अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
ऋषिः - भृगुः
देवता - आज्यम्, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त
15
अ॒जम॑नज्मि॒ पय॑सा घृ॒तेन॑ दि॒व्यं सु॑प॒र्णं प॑य॒सं बृ॒हन्त॑म्। तेन॑ गेष्म सुकृ॒तस्य॑ लो॒कं स्व॑रा॒रोह॑न्तो अ॒भि नाक॑मुत्त॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒जम् । अ॒न॒ज्मि॒ । पय॑सा । घृ॒तेन॑ । दि॒व्यम् । सु॒ऽप॒र्णम् । प॒य॒सम् । बृ॒हन्त॑म् । तेन॑ । गे॒ष्म॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् । स्व᳡: । आ॒ऽरोह॑न्त: । अ॒भि । नाक॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् ॥१४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अजमनज्मि पयसा घृतेन दिव्यं सुपर्णं पयसं बृहन्तम्। तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम् ॥
स्वर रहित पद पाठअजम् । अनज्मि । पयसा । घृतेन । दिव्यम् । सुऽपर्णम् । पयसम् । बृहन्तम् । तेन । गेष्म । सुऽकृतस्य । लोकम् । स्व: । आऽरोहन्त: । अभि । नाकम् । उत्ऽतमम् ॥१४.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(दिव्यम्) दिव्य गुणवाले, (सुपर्णम्) बड़े पूर्ण शुभ लक्षणवाले (पयसम्) गतिवान् वा उद्योगी (बृहन्तम्) बड़े बली (अजम्) जीवात्मा को (घृतेन) प्रकाशमान (पयसा) ज्ञान से (अनज्मि) मैं [मनुष्य] संयुक्त करता हूँ। (तेन) उस [ज्ञान] से (उत्तमम्) उत्तम (नाकम्) दुःखरहित (स्वः) सुखस्वरूप परब्रह्म को (अभि= अभिलक्ष्य) लख कर (आरोहन्तः) चढ़ते हुए हम (सुकृतस्य लोकम्) पुण्य लोक को (गेष्म) खोजें ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य परमात्मा की दी हुई अद्भुत शक्तियों से अपना ज्ञान बढ़ावे, और उस आनन्दस्वरूप जगत्पति की अनन्त महिमा को खोजता हुआ निरन्तर उन्नति करके मोक्ष पद प्राप्त करे ॥६॥
टिप्पणी
६−(अजम्) म० १। अजनशीलम् जीवात्मानम् (अनज्मि) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु। म्रक्षयामि। मिश्रयामि (पयसा) पय गतौ-असुन्। ज्ञानेन (घृतेन) घृ भासे, सेके च-क्त। प्रकाशमानेन (दिव्यम्) प्रकाशार्हम्। मनोहरम् (सुपर्णम्) पॄ पूर्तिपालनयोः-न। शोभनानि पर्णानि पूर्णानि शुभलक्षणानि यस्य तम्-यथा दयानन्दभाष्ये य० १७।७२। (पयसम्) अत्यविचमि०। उ० ३।११७। इति पय गतौ-असच्। गतिशीलम्। उद्योगिनम् (बृहन्तम्) महान्तं बलिनम् (तेन) उक्तप्रकारेण (गेष्म) अ० ४।११।६। अन्विच्छाम (सुकृतस्य) शुभकर्मणः (लोकम्) स्थानम् अ० ४।११।६। (स्वः) सुखस्वरूपं परब्रह्म (आरोहन्तः) रुह-शतृ। अधिरोहन्तः (अभि) अभिलक्ष्य (नाकम्) दुःखशून्यम् (उत्तमम्) सर्वोत्कृष्टम् ॥
विषय
पयसा घृतेन
पदार्थ
१. (पयसा) = शक्तियों के आप्यायन के द्वारा तथा (घृतेन) = ज्ञानदीप्ति के द्वारा (अजम्) = गति के द्वारा सब बुराईयों को परे फेकने वाले प्रभु को (अनज्मि) = मैं प्राप्त होता हूँ | उस प्रभु को जो (दिव्यम्) = सदा ज्ञान के प्रकश में निवास वाले हैं, (सुपर्णम्) = उत्तमता से हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं,, (पयसम्) = आप्यान - बर्धन के करण हैं , (बर्हन्तम्) = स्वयं सदा बढ़े हुए हैं | २. (तेन) = उस प्रभु ले द्वारा - प्रभु की उपासना द्वारा (सुकृतस्य लोकम्) = पुण्य के लोक को (गेष्म) = जाएँ। (स्वः आरोहन्तः) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति की और आरोहण करते हुए हम (उत्तमं नाकम्) = दुःख-संस्पर्शशून्य उत्तम लोक की (अभि) = ओर जानेवाले हो | इसी नक्लोक से ऊपर उड़कर हम प्रभु को प्राप्त करेंगे।
भावार्थ
प्रभु-प्राप्ति का मार्ग यही है कि हम इन्द्रियों की शक्ति का वर्धन करें और ज्ञान प्राप्ति में लगे रहें।
भाषार्थ
