अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 56/ मन्त्र 6
ए॒ते त॑ इन्द्र ज॒न्तवो॑ विश्वं पुष्यन्ति॒ वार्य॑म्। अ॒न्तर्हि ख्यो जना॑नाम॒र्यो वेदो॒ अदा॑शुषां॒ तेषां॑ नो॒ वेद॒ आ भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ते । ते॒ । इ॒न्द्र॒: । ज॒न्तव॑: । विश्व॑म् । पु॒ष्य॒ति॒ । वार्य॑म् ॥ अ॒न्त: । हि । ख्य: । जना॑नाम् । अ॒र्य: । वेद॑: । अदा॑शुषाम् । तेषा॑म् । न॒: । वेद॑: । आ । भ॒र॒ ।५६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
एते त इन्द्र जन्तवो विश्वं पुष्यन्ति वार्यम्। अन्तर्हि ख्यो जनानामर्यो वेदो अदाशुषां तेषां नो वेद आ भर ॥
स्वर रहित पद पाठएते । ते । इन्द्र: । जन्तव: । विश्वम् । पुष्यति । वार्यम् ॥ अन्त: । हि । ख्य: । जनानाम् । अर्य: । वेद: । अदाशुषाम् । तेषाम् । न: । वेद: । आ । भर ।५६.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सभापति के लक्षण का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (ते) तेरे लिये (एते) यह (जन्तवः) लोग (विश्वम्) सब (वार्यम्) स्वीकार योग्य पदार्थ को (पुष्यन्ति) पुष्ट करते हैं। (अर्यः) स्वामी तू (तेषाम्) उन (जनानाम्) मनुष्यों के (अन्तः) बीच (हि) निश्चय करके (अदाशुषाम्) अदानी लोगों की (वेदः) समझ को (ख्यः) देख और (नः) हमारे लिये (वेदः) विज्ञान को (आ) सब प्रकार (भर) प्राप्त करा ॥६॥
भावार्थ
जैसे प्रजागण श्रेष्ठ पदार्थों के दान से राजभक्ति करें, वैसे ही राजा अदाताओं से प्रजा की रक्षा करके विज्ञान की वृद्धि करे ॥६॥
टिप्पणी
६−(एते) उपस्थिताः (ते) तुभ्यम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (जन्तवः) जीवाः जनाः (विश्वम्) सर्वम् (पुष्यन्ति) वर्धयन्ति (वार्यम्) स्वीकार्यं पदार्थम् (अन्तः) मध्ये (हि) अवश्यम् (ख्यः) ख्या प्रकथने दर्शने च लोडर्थे लुङ्। पश्य (जनानाम्) जन्तूनाम्। जीवानाम् (अर्यः) स्वामी (वेदः) बोधम् (अदाशुषाम्) अदातॄणाम् (तेषाम्) पूर्वोक्तानां जन्तूनाम् (नः) अस्मभ्यम् (वेदः) विज्ञानम् (आ) समन्तात् (भर) प्रापय ॥
विषय
एते ते इन्द्र जन्तवः
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (एते जन्तवः) = ये सब प्राणधारी प्राणी (ते) = आपके हैं। आपके होते हुए ये (विश्वम्) = सब (वार्यम्) = वरणीय धन को (पुष्यन्ति) = प्राप्त करते हैं। २. आप (हि) = निश्चय से (जनानाम्) = सब लोगों के (अन्त:) = अन्दर होते हुए (ख्य:) = उनके सब आन्तरभावों को देखते हैं। (अर्य:) = आप ही स्वामी हैं। (अदाशुषाम्) = अदानशीलों-कृपणों के (वेदः) = धन को भी आप देखते हैं। (तेषां वेदः) = उनके धन को भी (न: आभर) = हमारे लिए प्राप्त कराइए। हम इस धन का दान करते हुए प्राजापत्ययज्ञ में अपनी आहुति देनेवाले बनें।
भावार्थ
प्रभु ही सब वरणीय धनों के देनेवाले हैं। प्रभु अन्तरस्थित होते हुए हमारे सब भावों को जानते हैं। आप कृपणों के धनों को दाश्वान् पुरुषों में प्राप्त करानेवाले हैं। दान की वृत्तिवाले बनकर हम सदा 'मधुच्छन्दा' बनें-मधुर इच्छाओंवाले। यह 'मधुच्छन्दा' ही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(इन्द्रः) हे परमेश्वर! (ते) आपके (एते) ये (जन्तवः) जन्मधारी उपासक, (वार्यम्) श्रेष्ठ (विश्वम्) सब प्रजाजनों का (पुष्यन्ति) परिपोषण करते हैं। (जनानाम्) इन जन्मधारी उपासकों के (अन्तः) हृदयों के भीतर आप (ख्यः) सत्-ज्ञान का प्रकथन करते रहते हैं। (अर्यः) आप सब धनों के स्वामी हैं, (वेदः) सर्ववेत्ता हैं। (तेषाम्) उन (अदाशुषाम्) अदानियों की (वेदः) सम्पत्तियाँ (नः) हम उपासकों को (आभर) प्रदान कीजिए।
टिप्पणी
[संसार में विषमताएँ हैं, इसका अपलाप नही किया जा सकता। शारीरिक विषमताएँ हैं—कोई लम्बा कोई नाटा, कोई सुरूप, कोई कुरूप, कोई स्वस्थ, कोई रुग्ण, कोई बलशाली कोई निर्बल। इसी प्रकार मानसिक विषमताएँ हैं—कोई महाज्ञानी कोई अल्पज्ञानी। परन्तु आर्थिक विषमताओं सामाजिक-जीवन में अधिक दुष्परिणामी होती है। इन आर्थिक विषमताओं को दूर करना वेदानुमोदित है। वेदों में इसका सरल उपाय दर्शाया है, त्यागपूर्वक भोग—“तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः” (यजुः০ ४०.१), और धन को जमा करने की गर्धा का त्याग। इसीलिए मन्त्र में यह भावना प्रकट की है कि अदानियों के पास धन का संग्रह न होना चाहिए ; और परोपकारी, परमेश्वर के उपासकों को सम्पत् का स्वामी होना चाहिए, ताकि वे समग्र प्रजाजन का परिपोषण कर सकें।]
