নের ন্যায় মনুষ্যদের মধ্যে আনন্দের প্রকাশ করে/করুক॥৭॥

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    भाषार्थ

    (ঋজীষী) ঋজু অর্থাৎ সত্যমার্গ কামনাকারী, (বজ্রী) ন্যায়বজ্রধারী, (বৃষভঃ) আনন্দরসবর্ষী, (তুরাষাট্) শীঘ্রকষ্টহারী, (শুষ্মী) বলশালী, (রাজা) ব্রহ্মাণ্ডের স্বামী, (বৃত্রহা) পাপবিনাশী, (সোমপাবা) ভক্তিরসের রক্ষক (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (হরিভ্যাম্) ঋক্ এবং সাম বিধি দ্বারা, (যুক্ত্বা) আমাদের উপাসকদের যোগযুক্ত করে, (অর্বাঙ্) আমাদের দিকে (উপয়াসৎ) আমাদের সমীপে আসুক/আগমন করুক/করুন, এবং (মাধ্যন্দিনে) মধ্যাহ্নে অর্থাৎ যৌবনের মাধ্যমিক আয়ুতে কৃত (সবতে) উপাসনা-যজ্ঞে (মৎসৎ) প্রসন্ন হন, এবং আমাদের প্রসন্ন করেন/করান।

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