अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
अ॒स्मा इदु॒ सप्ति॑मिव श्रव॒स्येन्द्रा॑या॒र्कं जु॒ह्वा॒ सम॑ञ्जे। वी॒रं दा॒नौक॑सं व॒न्दध्यै॑ पु॒रां गू॒र्तश्र॑वसं द॒र्माण॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअस्मै॑ । इत् । ऊं॒ इति॑ । सप्ति॑म्ऽइव । अ॒व॒स्या । इन्द्रा॑य । अ॒र्कम् । जु॒ह्वा॑ । सम् । अ॒ञ्जे॒ ॥ वी॒रम् । दा॒नऽओ॑कसम् । व॒न्दध्यै॑ । पु॒राम् । गू॒र्तऽश्र॑वसम् । द॒र्माण॑म् ॥३५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु सप्तिमिव श्रवस्येन्द्रायार्कं जुह्वा समञ्जे। वीरं दानौकसं वन्दध्यै पुरां गूर्तश्रवसं दर्माणम् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । इत् । ऊं इति । सप्तिम्ऽइव । अवस्या । इन्द्राय । अर्कम् । जुह्वा । सम् । अञ्जे ॥ वीरम् । दानऽओकसम् । वन्दध्यै । पुराम् । गूर्तऽश्रवसम् । दर्माणम् ॥३५.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सभापति के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(अस्मै) इस [संसार] के हिते के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (इन्द्राय) ऐश्वर्य के अर्थ (श्रवस्या) कीर्ति की इच्छा से (जुह्वा) देने-लेने वाली क्रिया के साथ (सप्तिम् इव) जैसे फुरतीले घोड़े को [वैसे] (अर्कम्) पूजनीय (वीरम्) वीर, (दानौकसम्) दान के घर [बड़े दानी], (गूर्तश्रवसम्) उद्यमयुक्त यशवाले, (पुराम्) शत्रुओं के गढ़ों के (दर्माणम्) ढानेवाले [सभापति] को (वन्दध्यै) सत्कार करने के लिये (सम्) अच्छे प्रकार (अञ्जे) मैं चाहता हूँ ॥॥
भावार्थ
जैसे फुरतीले घोड़े को चढ़ने और रथ आदि ले चलने के लिये चाहते हैं, वैसे ही मनुष्य शुभगुण वाले महाकीर्तिमान् पुरुषार्थी जन को संसार के हित के लिये आदर से चाहते हैं ॥॥
टिप्पणी
−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (सप्तिम्) वसेस्तिः। उ०४।१८०। इति षप समवाये-ति। सप्तिरिति अश्वनाम-निघ०१।१४। शीघ्रगामिनम् अश्वम् (इव) यथा (श्रवस्या) सुप आत्मनः क्यच्। पा०३।१।८। श्रवस्-क्यच्। तस्मात् अप्रत्ययः, टाप्। तृतीयायां डादेशः। कीर्तीच्छया (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्राप्तये (अर्कम्) अर्चनीयम् (जुह्वा) अ०१८।४।। हु दानादानादनेषु-क्विप्, तृतीयैकवचनम्। दानादानक्रियया (सम्) सम्यक् (अञ्जे) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-आत्मनेपदं छान्दसम्। अहं कामये (वीरम्) शूरम् (दानौकसम्) दानस्य गृहम्। महादानिनम् (वन्दध्ये) तुमर्थे सेसेनसे०। पा०३।४।९। वदि अभिवादनस्तुत्योः-कध्यै। वन्दितुम्। सत्कर्तुम् (पुराम्) शत्रूणां पुराणां दुर्गाणाम् (गूर्तश्रवसम्) नसत्तनिषत्ताऽनुत्तप्रतूर्तसूर्तगूर्तानिच्छन्दसि। पा०८।२।६१। गूरी उद्यमने-क्त; नत्वाभावः। गूर्णम् उद्योगयुक्तं श्रवो यशो यस्य तम् (दर्माणम्) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ०४।१४। दॄ विदारणे-मनिन्। विदारयितारम् ॥
विषय
अर्क जुह्वा समजे [सतत स्तवन]
पदार्थ
