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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भगः, आदित्याः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - कल्याणार्थप्रार्थना
    14

    प्रा॑त॒र्जितं॒ भग॑मु॒ग्रं ह॑वामहे व॒यं पु॒त्रमदि॑ते॒र्यो वि॑ध॒र्ता। आ॒ध्रश्चि॒द्यं मन्य॑मानस्तु॒रश्चि॒द्राजा॑ चि॒द्यं भगं॑ भ॒क्षीत्याह॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒त॒:ऽजित॑म् । भग॑म् । उ॒ग्रम् । ह॒वा॒म॒हे॒ । व॒यम् । पु॒त्रम् । अदि॑ते: । य: । वि॒ऽध॒र्ता । आ॒ध्र: । चि॒त् । यम् । मन्य॑मान: । तु॒र: । चि॒त् । राजा॑ । चि॒त् । यम् । भग॑म् । भ॒क्षि॒ । इति॑ । आह॑ ॥१६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रातर्जितं भगमुग्रं हवामहे वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता। आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रात:ऽजितम् । भगम् । उग्रम् । हवामहे । वयम् । पुत्रम् । अदिते: । य: । विऽधर्ता । आध्र: । चित् । यम् । मन्यमान: । तुर: । चित् । राजा । चित् । यम् । भगम् । भक्षि । इति । आह ॥१६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    बुद्धि बढ़ाने के लिये प्रभात गीत।

    पदार्थ

    (वयम्) हम (प्रातर्जितम्) प्रातःकाल में [अन्धकारादि को] जीतनेवाले (भगम्) सूर्य [समान] (उग्रम्) तेजस्वी (पुत्रम्) पवित्र, अथवा बहुविधि से रक्षा करनेवाले, अथवा नरक से बचानेवाले [परमेश्वर] को (हवामहे) बुलाते हैं, (यः) जो [परमेश्वर] (अदितेः) प्रकृति वा भूमि का (विधर्त्ता) धारण करनेवाला और (यम्) जिस [परमेश्वर] को (मन्यमानः) पूजता हुआ (आध्रः) सब प्रकार धारण योग्य कंगाल, (चित्) भी, और (तुरः) शीघ्रकारी बलवान् (चित्) भी, और (राजा) ऐश्वर्यवान् राजा (चित्) भी (इति) इस प्रकार (आह) कहता है, “(यम्) यश और (भगम्) धन को (भक्षि=अहं भक्षीय) मैं सेवूँ” ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य प्रातःकाल अन्धकार, आलस्यादि मिटाकर जीवों में नयी शक्ति देता है, ऐसे ही सब छोटे बड़े जीव और पृथिवी आदि लोक भी परमात्मा की शक्ति से अपनी अपनी शक्ति बढ़ाते हैं, उसीका धन्यवाद हम सब पिता पुत्रादि मिलकर गावें ॥२॥ ‘हवामहे’ के स्थान पर ऋग्वेद और यजुर्वेद में ‘हुवेम’ पद है ॥

    टिप्पणी

    २−(प्रातर्जितम्) सत्सूद्विष०। पा० ३।२।६१। इति प्रातर्+जि जये-क्विप्, तुक्। प्रातःकाले जयशीलम् अन्धकारादिकस्य। (भगम्) सूर्यं यथा। (उग्रम्) तेजस्विनम् (हवामहे) म० १। (पुत्रम्) अ० १।११।५। पूङ् शोधे क्त्र। यद्वा। पुरु यद्वा, पुत्+त्रैङ् रक्षणे-ड। पवित्रं बहुत्रातारं पुंतो नरकात् त्रातारं वा परमेश्वरम्। (अदितेः) अ० २।२८।४। प्रकृतेः पृथिव्या वा। (विधर्ता) विविधं धारकः पोषकः। (आध्रः) आङ्+धृञ्-क। आधारयितव्यो दरिद्रः। (चित्) अपि च। (यम्) परमेश्वरम्। (मन्यमानः) मन्यते, अर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। अर्चन्। पूजयन्। स्तुवन्। (तुरः) तुर वेगे, इगुपधलक्षणः कः। त्वरमाणः बलवान्। (राजा) अ० १।१०।२। ऐश्वर्यवान् पुरुषः। (यम्) या गतौ, यज देवपूजने, वा, यम परिवेषणे-ड। यशः। कीर्तिम्। (भगम्) धनम्, निघ० २।१०। (भक्षि) भज सेवायाम्, आत्मनेपदस्य आशीर्लिङि उत्तमैकवचने छान्दसं रूपम्। अहं भक्षीय। सेवेय। (इति) अनेन प्रकारेण। (आह) ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-लट्। ब्रवीति। प्रार्थयते, आध्रादीनां प्रत्येकम् ॥

