अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 94/ मन्त्र 5
गम॑न्न॒स्मे वसू॒न्या हि शंसि॑षं स्वा॒शिषं॒ भर॒मा या॑हि सो॒मिनः॑। त्वमी॑शिषे॒ सास्मिन्ना स॑त्सि ब॒र्हिष्य॑नाधृ॒ष्या तव॒ पात्रा॑णि॒ धर्म॑णा ॥
स्वर सहित पद पाठगम॑न् । अ॒स्मे इति॑ । वसू॑नि । आ । हि । शंसि॑षम् । सु॒ऽआ॒शिष॑म् । भर॑म् । आ । या॒हि॒ । सो॒मिन॑: ॥ त्वम् । ई॒शि॒षे॒ । स: । अ॒स्मिन् । आ । व॒त्सि॒ । ब॒र्हिषि॑ । अ॒ना॒धृ॒ष्या । तव॑ । पात्रा॑णि । धर्म॑णा ॥९४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
गमन्नस्मे वसून्या हि शंसिषं स्वाशिषं भरमा याहि सोमिनः। त्वमीशिषे सास्मिन्ना सत्सि बर्हिष्यनाधृष्या तव पात्राणि धर्मणा ॥
स्वर रहित पद पाठगमन् । अस्मे इति । वसूनि । आ । हि । शंसिषम् । सुऽआशिषम् । भरम् । आ । याहि । सोमिन: ॥ त्वम् । ईशिषे । स: । अस्मिन् । आ । वत्सि । बर्हिषि । अनाधृष्या । तव । पात्राणि । धर्मणा ॥९४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अस्मे) हमको (वसूनि) अनेक धन (आ गमन्) आवें, (हि) क्योंकि (शंसिषम्) मैं कहता हूँ, (सोमिनः) शान्त स्वभाववाले के (स्वाशिषम्) सुन्दर आशीर्वादवाले (भरम्) पोषण व्यवहार को (आ) सब प्रकार (याहि) तू प्राप्त हो। (त्वम्) तू (ईशिषे) स्वामी है, (सः) सो तू (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) उत्तम आसन पर (आ) आकर (सत्सि) बैठ (तव) तेरे (पात्राणि) रक्षासाधन (धर्मणा) धर्म के साथ (अनाधृष्या) अजेय हैं ॥॥
भावार्थ
राजा प्रजा की सम्मति से सिंहासन पर विराज कर उत्तम साधनों से रक्षा करके धन की वृद्धि करे ॥॥
टिप्पणी
−(आ गमन्) आगच्छन्तु (अस्मे) अस्मभ्यम् (वसूनि) धनानि (हि) यतः (शंसिषम्) शंस कथने-लुङ्। कथयामि (स्वाशिषम्) शोभनाशीर्वादयुक्तम् (भरम्) पोषणम् (आ) समन्तात् (याहि) प्राप्नुहि (सोमिनः) शान्तस्वभावयुक्तस्य (त्वम्) (ईशिषे) ईश्वरो भवसि (सः) स त्वम् (अस्मिन्) (आ) आगत्य (सत्सि) सीद (बर्हिषि) उत्तमासने (अनाधृष्या) ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्यप्। धर्षितुमशक्यानि। अजेयानि (तव) (पात्राणि) रक्षासाधनानि (धर्मणा) शास्त्रविहितव्यवहारेण ॥
विषय
अनाधृष्यपात्र
पदार्थ
१. हे प्रभो। गतमन्त्र के अनुसार जब मैं अपने इस शरीर को सोम का पात्र बनाता हूँ शरीर में सोम का रक्षण करता हूँ तब (हि) = निश्चय से (अस्मे) = हममें (वसूनि) = जीवन को उत्तम बनानेवाले सब वासक तत्व (आगमन्) = प्राप्त होते हैं और मैं (शंसिषम्) = आपका शंसन व स्तवन करनेवाला बनता हूँ-मेरी वृत्ति भोगप्रवण न होकर प्रभु-प्रवण होती है। आप मुझ (सोमिन:) = सोम का रक्षण करनेवाले के (सु-आशिषम्) = उत्तम इच्छाओंवाले (भरम्) = भरणात्मक यज्ञ को (आयाहि) = आइए। (त्वम् ईशिषे) = वस्तुतः आप ही तो इन सब यज्ञों के ईश हैं। आपकी कृपा से ही सब यज्ञ पूर्ण हुआ करते हैं। २. (स:) = वे आप (अस्मिन्) = इस हमारे (बर्हिषि) = वासनाओं का जिसमें से उबर्हण कर दिया गया है और यज्ञों का जिसमें