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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१९
    14

    इन्द्रं॑ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे पुरुहू॒तमुप॑ ब्रुवे। भरे॑षु॒ वाज॑सातये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । उप॑ । ब्रु॒वे॒ ॥ भरे॑षु । वाज॑ऽसातये ॥१९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं वृत्राय हन्तवे पुरुहूतमुप ब्रुवे। भरेषु वाजसातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम् । वृत्राय । हन्तवे । पुरुऽहूतम् । उप । ब्रुवे ॥ भरेषु । वाजऽसातये ॥१९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुरुहूतम्) बहुतों से पुकारे गये (इन्द्रम्) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले राजा] को (वृत्राय हन्तवे) शत्रु के मारने के लिये (भरेषु) संग्रामों में (वाजसातये) धनों के पाने को (उप) समीप में (ब्रुवे) मैं कहता हूँ ॥॥

    भावार्थ

    सङ्ग्राम प्रवृत्त होने पर सब योधा लोग और सेनाध्यक्ष पुरुष प्रयत्न करें कि शत्रुओं को हराकर सब प्रकार विजय होवे ॥॥

    टिप्पणी

    −(इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्तं राजानम् (वृत्राय) वृत्रं शत्रुम् (हन्तवे) तवेन् प्रत्ययः। हन्तुम् (पुरुहूतम्) बहुभिराहूतम् (उप) समीपे (ब्रुवे) कथयामि (भरेषु) सङ्ग्रामेषु (वाजसातये) धनानां लाभाय ॥

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    विषय

    भरेषु वाजसातये

    पदार्थ

    १. (पुरुहूतम्) = पालक व पूरक है पुकार जिसकी उस (इन्द्रम्) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु को (वृत्राय हन्तवे) = ज्ञान की आवरणभूत वासना के विनाश के लिए (उपबुवे) = पुकारता हूँ। २. मैं उस प्रभु को (भरेष) = संग्नामों में वाजसातये शक्ति की प्राप्ति के निमित्त पुकारता है। प्रभु ही शक्ति देते हैं और उपासक को संग्राम में विजयी बनाते हैं।

    भावार्थ

    हम 'पुरुहूत इन्द्र' की आराधना करें। ये प्रभु हमें शक्ति प्राप्त कराएंगे। इस शक्ति के द्वारा हम संग्रामों में विजय प्राप्त करेंगे और ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट कर पाएँगे।

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    भाषार्थ

    (भरेषु) देवासुर-संग्रामों में (वाजसातये) बल-प्राप्ति के लिए, (वृत्राय हन्तवे) तथा पाप-वृत्रों के हनन के लिए (पुरुहूतम्) नाना नामों द्वारा पुकारे गये (इन्द्रम्) परमेश्वर को (उप) उपासनाविधि द्वारा (ब्रुवे) मैं कहता हूँ। कि—

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    विषय

    परमेश्वर और राजा की शरणप्राप्ति।

    भावार्थ

    (वृत्राय हन्तवे) शत्रु के नाश करने के लिये और (भरेषु) युद्धों में (वाजसातये) धनैश्वर्य के प्राप्त करने के लिये (पुरुहूतम्) समस्त प्रजाओं से स्तुति करने योग्य, उत्तम, गुणवान् पुरुष की प्रार्थना करें कि वह ऐसा करे। विघ्नों के नाश यज्ञों में वीर्य और अन्न लाभ के लिये या पुष्टिकारी कार्यों में अन्न प्राप्त करने के लिये उस सर्व स्तुत्य ईश्वर की मैं प्रार्थना करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    I invoke Indra, invoked and worshipped by all, for the destruction of evil and victory in life’s battles for food, energy, prosperity and progress.

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    Translation

    I pray and praise God Almighty worshipped by all for destroying evils and obtaining wealth in the pale of the worlds

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    Translation

    I pray and praise God Almighty worshipped by all for destroying evils and obtaining wealth in the battles of the worlds.

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    Translation

    We pray to the much-invoked Indra for destroying the evil-doer, and for distribution of wealth, food, power and knowledge at the time of wars.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्तं राजानम् (वृत्राय) वृत्रं शत्रुम् (हन्तवे) तवेन् प्रत्ययः। हन्तुम् (पुरुहूतम्) बहुभिराहूतम् (उप) समीपे (ब्रुवे) कथयामि (भरेषु) सङ्ग्रामेषु (वाजसातये) धनानां लाभाय ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (পুরুহূতম্) বহুজন দ্বারা আমন্ত্রিত (ইন্দ্রম্) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান রাজা] কে (বৃত্রায় হন্তবে) শত্রু হননের জন্য (ভরেষু) সংগ্রামে (বাজসাতয়ে) ধন প্রাপ্তির জন্য (উপ) সমীপে (ব্রুবে) আমি বলি।।৫।।

    भावार्थ

    যুদ্ধ প্রবৃত্ত হলে সকল যোদ্ধা এবং সেনাধ্যক্ষ পুরুষ প্রচেষ্টা করুক, শত্রুদের পরাজিত করে সার্বিক বিজয় হোক।।৫।।

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    भाषार्थ

    (ভরেষু) দেবাসুর-সংগ্রামে (বাজসাতয়ে) বল-প্রাপ্তির জন্য, (বৃত্রায় হন্তবে) তথা পাপ-বৃত্র-সমূহের হননের জন্য (পুরুহূতম্) নানা নাম দ্বারা আহূত (ইন্দ্রম্) পরমেশ্বরকে (উপ) উপাসনাবিধি দ্বারা (ব্রুবে) আমি বলি। যে—

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