अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 89/ मन्त्र 5
धनं॒ न स्प॒न्द्रं ब॑हु॒लं यो अ॑स्मै ती॒व्रान्त्सोमाँ॑ आसु॒नोति॒ प्रय॑स्वान्। तस्मै॒ शत्रू॑न्त्सु॒तुका॑न्प्रा॒तरह्नो॒ नि स्वष्ट्रा॑न्यु॒वति॒ हन्ति॑ वृ॒त्रम् ॥
स्वर सहित पद पाठधन॑म् । न । स्प॒न्द्रम् । ब॒हु॒लम् । य: । अ॒स्मै॒ । ती॒व्रान् । सोमा॑न् । आ॒ऽसु॒नोति॑ । प्रय॑स्वान् ॥ तस्मै॑ । शत्रू॑न् । सु॒ऽतुका॑न् । प्रा॒त: । अह्न॑: । नि । सु॒ऽअष्ट्रा॑न् । यु॒वति॑ । हन्ति॑ । वृ॒त्रम् ॥८९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
धनं न स्पन्द्रं बहुलं यो अस्मै तीव्रान्त्सोमाँ आसुनोति प्रयस्वान्। तस्मै शत्रून्त्सुतुकान्प्रातरह्नो नि स्वष्ट्रान्युवति हन्ति वृत्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठधनम् । न । स्पन्द्रम् । बहुलम् । य: । अस्मै । तीव्रान् । सोमान् । आऽसुनोति । प्रयस्वान् ॥ तस्मै । शत्रून् । सुऽतुकान् । प्रात: । अह्न: । नि । सुऽअष्ट्रान् । युवति । हन्ति । वृत्रम् ॥८९.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (प्रयस्वान्) अन्नवाला पुरुष (अस्मै) इस [वीर] को (बहुलम्) बहुत से (स्पन्द्रम्) शीघ्र प्राप्त होनेवाले (धनम् न) धन के समान (तीव्रान्) तीव्र (सोमान्) सोम [तत्त्व रसों] को (आसुनोति) सिद्ध करता है। (तस्मै) उस [पुरुष] के लिये (सुतुकान्) बड़े हिंसक, (स्वष्ट्रान्) तीक्ष्ण शस्त्रोंवाले (शत्रून्) वैरियों को (अह्नः) दिन के (प्रातः) प्रातःकाल में [अर्थात् प्रकाशरूप से] (नि युवति) वह [वीर] हटा देता है और (वृत्रम्) धन को (हन्ति) प्राप्त होता है ॥॥
भावार्थ
जैसे प्रजागण धन मन और विद्याबल से प्रधान पुरुष की सहायता करें, वह वीर भी उसी प्रकार दुष्टों से प्रजा की रक्षा करे ॥॥
टिप्पणी
−(धनम्) (न) यथा (स्पन्द्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। स्पदि किञ्चिच्चलने गतौ च-रक्। स्पन्दशीलम्। शीघ्रं प्रापणीयम् (बहुलम्) प्रभूतम् (यः) पुरुषः (अस्मै) वीराय (तीव्रान्) (सोमान्) तत्त्वरसान् (आसुनोति) निष्पादयति। संस्करोति (प्रयस्वान्) अन्नवान्-निघ० २।७। (तस्मै) पुरुषाय (शत्रून्) (सुतुकान्) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। तु गतिवृद्धिहिंसासु-कक्। बहुहिंसकान् (प्रातः) प्रभातकाले यथा (अह्नः) दिनस्य (नि) नितराम् (स्वष्ट्रान्) अमिचिमिशसिभ्यः क्त्रः। उ० ४।१६४। अशू व्याप्तौ-क्त्र, टाप्। सुष्ठु अष्टास्ताडन्यो येषां तान्। तीक्ष्णायुधान् (युवति) पृथक् करोति (हन्ति) गच्छति-निघ० २।१४। प्राप्नोति (वृत्रम्) धनम्-निघ० २।१० ॥
विषय
'प्रयस्वान्' बनना
पदार्थ
१. (यः) = जो भी पुरुष (प्रयस्वान्) = [प्रयस्-हवि] (हविष्मान्) = त्याग की वृत्तिवाला बनकर (अस्मै) = इस प्रभु के लिए-इस प्रभु की प्राप्ति के लिए (धनम्) = धन को (स्पन्द्रं न) = जोकि चञ्चल सा है-अस्थिर है तथा (बहुलम्) = जीवन के लिए कृष्णपक्ष के समान है-जीवन को अन्धकारमय बना देता है-उस धन को (आसुनोति) = यज्ञ के लिए विनियुक्त करता है और जो (प्रयस्वान्) = [प्रयस्-food] प्रशस्त भोजनवाला बनकर (तीव्रान्) = शक्तिशाली-रोगकृमियों व मन की मैल का संहार करनेवाले (सोमान्) = सोमकणों को (आसनोति) = अपने शरीर में उत्पन्न करता है, (तस्मै) = उस पुरुष के लिए वे प्रभु (अह्नः प्रात:) = दिन का प्रारम्भ होते ही (शत्रून्) = काम आदि शत्रुओं को (सुतुकान्) = [सुप्रेरणान् सा०] पूरी तरह से भाग जानेवाला करते हैं और (स्वष्ट्रान्) = [उत्तमायुधान् अष्ट्रा-goad] उत्तम शस्त्रोंवाले इन शत्रुओं को (नियुवति) = निश्चय से पृथक् कर देते हैं। इसप्रकार (वत्रं हन्ति) = वे