स्थापन हुआ है उस हदय में (आसत्सि) = आकर विराजमान होते हैं। उन हृदयस्थ आपकी प्रेरणा व शक्ति से ही सब यज्ञपूर्ण हुआ करते है। ३. हे प्रभो! (तव) = आपकी (धर्मणा) = धारकशक्ति से ही (पात्राणि) = ये सोम-रक्षण के पात्रभूत हमारे शरीर (अनाधृष्या आधि) = व्याधियों से धर्षण के योग्य नहीं होते। हदय में आपके उपस्थित होने पर वहाँ'काम' का प्रवेश नहीं होता। परिणामत: सोम का रक्षण होकर शरीर रोगाभिभूत नहीं होता। इसप्रकार यह स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मनवाला पुरुष 'आदर्श पुरुष' बनता है।
भावार्थ
सोम का रक्षण होने पर हमारे हदयों में प्रभु का वास होगा। उस समय हमारे शरीर रोगों से आक्रान्त न होंगे और मन वासनाओं से मलिन न होंगे।
भाषार्थ
(अस्मे) मुझे (वसूनि) आध्यात्मिक-सम्पत्तियाँ, (हि) निश्चय से, (आ गमन्) प्राप्त हुई हैं। (स्वाशिषम्) मैंने अपनी इच्छा (शंशिषम्) प्रकट कर दी है कि हे परमेश्वर! (सोमिनः) भक्तिरस की भेंटवाले मुझ उपासक के (भरम्) देवासुर-संग्राम में (आ याहि) आप सहायतार्थ प्रकट हूजिए, यतः (त्वम्) आप (ईशिषे) सबके अधीश्वर हैं, अतः (सः) वह आप (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) हृदयासन पर (आ सत्सि) आ विराजिए। (तव) आपके (पात्राणि) सत्पात्र-उपासक (धर्मणा) धर्मकर्म के कारण या आपको धारण कर लेने के कारण (अनाधृष्या) अब पापों द्वारा पराभव योग्य नहीं हैं।
टिप्पणी
[अस्मे=मह्यम्?। स्वाशिषम्=स्व+आशिस् (आङः शासु इच्छायाम्)। सास्मिन्=सः अस्मिन्।]
विषय
राजा, आत्मा और परमेश्वर।
भावार्थ
(अस्मै) हमें (वसूनि) नाना ऐश्वर्य (आगमन्) प्राप्त हों। मैं (हि) तुझको ही (शंसिषं) स्तुति करता हूं। तू (सोमिनः) सोम रस से यज्ञ करने वाले ज्ञानवान् पुरुष के (भरम्) यज्ञ को तू (आयाहि) प्राप्त हो। (त्वम् ईशिषे) तू सबका स्वामी है। (सः) वह तू (अस्मिन् बर्हिषि) इस महान् यज्ञ में, इस आसन पर (आसत्सि) आ विराज। (तव पात्राणि) तेरे पालन सामर्थ्य (धर्मणा) धारण बल से ही (अना धृष्या) शत्रुओं से विजय किये नहीं जा सकते।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आंगिरसः कृष्ण ऋषिः। १-३, १०, ११ त्रिष्टुभः। ४-९ जगत्यः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
Indra, may wealths, peace and honours of the world come to us, I wish and pray. Come, accept the homage of the celebrant’s song of praise. You rule all, come and abide in this holy seat of yajna and love of the heart. Bold and undaunted, we are your celebrants by the nature and Dharma of our being. Indra, may wealths, peace and honours of the world come to us, I wish and pray. Come, accept the homage of the celebrant’s song of praise. You rule all, come and abide in this holy seat of yajna and love of the heart. Bold and undaunted, we are your celebrants by the nature and Dharma of our being.
Translation
May the valuable wealth, so will I pray, come to us. You come to the Yajna of the men performing Yajnas, you are the ruler of people, you sit on this grass-seat and your protective powers are violable according to the command of religious law.
Translation
May the valuable wealth, so will I pray, come to us. You come to the Yajna of the men performing Yajnas, you are the ruler of people, you sit on this grass-seat and your protective powers are violable according to the command of religious law.
Translation
The foremost pious persons, the divine worshippers, who cultivate the glorious acts, difficult to achieve, go on the best path of virtue separately, while. The treaders on the wrong path, who cannot get into the boat of sacrificial spirituality go down and down in this world of indebtedness.
Footnote
In this world, a man owes three debts पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(आ गमन्) आगच्छन्तु (अस्मे) अस्मभ्यम् (वसूनि) धनानि (हि) यतः (शंसिषम्) शंस कथने-लुङ्। कथयामि (स्वाशिषम्) शोभनाशीर्वादयुक्तम् (भरम्) पोषणम् (आ) समन्तात् (याहि) प्राप्नुहि (सोमिनः) शान्तस्वभावयुक्तस्य (त्वम्) (ईशिषे) ईश्वरो भवसि (सः) स त्वम् (अस्मिन्) (आ) आगत्य (सत्सि) सीद (बर्हिषि) उत्तमासने (अनाधृष्या) ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्यप्। धर्षितुमशक्यानि। अजेयानि (तव) (पात्राणि) रक्षासाधनानि (धर्मणा) शास्त्रविहितव्यवहारेण ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(অস্মে) আমাদের নিকট (বসূনি) বহু ধন (আ গমন্) আগমন করুক অথবা প্রাপ্তি ঘটুক, (হি) কারণ (শংসিষম্) আমি বলছি, (সোমিনঃ) শান্ত স্বভাবযুক্তের (স্বাশিষম্) শুভাশীর্বাদযুক্ত (ভরম্) পোষণ ব্যবহারকে (আ) সর্বতোভাবে (যাহি) তুমি প্রাপ্ত হও। (ত্বম্) তুমি (ঈশিষে) স্বামী/শ্রেষ্ঠ, (সঃ) সুতরাং তুমি (অস্মিন্) এই (বর্হিষি) উত্তম আসনে (আ) এসে (সৎসি) বিরাজমান হও, (তব) তোমার (পাত্রাণি) রক্ষাসাধন (ধর্মণা) ধর্মের সহিত (অনাধৃষ্যা) অজেয় ॥৫॥
भावार्थ
রাজা, প্রজাদের সম্মতি প্রাপ্ত করে সিংহাসনে বিরাজমান হয়ে উত্তম সাধনসমূহ দ্বারা রক্ষা করে ধন বৃদ্ধি করে/করুক॥৫॥
भाषार्थ
(অস্মে) আমাকে (বসূনি) আধ্যাত্মিক-সম্পত্তি, (হি) নিশ্চিতরূপে, (আ গমন্) প্রাপ্ত হয়েছে। (স্বাশিষম্) আমি নিজের ইচ্ছা (শংশিষম্) প্রকট করেছি যে, হে পরমেশ্বর! (সোমিনঃ) ভক্তিরসসম্পন্ন/ভক্তিরস অর্পণকারী [আমার] উপাসকের (ভরম্) দেবাসুর-সংগ্রামে (আ যাহি) আপনি সহায়তার্থে প্রকট হন, যতঃ (ত্বম্) আপনি (ঈশিষে) সকলের অধীশ্বর, অতঃ (সঃ) সেই আপনি (অস্মিন্) এই (বর্হিষি) হৃদয়াসনে (আ সৎসি) এসে বিরাজ করুন। (তব) আপনার (পাত্রাণি) সৎপাত্র-উপাসক (ধর্মণা) ধর্মকর্মের কারণে বা আপনাকে ধারণ করার কারণে (অনাধৃষ্যা) এখন পাপ দ্বারা পরাভব যোগ্য নয়।
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