विषय
दानशील ईश्वर।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! (ते) तेरे उत्पन्न किये हुए (एते) ये (जन्तवः) जन्तु या उत्पन्न पदार्थ (विश्वं वार्यम्) समस्त अभिलाषा योग्य ऐश्वर्य को पुष्ट करते हैं। हे इन्द्र ! परमेश्वर ! हे राजन् ! तू (अर्यः) सबका स्वामी होकर (जनानाम् अन्तः ख्यः हि) समस्त मनुष्यों के भीतर का भी देखता ही है और (अदाशुषां) अदानशील कृपणों के भी (वेदः) धनको तू (ख्यः) देखता है तू (नः तेषां वेदः आभर) उनके समस्त धनैश्वर्य हमें प्राप्त करा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतम ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, lord of life and spirit, these living beings, yours all, do homage to you and augment the wealth and glory of the entire world. Lord and master of the people, you know the very heart of them inside out. Bring us the wealth of knowledge and spirit. Restore the wealth and knowledge of those ungenerous miserables who have lost it.
Translation
O mighty ruler, All these man preserve for you al! that is worthy of your choice. You, as master, know and be hold whatever is in the within of people. You, see the wealth of of those persons who do not offer gifts. You, please bring to us the wealth of their.
Translation
O mighty ruler, All these man preserve for you all that is worthy of your choice. You, as master, know and be hold whatever is in the within of people. You, see the wealth of those persons who do not offer gifts. You, please bring to us the wealth of their.
Translation
O Lord of fortunes, these creatures of Thine nourish all sorts of attainable objects. Thou hast certainly the inner vision of all people, being the Lord of all. Thou seest the wealth of the miserly people, too. Bring us this wealth of theirs.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(एते) उपस्थिताः (ते) तुभ्यम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (जन्तवः) जीवाः जनाः (विश्वम्) सर्वम् (पुष्यन्ति) वर्धयन्ति (वार्यम्) स्वीकार्यं पदार्थम् (अन्तः) मध्ये (हि) अवश्यम् (ख्यः) ख्या प्रकथने दर्शने च लोडर्थे लुङ्। पश्य (जनानाम्) जन्तूनाम्। जीवानाम् (अर्यः) स्वामी (वेदः) बोधम् (अदाशुषाम्) अदातॄणाम् (तेषाम्) पूर्वोक्तानां जन्तूनाम् (नः) अस्मभ्यम् (वेदः) विज्ञानम् (आ) समन्तात् (भर) प्रापय ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সভাপতিলক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [বিশাল ঐশ্বর্যবান্ রাজন্] (তে) তোমার জন্য (এতে) এই (জন্তবঃ) লোকজন (বিশ্বম্) সকল (বার্যম্) স্বীকার যোগ্য পদার্থকে (পুষ্যন্তি) পুষ্ট করে/বর্ধিত করে। (অর্যঃ) স্বামী তুমি (তেষাম্) এই (জনানাম্) মনুষ্যগণের (অন্তঃ) মধ্যে বিদ্যমান (হি) নিশ্চিতরূপে (অদাশুষাম্) দানহীন লোকেদের (বেদঃ) জ্ঞান (খ্যঃ) দেখো এবং (নঃ) আমাদের জন্য (বেদঃ) বিজ্ঞান (আ) সর্ব প্রকারে (ভর) প্রাপ্ত করাও ॥৬॥
भावार्थ
প্রজাগণ যেমন শ্রেষ্ঠ পদার্থ দানের দ্বারা রাজভক্তি প্রদর্শন করে, ঠিক তেমনই রাজা দানহীনের থেকে প্রজাদের রক্ষা করে বিজ্ঞানের বৃদ্ধি করে/করুক ॥৬॥
भाषार्थ
(ইন্দ্রঃ) হে পরমেশ্বর! (তে) আপনার (এতে) এই (জন্তবঃ) জন্মধারী উপাসক, (বার্যম্) শ্রেষ্ঠ (বিশ্বম্) সকল প্রজাদের (পুষ্যন্তি) পরিপোষণ করে। (জনানাম্) এই জন্মধারী উপাসকদের (অন্তঃ) হৃদয়ের ভেতর আপনি (খ্যঃ) সৎ-জ্ঞান এর প্রকথন করতে থাকেন। (অর্যঃ) আপনি সকল ধন-সম্পদের স্বামী, (বেদঃ) সর্ববেত্তা। (তেষাম্) সেই (অদাশুষাম্) অদানীদের (বেদঃ) সম্পত্তি (নঃ) আমাদের [উপাসকদের] (আভর) প্রদান করুন।
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