प्रज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट कर डालते हैं। २. [क] त्यागवाले बनकर हम धनों को यज्ञों में विनियुक्त करें। ये धन अस्थिर है-इनमें ममता क्या करनी? ये धन हमारी अवनति का कारण बनते हैं-जीवन में ये कृष्णपक्ष के समान हैं। [ख] उत्तम अन्नों का सेवन करते हुए हम शरीर में सोम का उत्पादन करें, वह हमें नीरोग व निर्मल बनाएगा। [ग] ऐसा होने पर हमारे ये काम आदि शत्र भाग खड़े होंगे। इन शत्रुओं के अस्त्र हमारे लिए कुण्ठित हो जाएंगे-हमारी शत्रुभूत वासनाओं का विनाश हो जाएगा।
भावार्थ
हम धनों को यज्ञों में लगाएँ, सोम [वीर्य] का अपने में उत्पादन करें। यही शत्रु विनाश का मार्ग है।
भाषार्थ
(यः) जो (प्रयस्वान्) प्रयासशील उपासक, अपनी (स्पन्द्रम्) अस्थायी (बहुलम्) प्रभूत (धनम्) सम्पत्ति के (न) सदृश, (तीव्रान् सोमान्) अपने तीव्र-प्रवाही भक्तिरसों को, (अस्मै) इस परमेश्वर के प्रति (आ सुनोति) पूर्णतया समर्पित कर देता है, (तस्मै) उस उपासक के लिए, (अह्नः प्रातः) दिन के किसी प्रातःकाल में परमेश्वर, (स्वष्ट्रान्) उस के जीवन में व्याप्त (शत्रून्) कामादि शत्रुओं को, (सुतुकान्) और उन से सुगमता से उत्पन्न दुष्परिणामों को (नि युवति) पृथक् कर देता है, और (वृत्रम्) उस वृत्रवर्ग का (हन्ति) हनन कर देता है।
टिप्पणी
[स्पन्द्रम्=स्पदि किंचिच्चलने। स्वष्ट्रान्=सु+अष् (अश् व्याप्तौ); यथा “अष्ट”=अभ्यश्नुवीताम्; तथा “अष्टौ”=अश्नोतेः (निरु০ १३.१.२; ३.२.१०)।]
विषय
राजा परमेश्वर।
भावार्थ
(बहुलं) बहुतसारा (स्पन्द्रं) चलनशील, जंगम, गौ आदि पशु (धनं न) धन के समान (यः) जो (प्रयस्वान्) अन्नों का स्वामी जमींदार (तीव्रान् सोमान्) तीव्र सोम अर्थात् वेगवान् ‘सोम’ वीर्यवान् पुरुषों को (अस्मै) इस राजा के अधीन (आसुनोति) प्रदान करता है। (तस्मै) उसके (सुतुकान् शत्रून्) अति हिंसक (स्वष्ट्रान्) उत्तम शस्त्रों वाले शत्रुओं को भी (अह्नः प्रातः) दिन का प्रातःकाल भाग जिस प्रकार अन्धकार का नाश करता उसी प्रकार (नि युवति) दूर कर देता है। और उस के (वृत्रम्) विघ्न को भी (निहन्ति) दूर कर देता है। अध्यात्म में—(यः प्रयस्वान्) जो प्रयासी, परिश्रमी, साधक (अस्मै) इस आत्मा को (तीव्रान् सोमान्) तीव्र, अतिहर्षकर ब्रह्मरसों से स्नान करता है, उन्हीं में निमग्न करता है उसके ही (सुतुकान्) विनाशकारी, आत्मा को निर्बल करने वाले काम क्रोधादि भीतरी शत्रुओं को वह (नि युवति) दूर करता है, (वृत्रं) आचरक अज्ञान को (निहन्ति) निर्मूल करता है। (प्रातः अह्नः) दिन के प्रातःकाल के समान अज्ञान को नाश करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृष्णा ऋषिः। इन्दो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Whoever the man of discipline and practice that offers precious gifts of holy and plenteous value and performs effective and powerful soma yajna of peace and pleasure for this divine Indra, ruling lord of humanity, for him Indra dispels all darkness and evil and eliminates all his enemies at the very outset of the day, howsoever strong, violent and well-armed the enemies might be. Whoever the man of discipline and practice that offers precious gifts of holy and plenteous value and performs effective and powerful soma yajna of peace and pleasure for this divine Indra, ruling lord of humanity, for him Indra dispels all darkness and evil and eliminates all his enemies at the very outset of the day, howsoever strong, violent and well-armed the enemies might be.