१. (अस्मै इन्द्राय इत् उ) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए ही निश्चय से (अवस्या) = ज्ञान व यश की प्राप्ति के हेतु से (अर्कम्) = स्तुतिसाधन मन्त्रों को (जुह्वा) = आह्वान की साधनभूतवाणी से (समजे) = संगत करता हूँ। इसप्रकार संगत करता हूँ-सदा स्तवन करनेवाला बनता हूँ (इव) = जैसेकि एक व्यक्ति (अवस्या) = अन्न-प्राप्ति की इच्छा से (सप्तिम्) = घोड़े को रथ से जोड़ता है। २. तथा मैं उस प्रभु को (वन्दध्यै) = वन्दन करने के लिए प्रवृत्त होता हूँ, जो (वीरम्) = शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करनेवाले हैं। (दानौकसम्) = दान के ओकस [गृह] हैं-सब-कुछ देनेवाले हैं। (पुरां दर्माणम्) = असुरों की पुरियों का विदारण करनेवाले हैं। 'काम, क्रोध, लोभ'के दुर्गों के विनाशक हैं। (गूर्तश्रवसम्) = उद्यत [उत्कृष्ट] ज्ञानवाले हैं। प्रभु सर्वज्ञ' है-भक्तों के ज्ञान को उत्कृष्ट करते हैं।
भावार्थ
मैं सदा उस प्रभु का स्तवन करता हूँ, जो वीर, सर्वप्रद, शत्रु-विनाशक व ज्ञान देनेवाले हैं।
भाषार्थ
(अस्मै इत् उ) इस ही परमेश्वर की प्राप्ति के लिए, (श्रवस्या) आध्यात्मिक-धन की प्राप्ति के हेतु, (जुह्वा) मैं अपनी जुहू स्थानापन्न जिह्वा द्वारा, (अर्कम्) पूजा के साधनभूत मन्त्रों को (समञ्जे) सम्यक् प्रकार से कान्तिसम्पन्न करता हूँ, (इव) जैसे कि अश्वारोही (सप्तिम्) अपने अश्व को कान्तिसम्पन्न करता है, ताकि मैं (वीरम्) सर्वप्रेरक, (दानौकसम्) दानों के भण्डारी, (गूर्तश्रवसम्) दान देने में सदा उद्यत, (पुरां दर्माणम्) शरीर-पुरियों की परम्परा को विदीर्ण करनेवाले परमेश्वर की (वन्दध्यै) वन्दना कर सकूं। उसका अभिवादन और स्तवन कर सकूं।
टिप्पणी
[श्रवस्=धन (निघं० २.१०)। वीर=वि+ईर (गतौ)। गूर्त=गुरी (उद्यमने)+श्रवस् (धन)।]
विषय
परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(अस्मै इव इन्द्राय) इस परम ऐश्वर्य वाले के लिये (श्रवस्या) अन्न, यश, कीर्त्ति और ज्ञान की प्राप्ति के लिये जिस प्रकार (सप्तिम्) वेगवान् अश्व को रथ में जोड़ा जाता है उसी प्रकार (इन्द्राय अर्कं) इन्द के लिये अर्चनाकारी मन्त्र को मैं (जुह्वा) स्तुतिशील वाणी से (सम् अञ्जे) प्रकट करता हूं। और (वीरम्) वीर शूर (दानौकसम्) दान के एकमात्र आश्रय (गूर्तश्रवसम्) प्रशस्त कीर्त्तिमान् (पुरां दर्माणम्) शत्रु के गढ़ों के समान भीतरी बन्धन रूप आत्मा के कोशों के तोड़ने वाले उसकी (वन्दध्यै) स्तुति करने के लिये मैं भी उसी (इन्द्राय अर्कं सम् अञ्जे) प्रभु की स्तुति को प्रकट करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः। इन्द्रो देवता १, २, ७, ९, १४, १६ त्रिष्टुभः। शेषा पंक्तयः। षोडशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
As a driver yokes the horse to the master’s chariot to drive him on, so, in honour of Indra and in order to celebrate and exalt him, brave hero as he is, treasure home of charity and destroyer of enemy strongholds, whose fame rings far and wide, I compose a song in my own words and offer it as a libation to him with my own ladle in homage.
Translation
I, for gaining corn and frame with my tougue pronounce the prayer to exalt him, this Almighty God who is brave, benevolent, praiseworthy and dissipator of the group of worldly objects (in the time of dissolution) as people yoke the horse.
Translation
I, for gaining corn and frame with my tongue pronounce the prayer to exalt him, this Almighty God who brave, benevolent, praiseworthy and dissipater of the group o; worldly objects (in the time of dissolution) as people yoke the horse.