(दिव्यम्) द्युलोक में भी विद्यमान, (सुपर्णम्) सुपालक, (पयसम्) दुग्धवत् पालक या जलवत् शान्तिप्रद, (बृहन्तम्) महतोमहान्, (अजम्) अकाय, नित्य, परमेश्वर को (पयसा) दुग्धाहुति द्वारा, तथा (घृतेन) घृताहुति द्वारा (अनज्मि) मैं अभिव्यक्त करता हूँ। (तेन) उस द्वारा (सुकृतस्य लोकम्) सुकर्मी के लोक को (गेष्म) हम जायें, पहुँचें (स्वः) स्वः पर (आरोहन्तः) आरोहण करते हुए, (उत्तमम्) तत्पश्चात् सर्वोपरि वर्तमान (नाकम् अभि) दुःख-संस्पर्श से रहित 'नाकलोक' को लक्ष्य करके, अभिमुख करके, संमुख करके। उत् है स्वर्लोक, उत्-तर है प्राजापत्यलोक, उत्-तम है त्रिभूमिक ब्रह्मलोक, अर्थात् 'नाक'। नाकम्=कम् (सुखम्) + अकम् (सुखाभाव)+नाकम् (अकम् का निषेध) (निरुक्त २।४।१४)।
विषय
‘अज’ प्रजापति का स्वरूपवर्णन।
भावार्थ
मैं (दिव्यं) दिव्य, (सुपर्णं) इन्द्रिय आदि के उत्तम पालक, (बृहन्तम्) महान् (पयसं) देह के सब अवयवादि के परिपोषक, (अजं) उस अज, आत्मा, जीवात्मा को (पयसा) ज्ञान श्रीर (घृतेन) दिव्य तेज से (अनज्मि) युक्त करता हूं (तेन) उस ज्ञानसम्पन्न तथा तेजःसम्पन्न आत्मा के बलसे हम (उत्तमम् माकम्) उतम सुखमय (स्वः) सुखधाम को (आ-रोहन्तः) जाते हुए (सुकृतस्य) पुण्य के (लोकं) लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को भी (गेष्म) प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। आाज्यमग्निर्वा देवता। १, २, ६ त्रिष्टुभः। २, ४ अनुष्टुभौ,३ प्रस्तार पंक्तिः। ७, ९ जगत्यौ। ८ पञ्चपदा अति शक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Light Spiritual
Meaning
With the homage of milk and ghrta in the sacred fire, I honour, celebrate and serve the Aja, unborn, eternal, infinite Divine Spirit of golden glory. May we, by the service and the light and grace of Agni, rising to the regions of bliss, reach the presence of Divinity, the state of infinite happiness.
Translation
I mix (anajmi) the goat, the old rich (aja) with milk and clarified butter} which is as if, a divine, strong- winged, huge bird. I anoint the goat, the heavenly huge eagle with milk and clarified butter. With his aid may we go to the world obtainable with pious deeds, ascending to the world of light, towards the best sorrowless world. (Since suparna or syena flies to the highest distance in the midspace, we in olden days had the tradition of constructing supara or Syena citis or fire-altars for cremation or burials)
Translation
I, through the means of milk and ghee (dropped in the fire of Yajna) attain the great Eternal Unbigotten Divinity who is transcendental, impellent and full of virtuous qualities, By His grace we ascending to the highest cope of the happiness overcome the state of salvation which is known as the state of pleasure attained through good acts.
Translation
I equip with Knowledge and luster, the divine, virtuous, enterprising, powerful unborn soul. With the help of that learned soul, keeping in view the Exalted Joyous God, may we, advancing spiritually seek for salvation, the abode of purity.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(अजम्) म० १। अजनशीलम् जीवात्मानम् (अनज्मि) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु। म्रक्षयामि। मिश्रयामि (पयसा) पय गतौ-असुन्। ज्ञानेन (घृतेन) घृ भासे, सेके च-क्त। प्रकाशमानेन (दिव्यम्) प्रकाशार्हम्। मनोहरम् (सुपर्णम्) पॄ पूर्तिपालनयोः-न। शोभनानि पर्णानि पूर्णानि शुभलक्षणानि यस्य तम्-यथा दयानन्दभाष्ये य० १७।७२। (पयसम्) अत्यविचमि०। उ० ३।११७। इति पय गतौ-असच्। गतिशीलम्। उद्योगिनम् (बृहन्तम्) महान्तं बलिनम् (तेन) उक्तप्रकारेण (गेष्म) अ० ४।११।६। अन्विच्छाम (सुकृतस्य) शुभकर्मणः (लोकम्) स्थानम् अ० ४।११।६। (स्वः) सुखस्वरूपं परब्रह्म (आरोहन्तः) रुह-शतृ। अधिरोहन्तः (अभि) अभिलक्ष्य (नाकम्) दुःखशून्यम् (उत्तमम्) सर्वोत्कृष्टम् ॥
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