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    विषय

    कौन-सा धन?

    पदार्थ

    १. हम (प्रात:) = प्रतिदिन प्रात:काल (जितम्) = पुरुषार्थ से कमाये (भगम्) = धन को (हवामहे) = पुकारते हैं, जोकि (उनम्) = हमें तेजस्वी बनता है। (वयम्) = हम उस धन को चाहते हैं जोकि (पुत्रम्) = [पुनाति त्रायते] हमें पवित्र करता और हमारा रक्षण करता है और (य:) = जो (अदिते:) = [अ+दिति] स्वास्थ्य का (विधर्ता) = विशेषरूप से धारण करनेवाला है। २. हम उस धन को चाहते हैं (यम्) = जिसे (आध: चित्) = पोषण योग्य भी (भक्षि इति आह) = 'मैं इसे खाता है ऐसा कहता है। इसके अतिरिक्त (मन्यमान:) = मनुष्यों के आदरणीय (तुर:) = बुराइयों के संहार में प्रवृत्त सुधारक पुरुष (चित्त) = भी इस धन में भागी होता है और (राजाचित्) = कर-रूप में राजा भी इसमें भाग ग्रहण करता है।

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    भाषार्थ

    (प्रातर्जितम्) प्रात:काल की उपासना में सर्वविजयी, (भगम्) ऐश्वर्यवाली तथा भजनीय, (उग्रम्) कर्मों के फल प्रदान में उग्र, (अदितेः पुत्रम्) वेदवाणी के पुत्र रूप परमेश्वर का (वयम् हवामहे) हम आह्वान करते हैं, (यः) जोकि (विधर्ता) विविध जगत् का धारण करता है, (आध्रः चित्) अतृप्त भी, (तुरः चित्) धन से प्रवृद्ध भी, (राजा चित्) राजा भी (मन्यमानः) परमेश्वर का मनन करता हुआ (यम् भगम्) जिस भजनीय के सम्बन्ध में (इति आह) यह कहता है कि (भक्षि) इसका भजन किया कर।

    टिप्पणी

    [अदिते: पुत्रम्=अदिति: वाङ्नाम (निघं० १।११), परमेश्वर अदिति अर्थात् वेदवाणी का पुत्र है, यतः वेदवाणी द्वारा वह प्रकट होता है। यथा "स वा ऋग्भ्योऽजायत तस्मादृचोऽजायन्त" अथर्व० (१३।४(४)।३८)। अर्थात् वह परमेश्वर निश्चय से ऋचाओं से पैदा हुआ है, यतः उससे ऋचाएँ पैदा हुई हैं। ऋचाएँ पैदा हुई निज उत्पादक को जताती हैं। ऋचाओं से पैदा होना, अदिति का पुत्र होना है। ऋचाएँ हैं वेद वाक् अर्थात् अदिति। आध्र:=आधारवितव्यो दरिद्रः (सायण)। तथा न ध्रायति, "ध्रै तृप्तौ", न तृप्यति स अध्रः, नञो दीर्घश्छान्दसः, यद्वा आ समन्तात् ध्र: आध्रः। यद्वा अध्र एव आध्रः स्वार्थे तद्धितः। आध्रः अतृप्तः बुभुक्षितो दद्धिः (महीधर)। तुर:= "तु" वृद्धौ, क्विप् लोपः; (अदादिः)+ र: (मत्वर्थीय:) यथा, मधुरः= मधु+रः (मत्वर्थीयः), मधुबाला।]