Translation
For the sake of him who, the master of corn and grain, like the movable property presses the strong Soma-juices for this ruler, he bold one throws out, early in the morning his wellweaponed foes and kills the tyrant.
Translation
For the sake of him who, the master of corn and grain, like the movable property presses the strong Soma-juices for this ruler, he bold one throws out, early in the morning his well weaponed foes and kills the tyrant.
Translation
Let the foe tremble with fear even at a distance from Him, and let all human glories bow to Him, the Mighty Lord of Adoration, fortunes and destruction and protection, in whom we uphold all our praise-songs and who, the master of riches, sustains our aspiration and desires.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(धनम्) (न) यथा (स्पन्द्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। स्पदि किञ्चिच्चलने गतौ च-रक्। स्पन्दशीलम्। शीघ्रं प्रापणीयम् (बहुलम्) प्रभूतम् (यः) पुरुषः (अस्मै) वीराय (तीव्रान्) (सोमान्) तत्त्वरसान् (आसुनोति) निष्पादयति। संस्करोति (प्रयस्वान्) अन्नवान्-निघ० २।७। (तस्मै) पुरुषाय (शत्रून्) (सुतुकान्) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। तु गतिवृद्धिहिंसासु-कक्। बहुहिंसकान् (प्रातः) प्रभातकाले यथा (अह्नः) दिनस्य (नि) नितराम् (स्वष्ट्रान्) अमिचिमिशसिभ्यः क्त्रः। उ० ४।१६४। अशू व्याप्तौ-क्त्र, टाप्। सुष्ठु अष्टास्ताडन्यो येषां तान्। तीक्ष्णायुधान् (युवति) पृथक् करोति (हन्ति) गच्छति-निघ० २।१४। प्राप्नोति (वृत्रम्) धनम्-निघ० २।१० ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(যঃ) যে (প্রয়স্বান্) অন্নবান পুরুষ (অস্মৈ) এই [বীরের জন্য] (বহুলম্) প্রভূত (স্পন্দ্রম্) শীঘ্রই প্রাপ্তিযোগ্য (ধনম্ ন) ধনের সমান (তীব্রান্) তীব্র (সোমান্) সোম [তত্ত্বরস] (আসুনোতি) সিদ্ধ করে। (তস্মৈ) সেই [পুরুষ] এর জন্য (সুতুকান্) অতিশয় হিংসক, (স্বষ্ট্রান্) তীক্ষ্ণ শস্ত্রধারী (শত্রূন্) শত্রুদেরকে (অহ্নঃ) দিনের (প্রাতঃ) প্রাতঃকালে [অর্থাৎ প্রকাশরূপে] (নি যুবতি) সেই [বীর] পৃথক করে/দূর করে এবং (বৃত্রম্) ধন (হন্তি) প্রাপ্ত হয় ॥৫॥
भावार्थ
যেভাবে প্রজাগণ ধন, মন এবং বিদ্যাবল দ্বারা প্রধান পুরুষের(বীর) সহায়তা করে, তেমনিভাবেই সেই বীরও দুষ্টদের থেকে প্রজাদের রক্ষা করে॥৫॥
भाषार्थ
(যঃ) যে (প্রয়স্বান্) প্রয়াসশীল উপাসক, নিজের (স্পন্দ্রম্) অস্থায়ী (বহুলম্) প্রভূত (ধনম্) সম্পত্তির (ন) সদৃশ, (তীব্রান্ সোমান্) নিজের তীব্র-প্রবাহী ভক্তিরস, (অস্মৈ) এই পরমেশ্বরের প্রতি (আ সুনোতি) পূর্ণরূপে সমর্পিত করে, (তস্মৈ) সেই উপাসকের জন্য, (অহ্নঃ প্রাতঃ) দিনের কোনো প্রাতঃকালে পরমেশ্বর, (স্বষ্ট্রান্) তাঁর জীবনে ব্যাপ্ত (শত্রূন্) কামাদি শত্রুদের, (সুতুকান্) এবং সেগুলো থেকে সুগমতাপূর্বক উৎপন্ন দুষ্পরিণামকে (নি যুবতি) পৃথক্ করেন, এবং (বৃত্রম্) সেই বৃত্রবর্গের (হন্তি) হনন করেন।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal