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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अथर्वा देवता - देवगणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
    25

    इड॑या॒ जुह्व॑तो व॒यं दे॒वान्घृ॒तव॑ता यजे। गृ॒हानलु॑भ्यतो व॒यं सं॑ विशे॒मोप॒ गोम॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इड॑या । जुह्व॑त: । व॒यम् । दे॒वान् । घृ॒तऽव॑ता । य॒जे॒ । गृ॒हान् । अलु॑भ्यत: । व॒यम् । सम् । वि॒शे॒म॒ । उप । गोऽम॑त: ॥१०.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इडया जुह्वतो वयं देवान्घृतवता यजे। गृहानलुभ्यतो वयं सं विशेमोप गोमतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इडया । जुह्वत: । वयम् । देवान् । घृतऽवता । यजे । गृहान् । अलुभ्यत: । वयम् । सम् । विशेम । उप । गोऽमत: ॥१०.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुष्टि बढ़ाने के लिये प्रकृति का वर्णन।

    पदार्थ

    (इडया) स्तुतियोग्य प्रकृति [की विद्या] से (घृतवता=घृतवता कर्मणा) सारयुक्त [कर्म] के द्वारा (जुह्वतः) होम [आत्मदान] करनेवाले (देवान्) देवताओं को (वयम्) हम (यजे=यजामहे) पूजते हैं [जिससे] (अलुभ्यतः) तृष्णारहित [सर्वथा भरे-पूरे] और (गोमतः) बहुत सी उत्तम-२ गौओंवाले (गृहान्) घरों में (उप=उपेत्य) आकर (वयम्) हम (संविशेम) सुख से रहें ॥११॥

    भावार्थ

    संसार के ज्ञान से उत्तम कामों में आत्मदान करनेवाले महात्माओं के हम आदरपूर्वक अनुगामी बनें और सब कामनाओं तथा घृत दुग्धादि पोषक पदार्थों को प्राप्त करके आनन्द भोगें ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(इडया)। म० ६। स्तुत्यया प्राप्तव्यया वा प्रकृत्या। (जुह्वतः)। हु दानादानादनेषु-शतृ। शसि रूपम्। होमम् आत्मसमर्पणं कुर्वतः। (वयम्)। पुरुषाः (देवान्)। विजिगीषून् व्यवहारकुशलान् वा पुरुषान्। (घृतवता)। दीप्तिमता सारयुक्तेन वा, कर्मणा-इति शेषः। (यजे)। तिङां तिङो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। इत्येकवचनं बहुवचने। यजामहे। पूजयामः। (गृहान्)। गृह ग्रहणे-क। गेहानि। (अलुभ्यतः)। लुभ गार्ध्ये=आकाङ्क्षाणाम् विमोहने च-शतृ, दिवादित्वात् श्यन्। शसि रूपम्। तृष्णारहितान् सर्वमनोरथयुक्तान्। (संविशेम)। सुखेन निवसेम। (उप)। उपेत्य। आगत्य। (गोमतः)। भूम्नि प्रशंसायां च मतुम्। बहुभिः प्रशस्ताभिर्गोभिर्युक्तान् ॥

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    विषय

    'सम्पन्न गोमान्' गृह

    पदार्थ

    १. (घृतवता इडया) = घृतवती वेदवाणी के द्वारा (जुह्वत:) = आहुति देते हुए (वयम्) = हम (देवान् यजे) = अग्नि, वायु आदि सब देवों का लक्ष्य करके यज्ञ करते हैं। मन्त्रोच्चारणपूर्वक घृत की आहुति देते हुए हम सब देवों-प्राकृतिक शक्तियों को अनुकूलता का सम्पादन करते हैं। २. इन यज्ञों के द्वारा (वयम्) = हम (गृहान् उप संविशेम्) = घरों में शान्तिपूर्वक निवास करनेवाले हों जोकि (अलुभ्यतः) = लोभ से रहित-चाहने योग्य सभी वस्तुओं से युक्त हैं तथा (गोमत:) = प्रशस्त गौओं से युक्त हैं।

    भावार्थ

    वेदवाणी का उच्चारण करते हुए हम अग्नि में घृत की आहुतियाँ दें। इससे जहाँ अग्नि-वायु आदि देवों की अनुकूलता होगी, वहाँ हमारे घर सब इष्ट वस्तुओं व गौओं से परिपूर्ण होंगे।

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    भाषार्थ

    (घृतवता इडया) घृतसम्पृक्त अन्न द्वारा (वयम्) हम (जुहूत:) आहुतियाँ देते हुए (देवान्) अग्नि आदि देवों का [यजन करते हैं], (यजे) मैं प्रत्येक गृहस्थी भी यज्ञ करता हूं। (अलुभ्यतः वयम्) निर्लोभी हुए हम (गोमतः) गौओंवाले (गृहान्) घरों में (उप) उपस्थित हुए (सं विशेम) मिलकर प्रवेश करें।

    टिप्पणी

    [नवनिर्मित गृहों में प्रवेश करने का कथन हुआ है। प्रवेश के लिये सबको अर्थात् प्रत्येक को गृहप्रवेश संस्कार करना चाहिए। गृहों में गोसम्पत्ति होनी चाहिए। गृहस्थियों को निर्लोभी होना चाहिए, ताकि भिक्षुकों और अतिथियों का वे सत्कार कर सकें। इडा= अन्न (निघं० २।७) अन्नाहुतियां घृतसम्पृक्त होनी चाहिए। सम्भवतः मन्त्र में नवसस्येष्टि का भी विधान हुआ है।]

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    विषय

    अष्टका रूप से नववधू के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    गृहस्थ पुरुषों को सदाचार का उपदेश करते हैं । (इडया) अन्न और भूमि से उत्पन्न हुए पवित्र पदार्थों का (जुह्वतः) दान प्रतिदान और अग्नि में आहुति देते हुए (वयं) हम (देवान्) देवगण अग्नि, वायु, जल आदि पदार्थों और विद्वान् पुरुषों को (घृतवता) घृत आदि पोषणकारी पदार्थों से (यजे) उनको संगत कर पुष्टिकारक करूं और उनका आदर करूं और (वयं) हम सब (गोमतः) गौ आदि पशुओं से सम्पन्न (गृहान्) गृहों में (अलुभ्यतः) एक दूसरे के पदार्थों का लोभ न करते हुए, निर्लोभ होकर (उप सं विशेम) परस्पर मिल कर एक दूसरे के समीप रहें ।

    टिप्पणी

    (च०) ‘दृषदे स्त्रपगोमते’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अष्टका देवताः । ४, ५, ६, १२ त्रिष्टुभः । ७ अवसाना अष्टपदा विराड् गर्भा जगती । १, ३, ८-११, १३ अनुष्टुभः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kalayajna for Growth and Prosperity

    Meaning

    With Nature, earth and the cow in sonance with us, with ghrta held in hand in plenty, with yajna of homage and reverence, we serve the divinities in love and faith. Let us, thus, free from greed and selfishness, with plenty of lands, cows and light of culture, come home and there abide in peace and joy.

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    Translation

    We entertain the enlightened ones with words of praise and with preparations made of clarified butter. Free from greed, may we enter houses rich with cows.

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    Translation

    In perform this Ashtaka Yajna for seasons, for the lords of the seasons (the fire, air and the Sun) for the months, for years, for nourishing power, for creative energy and for the fortune of Prosperity to make them favorable and worship the Lord of creatures.

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    Translation

    Performing Haven with cow’s milk, we adore the learned and purify the forces of nature. Free from covetousness, may we live together in homes full of kine.

    Footnote

    Forces of nature: fire, air, water.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(इडया)। म० ६। स्तुत्यया प्राप्तव्यया वा प्रकृत्या। (जुह्वतः)। हु दानादानादनेषु-शतृ। शसि रूपम्। होमम् आत्मसमर्पणं कुर्वतः। (वयम्)। पुरुषाः (देवान्)। विजिगीषून् व्यवहारकुशलान् वा पुरुषान्। (घृतवता)। दीप्तिमता सारयुक्तेन वा, कर्मणा-इति शेषः। (यजे)। तिङां तिङो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। इत्येकवचनं बहुवचने। यजामहे। पूजयामः। (गृहान्)। गृह ग्रहणे-क। गेहानि। (अलुभ्यतः)। लुभ गार्ध्ये=आकाङ्क्षाणाम् विमोहने च-शतृ, दिवादित्वात् श्यन्। शसि रूपम्। तृष्णारहितान् सर्वमनोरथयुक्तान्। (संविशेम)। सुखेन निवसेम। (उप)। उपेत्य। आगत्य। (गोमतः)। भूम्नि प्रशंसायां च मतुम्। बहुभिः प्रशस्ताभिर्गोभिर्युक्तान् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ঘৃতবতা ইডয়া) ঘৃতসম্পৃক্ত অন্ন দ্বারা (বয়ম্) আমরা (জুহুতঃ) আহুতি প্রদান করে (দেবান্) অগ্নি আদি দেবতাদের [যজন/যজ্ঞ করি], (যজে) আমি প্রত্যেক গৃহস্থীও যজ্ঞ করি। (অলুভ্যতঃ বয়ম্) নির্লোভী আমরা (গোমতঃ) গাভীসম্পন্ন (গৃহান্) ঘরে (উপ) উপস্থিত হয়ে (সং বিশেম) একসাথে প্রবেশ করি।

    टिप्पणी

    [নবনির্মিত গৃহে প্রবেশ করার কথন হয়েছে। প্রবেশের জন্য সবাইকে অর্থাৎ প্রত্যেককে গৃহপ্রবেশ সংস্কার করা উচিৎ। গৃহের মধ্যে গোসম্পত্তি হওয়া/থাকা উচিৎ। গৃহস্থদের নির্লোভী হওয়া উচিৎ, যাতে ভিক্ষুকদের এবং অতিথিদের সে সৎকার করতে পারে। ইডা=অন্ন (নিঘং০ ২।৭)। অন্নাহুতি ঘৃতসম্পন্ন হওয়া উচিত। সম্ভবতঃ মন্ত্রে নবসস্যেষ্টি এরও বিধান হয়েছে।]

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    मन्त्र विषय

    পুষ্টিবর্ধনায় প্রকৃতিবর্ণনম্

    भाषार्थ

    (ইডয়া) স্তুতিযোগ্য প্রকৃতি [এর বিদ্যা] দ্বারা (ঘৃতবতা=ঘৃতবতা কর্মণা) সারযুক্ত [কর্ম] এর দ্বারা (জুহ্বতঃ) হোম [আত্মসমর্পণ]কারী (দেবান্) দেবতাদের (বয়ম্) আমরা (যজে=যজামহে) পূজা করি [যাতে] (অলুভ্যতঃ) তৃষ্ণারহিত [নিরন্তর/সর্বদা পরিপুষ্ট] এবং (গোমতঃ) অনেক উত্তম-উত্তম গাভীর অধিকারী (গৃহান্) ঘরে/গৃহে (উপ=উপেত্য) এসে/উপনীত/উপস্থিত হয়, (বয়ম্) আমরা (সংবিশেম) সুখে থাকি॥১১॥

    भावार्थ

    সংসারের জ্ঞান দ্বারা উত্তম কর্মে আত্মদানী মহাত্মাদের আমরা আদরপূর্বক অনুগামী হই এবং সমস্ত কামনা ও ঘৃত দুগ্ধাদি পোষক পদার্থের প্রাপ্তি করে আনন্দ ভোগ করি ॥১১॥

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