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    विषय

    नित्य प्रातः ईश्वरस्तुति का उपदेश ।

    भावार्थ

    (प्रातः) प्रातः पांच घड़ी रात्रि रहे तब (जितं) सदा जयशील, अथवा (प्रातर्जितं) प्रभातकाल में सब के हृदयों पर वश करने वाले (भगं) सब के सेवन करने योग्य (उग्रं) तेजस्वी, बलशाली, (अदितेः पुत्रं) इस आदित्य को भी गिरने से बचाने हारे, परमात्मा की हम (हवामहे) उपासना करते हैं (यः) जो (अदितेः) सूर्य आदि लोकों का (विधर्त्ता) विशेष रूप से धारण करने हारा है और (आध्रः चित्) दरिद्र पुरुष भी और (तुरः चित्) बलशाली, वेगवान् पुरुष और (राजा चित्) समृद्ध राजा भी (यं भगं) जिस सेवन, भजन करने योग्य ईश्वर को (मन्यमानः) अपना इष्टदेव स्वीकार करता हुआ (भक्षि इति आह) मैं उसका भजन उपासना करूं इस प्रकार कहा करता है।

    टिप्पणी

    ‘प्रातर्जितम्’ इति पदपाठानुसार्येकम्पदम्। दयानन्दमते तु प्रातरित्येकम्पदं जितमित्येकम् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । बृहस्पत्यादयो नाना देवताः । १ आर्षी जगती । ४ भुरिक् पंक्तिः । २, ३, ५-७ त्रिष्टुभः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    आध्यात्मिक दृष्टि- (प्रातः-जितम्) प्रातः जय कराने वाले मानव जीवन को सफल बनाने वाले - (उग्रं भगम्) तेजस्वी एवं भगवान् ऐश्वर्य के भागी बनाने वाले- (अदितेः पुत्रम्) अखण्ड सुखसम्पत्ति के बहुत रक्षक परमात्मा की “पुत्रम्- पुरुत्रम्-रु लोपश्छान्दस" (वयं हवामहे) हम स्तुति करें (यः-विधर्त्ता) जो विश्व का विशेष धारक है (यम्-ध्रः-चित्) जिसको दरिद्र भी (यं तुरः-चित्) जिसको वेगवान्-बलवान् भी (यं राजा चित्) जिसको राजा भी (यं भगं मन्यमानः) जिसको भग-भजनीय मानता हुआ (भक्षि-इत्याह) सेवन करूँ ऐसा कहता है व्यावहारिक दृष्टि- (प्रातः-जितम्) प्रातः-जय-उत्कर्ष कराने वाले (उग्रं भगम्) उद्गीर्ण-ऊपर गए हुए प्रवृद्ध अन्नादि ऐश्वर्य (दितेः पुत्रम ) पृथिवी के पुत्रसमान को "अदितिः पृथिवी नाम" (निघ० १।१) ( वयं हवामहे) हम प्रशंसित करते हैं (यः धर्त्ता) जो मनुष्यों को विशेष रूप से धारण करने वाला है (यम्-आधः चित्) जिसको दरिद्र भी (यंतुरः-चित्) जिसको बलवान् भी (यं राजा चित्) जिसको राजा भी (यं भगं मन्यमानः) जिसको भजनीय सेवन करने योग्य मानता हुआ (भक्षि-इत्याह) सेवन करूँ ऐसा कहता है ॥२॥

    विशेष

    अथर्ववेदानुसार ऋषि:- अथर्वा (स्थिरस्वभाव जन) देवता- लिङ्गोक्ता: (मन्त्रों में कहे गए नाम शब्द) ऋग्वेदानु सार ऋषिः- वसिष्ठ: (अत्यन्तवसने वाला उपासक) देवता- १ मन्त्रे लिङ्गोक्ताः (मन्त्रगत नाम) २–६ भग:- (भजनीय भगवान्) ७ उषाः (कमनीया या प्रकाशमाना प्रातर्वेला) आध्यात्मिक दृष्टि से सूक्त में 'भग' देव की प्रधानता है बहुत पाठ होने से तथा 'भग एव भगवान्' (५) मन्त्र में कहने से, भगवान् ही भिन्न-भिन्न नामों से भजनीय है। तथा व्यावहारिक दृष्टि से भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं व्यवहार में भिन्न-भिन्न रूप में उपयुक्त होने से।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Morning Prayer

    Meaning

    Early morning we invoke Bhaga, the glory of life, and pray for honour and prosperity, Bhaga, all victorious, lustrous child of Infinity, sustainer of the cosmic system which everybody whether poor and helpless, or fast and impetuous, or a ruling king, loves and honours and of which the Lord of Life says: Honour Bhaga, acquire power and glory won by effort and action and enjoy life.

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    Translation

    We invoke at dawn the powerful gracious bounty, āditya, the son of Mother Infinity, who is ‘the sustainer of the universe, to whom the-common man, even the opulent one ptaise and say: " give me (wealth) for my enjoyment".(Cf. Rv VII.41.2)

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    Translation

    At dawn we invoke the Victorious Mighty Bhaga, God, the only object of adoration, the Creator of the Sun which is situated in the atmosphere and the upholde and Sustainer of all, the knowner of all beings, the Imperial Ruler, the Chastiser of evild-doors. He admonishes us to worship Him so we invoke alone.

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    Translation

    We invoke God, Who is our brilliant Protector that dispels darkness at dawn. God is the sustainer of Matter. Each poor, strong man, and even a king worshipping Him, addresses thus May I get renown and riches.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(प्रातर्जितम्) सत्सूद्विष०। पा० ३।२।६१। इति प्रातर्+जि जये-क्विप्, तुक्। प्रातःकाले जयशीलम् अन्धकारादिकस्य। (भगम्) सूर्यं यथा। (उग्रम्) तेजस्विनम् (हवामहे) म० १। (पुत्रम्) अ० १।११।५। पूङ् शोधे क्त्र। यद्वा। पुरु यद्वा, पुत्+त्रैङ् रक्षणे-ड। पवित्रं बहुत्रातारं पुंतो नरकात् त्रातारं वा परमेश्वरम्। (अदितेः) अ० २।२८।४। प्रकृतेः पृथिव्या वा। (विधर्ता) विविधं धारकः पोषकः। (आध्रः) आङ्+धृञ्-क। आधारयितव्यो दरिद्रः। (चित्) अपि च। (यम्) परमेश्वरम्। (मन्यमानः) मन्यते, अर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। अर्चन्। पूजयन्। स्तुवन्। (तुरः) तुर वेगे, इगुपधलक्षणः कः। त्वरमाणः बलवान्। (राजा) अ० १।१०।२। ऐश्वर्यवान् पुरुषः। (यम्) या गतौ, यज देवपूजने, वा, यम परिवेषणे-ड। यशः। कीर्तिम्। (भगम्) धनम्, निघ० २।१०। (भक्षि) भज सेवायाम्, आत्मनेपदस्य आशीर्लिङि उत्तमैकवचने छान्दसं रूपम्। अहं भक्षीय। सेवेय। (इति) अनेन प्रकारेण। (आह) ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-लट्। ब्रवीति। प्रार्थयते, आध्रादीनां प्रत्येकम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (প্রাতর্জিতম্) প্রাতঃকালের উপাসনায় সর্ববিজয়ী, (ভগম্) ঐশ্বর্যশালী ও ভজনীয়, (উগ্রম্) কর্মফল প্রদানে উগ্র (অদিতেঃ পুত্রম্) বেদবাণীর পুত্ররূপ পরমেশ্বরের (বয়ম্ হবামহে) আমরা আহ্বান করছি/করি, (যঃ) যিনি (বিধর্তা) বিবিধ জগতকে ধারণ করেন/ধারণকারী/ধারক, (আধ্রঃ চিৎ) অতৃপ্তও, (তুরঃ চিৎ) ধনে-সম্পদে প্রবৃদ্ধও, (রাজা চিৎ) রাজাও (মন্যমানঃ) পরমেশ্বরের মনন করে (যম্ ভগম্) যে ভজনীয়-এর বিষয়ে (ইতি আহ) বলেন যে, (ভক্ষি) এর ভজন করো।

    टिप्पणी

    [অদিতেঃ পুত্রম্= অদিতিঃ বাঙ্নাম (নিঘং০ ১।১১), পরমেশ্বর হলেন অদিতি অর্থাৎ বেদবাণীর পুত্র, যতঃ বেদবাণী দ্বারা তিনি প্রকট হন। যথা "স বা ঋগ্ভ্যোঽজায়ত তস্মাদৃচোঽজায়ন্ত" অথর্ব০ (১৩।৪(৪)।৩৮)। অর্থাৎ সেই পরমেশ্বর নিশ্চিতরূপে ঋচা-সমূহ থেকে উৎপন্ন হয়েছেন, যতঃ উনার থেকে ঋচা-সমূহ উৎপন্ন হয়েছে। ঋচা-সমূহ উৎপন্ন হয়ে নিজ উৎপাদককে স্পষ্ট প্রদর্শন করায়। ঋচা-সমূহ থেকে জন্ম হওয়া, হলো অদিতির পুত্র হওয়া। ঋচা-সমূহ হল বেদবাক্ অর্থাৎ অদিতি। আধ্রঃ=আধারয়িতব্যো দরিদ্রঃ (সায়ণ)। এবং, ন ধ্রায়তি, "ধ্রৈ তপ্তৌ", ন তৃপ্যতি স অধ্রঃ, নঞো দীর্ঘশ্ছান্দসঃ, যদ্বা আ সমন্তাৎ ধ্রঃ আধ্রঃ। যদ্বা অধ্র এব আধ্রঃ স্বার্থে তদ্ধিতঃ। আধ্রঃ অতৃপ্তঃ বুভূক্ষিতো দরিদ্রঃ (মহীধর)। তুরঃ="তু" বৃদ্ধৌ, ক্বিপ্ লোপঃ; (অদাদি)+র্ (মত্বর্থীয়ঃ) যথা, মধুরঃ=মধু+ রঃ (মত্বর্থীয়ঃ), মধুযুক্ত/মধুসম্পন্ন।)]

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    मन्त्र विषय

    বুদ্ধিবর্ধনায় প্রভাতগীতিঃ

    भाषार्थ

    (বয়ম্) আমরা (প্রাতর্জিতম্) প্রাতঃকালে [অন্ধকারাদিকে] জয়কারী (ভগম্) সূর্য [সমান] (উগ্রম্) তেজস্বী (পুত্রম্) পবিত্র, অথবা বহুবিধিতে রক্ষাকারী, অথবা নরক থেকে উদ্ধারকারী [পরমেশ্বর]কে (হবামহে) আহ্বান করি, (যঃ) যিনি [পরমেশ্বর] (অদিতেঃ) প্রকৃতি বা ভূমি-এর (বিধর্ত্তা) ধারণকারী এবং (যম্) যে [পরমেশ্বর]কে (মন্যমানঃ) পূজা/স্তুতি করে (আধ্রঃ) সমস্ত প্রকার ধারণ যোগ্য কাঙাল, (চিৎ) ও, এবং (তুরঃ) শীঘ্রকারী বলবান্ (চিৎ) ও, এবং (রাজা) ঐশ্বর্যবান্ রাজা (চিৎ)(ইতি) এরকম (আহ) বলে, “(যম্) যশ ও (ভগম্) ধন (ভক্ষি=অহং ভক্ষীয়) আমি সেবা করি” ॥২॥

    भावार्थ

    যেমন সূর্য প্রাতঃকালে অন্ধকার, আলস্যাদি দূর করে জীবের মধ্যে নতুন শক্তি সঞ্চার করে, এভাবেই সমস্ত ছোটো বড়ো জীব এবং পৃথিবী আদি লোক ও পরমাত্মার শক্তির দ্বারা নিজেদের শক্তি বৃদ্ধি করে, উনার ধন্যবাদ আমরা সকলে পিতা পুত্রাদি একসাথে গায়ন করবো ॥২॥ ‘হবামহে’ এর স্থানে ঋগ্বেদ ও যজুর্বেদে ‘হুবেম’ পদ রয়েছে ॥

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