Translation
Just as a fast horse is yolked to a chariot; so do I unite my devotional and worshipful song to this Lord of all fortunes for food-grains, fame, glory and knowledge, and offering my prayers to the Brave, the source of bounties, the All-Glorious and the Breakers of all bondages of the soul like the' smashers of the castles of the enemy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (सप्तिम्) वसेस्तिः। उ०४।१८०। इति षप समवाये-ति। सप्तिरिति अश्वनाम-निघ०१।१४। शीघ्रगामिनम् अश्वम् (इव) यथा (श्रवस्या) सुप आत्मनः क्यच्। पा०३।१।८। श्रवस्-क्यच्। तस्मात् अप्रत्ययः, टाप्। तृतीयायां डादेशः। कीर्तीच्छया (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्राप्तये (अर्कम्) अर्चनीयम् (जुह्वा) अ०१८।४।। हु दानादानादनेषु-क्विप्, तृतीयैकवचनम्। दानादानक्रियया (सम्) सम्यक् (अञ्जे) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-आत्मनेपदं छान्दसम्। अहं कामये (वीरम्) शूरम् (दानौकसम्) दानस्य गृहम्। महादानिनम् (वन्दध्ये) तुमर्थे सेसेनसे०। पा०३।४।९। वदि अभिवादनस्तुत्योः-कध्यै। वन्दितुम्। सत्कर्तुम् (पुराम्) शत्रूणां पुराणां दुर्गाणाम् (गूर्तश्रवसम्) नसत्तनिषत्ताऽनुत्तप्रतूर्तसूर्तगूर्तानिच्छन्दसि। पा०८।२।६१। गूरी उद्यमने-क्त; नत्वाभावः। गूर्णम् उद्योगयुक्तं श्रवो यशो यस्य तम् (दर्माणम्) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ०४।१४। दॄ विदारणे-मनिन्। विदारयितारम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সভাপতিলক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(অস্মৈ) এই [সংসারের] হিতের জন্য (ইৎ) ই (উ) বিচারপূর্বক (ইন্দ্রায়) ঐশ্বর্যের অর্থ (শ্রবস্যা) কীর্তির ইচ্ছায় (জুহ্বা) আদান-প্রদান যোগ্য ক্রিয়ার সাথে (সপ্তিম্ ইব) যেমন ক্ষিপ্রগামী ঘোড়াকে [তেমনই] (অর্কম্) পূজনীয় (বীরম্) বীর, (দানৌকসম্) দানের গৃহ [বড় দাতা], (গূর্তশ্রবসম্) উদ্যমযুক্ত যশবান, (পুরাম্) শত্রুদের পুরী (দর্মাণম্) ধ্বংসকারী [সভাপতিকে] (বন্দধ্যৈ) সৎকার করার জন্য (সম্) ভালোভাবে (অঞ্জে) আমি কামনা করি॥৫॥
भावार्थ
যেমন ক্ষিপ্রগামী ঘোড়ার ওপর আরোহণ এবং রথ বহনের জন্য কামনা করা হয়, সেভাবেই মনুষ্য শুভ গুণযুক্ত মহাকীর্তিমান পুরুষার্থীদের সংসারের হিতের জন্য আদরপূর্বক কামনা করি ॥৫॥
भाषार्थ
(অস্মৈ ইৎ উ) এই পরমেশ্বরের প্রাপ্তির জন্য, (শ্রবস্যা) আধ্যাত্মিক-ধন প্রাপ্তির জন্য, (জুহ্বা) আমি নিজের জুহূ স্থানাপন্ন জিহ্বা দ্বারা, (অর্কম্) পূজার সাধনভূত মন্ত্র-সমূহ (সমঞ্জে) সম্যক্ প্রকারে কান্তিসম্পন্ন করি, (ইব) যেমন অশ্বারোহী (সপ্তিম্) নিজের অশ্বকে কান্তিসম্পন্ন করে, যাতে আমি (বীরম্) সর্বপ্রেরক, (দানৌকসম্) দানের ভাণ্ডারী, (গূর্তশ্রবসম্) দান দেওয়ার ক্ষেত্রে সদা উদ্যত, (পুরাং দর্মাণম্) শরীর-পুরীর পরম্পরা বিদীর্ণকারী পরমেশ্বরের (বন্দধ্যৈ) বন্দনা করতে পারি। উনার অভিবাদন এবং স্তবন করতে পারি।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal