अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
उत्स॒मक्षि॑तं॒ व्यच॑न्ति॒ ये सदा॒ य आ॑सि॒ञ्चन्ति॒ रस॒मोष॑धीषु। पु॒रो द॑धे म॒रुतः॒ पृश्नि॑मातॄं॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठउत्स॑म् । अक्षि॑तम् । वि॒ऽअच॑न्ति । ये । सदा॑ । ये । आ॒ऽसि॒ञ्चन्ति॑ । रस॑म् । ओष॑धीषु । पु॒र: । द॒धे॒ । म॒रुत॑: । पृश्नि॑ऽमातृन् । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्समक्षितं व्यचन्ति ये सदा य आसिञ्चन्ति रसमोषधीषु। पुरो दधे मरुतः पृश्निमातॄंस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठउत्सम् । अक्षितम् । विऽअचन्ति । ये । सदा । ये । आऽसिञ्चन्ति । रसम् । ओषधीषु । पुर: । दधे । मरुत: । पृश्निऽमातृन् । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पवन के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो [मरुत् देवता] (सदा) सदा (अक्षितम्) अक्षय (उत्सम्) सींचनेवाले जल को (व्यचन्ति) विविध प्रकार से पहुँचाते हैं, और (ये) जो (रसम्) रस को (ओषधीषु) अन्न आदि ओषधियों में (आसिञ्चन्ति) सींच देते हैं। (पृश्निमातॄन्) छूने योग्य पदार्थों को वा आकाश के नापनेवाले (मरुतः) उन वायु, देवताओं को (पुरो दधे) मैं सन्मुख रखता हूँ। (ते) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य वायु के गुणों में विज्ञान प्राप्त करके सदा आनन्दित रहें ॥२॥
टिप्पणी
२−(उत्सम्) अ० १।१५।३। सेचनसाधनं जलं वा (अक्षितम्) अक्षीणम् (व्यचन्ति) अञ्चु अचु गतौ याचने च, अन्तर्गतो ण्यर्थः। विविधं गमयन्ति (ये) मरुतः (सदा) पर्वदा (आसिञ्चन्ति) समन्तात् क्षारयन्ति वर्षयन्ति (रसम्) सारम् (ओषधीषु) व्रीहियवाद्यासु तरुगुल्मादिषु च (पुरोदधे) पुरस्ताद् धारयामि। भजामि। पूजयामि (मरुतः) दोषनाशकान् वायून् (पृश्निमातॄन्) घृणिपृश्निपार्ष्णि०। उ० ४।५२। इति स्पृश संस्पर्शे-नि। धातोः पृशू भावः। पृश्निः.... द्यौः संस्पृष्टा ज्योतिर्भिः पुण्यकृद्भिश्च-निरु० २।१४। ण्वुल्तृचौ। पा० ३।१।१३३। इति माङ् माने-तृच्। पृश्नीनां स्पर्शनीयानां पदार्थानाम्। अथवा। पृश्नेर्दिव आकाशस्य मातरो मानकर्तारः परिच्छेत्तारो ये तान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
अक्षित उत्स के विस्तारक' मरुत्
पदार्थ
१. आधिदैविक जगत् में 'मरुत्' वायुओं का नाम है। (ये) = जो मरुत् (सदा) = सदा (उत्सम्) = वृष्टिधारायुक्त मेघ को (अक्षितम्) = क्षयरहित, अर्थात् सदा प्रवृद्ध (व्यचन्ति) = अन्तरिक्ष में विस्तृत करते हैं और इनके द्वारा (ओषधीषु) = ओषधियों बनस्पतियों में (ये) = जो (रसम्) = वृष्टिजलरूप रस को (आसिञ्चन्ति) = समन्तात् सिक्त करते हैं। २. उन (पृश्निमातुन) = अन्तरिक्ष में होनेवाली माध्यमिका वाक् [मेघगर्जना] के बनानेवाले (मरुतः) = इन मरुतों को मैं (पुरः दधे) = सबसे प्रथम स्थापित करता हूँ। इनका मेरे जीवन में सर्वप्रथम स्थान है। इन मरुतों के अभाव में वृष्टि न होने पर सब प्राणियों का जीवन समास ही हो जाए। (ते) = वे मरुत् (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चन्तु) = छुड़ाएँ। अन्न के खूब होने पर किसी के भूखे न रहने से पापवृत्ति कम हो ही जाती है।
भावार्थ
मरुत् अन्तरिक्ष में मेषों का विस्तार करते हैं। उनके द्वारा ये ओषधियों में रस का सेचन करते हैं। इसप्रकार इन मरुतों का हमारे जीवन में प्रमुख स्थान है। ये हमें खूब अन्न प्राप्त कराके पाप-मुक्त जीवनवाला बनाएँ।
भाषार्थ
(ये) जो मानसून वायुएँ (सदा) सर्वदा (अक्षितम्) अक्षीण (उत्सम्) जल-स्रोत का (व्यचन्ति) विस्तार करती हैं, (ये) जो (ओषधीषु) ओषधियों में (रसम्) रस को (आ सिञ्चन्ति) सर्वत्र सींचती हैं, (पृश्निमातृन्) नाना वर्णों वाली पृथिवी की जो मातृरूप हैं, उन (मरुतः) मानसून वायुओं को (पुरोदधे) मैं अपने संमुख, सामने, लक्ष्यरूप में धारण करता हूँ, स्थापित करता हूँ, (ते) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।
टिप्पणी
[उत्सम्= उन्दतीति उत्सः (उणा० दशपादिवृत्तिः ९।२८), अर्थात् जल-प्रस्रवण स्थान। ये हैं नदियाँ, तथा सदा स्रावी स्रोत। पृश्नि:= भूमिः; सायण, (ऋ० भाष्य १।२३।१०) मानसून वायुएँ पृथिवी के लिए, मातृरूप में उसे उदक दुग्ध पिलाती हैं, जिससे पृथिवी की नदियाँ तथा स्रोत प्रस्रवित होते रहते हैं, अथवा "पश्नि", अर्थात् भूमि मानसून वायुओं की मातृरूप है। मानसूनवायुओं की उत्पत्ति पार्थिव जल-समुद्रों से ही होती है। 'मुञ्चन्तु' अभिप्राय मन्त्र १वत्। पुरोदधे= में वैज्ञानिक सदा ध्यान में रखता हूँ कि मानसून वायुएं अत्यधिक या अत्यल्प न हों, अपना यथोचित मात्रा में ही हों। देखो मन्त्र १ की व्याख्या।]
विषय
पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
मैं (पृश्नि-मातॄन्) पृश्नि=वाणी, माता, सरस्वती या ज्ञान सूर्य या पृथिवी माता की गोद से उत्पन्न हुए (मरुतः) वायुओं के समान सर्वोपकारक विद्वानों को (पुरः) साक्षात् (दधे) आदर से हृदय में धारता हूं, उनको साक्षी, पुरोहित करता हूं। (ये) जो विद्वान् गण (अक्षितं) अविनाशी (उत्सं) ज्ञान प्रवाह को (वि-अचन्ति) विस्तारित करते हैं और (सदा) निरन्तर (ये) जो लोग (ओषधीषु) ओषधियों में से (रसं) रस निकाल कर (आ-सिञ्चन्ति) जनों को पिलाते हैं अथवा ओषधियों में ही नाना रसों को प्रवेश कराते हैं (ते नः ०) वे हमें पाप से मुक्त करें। वायुओं के पक्ष में—जो वायुगण मेघ से अक्षय (उत्स) जल कोष को फैलाते हैं और वनस्पतियों में रसों को बरसाते हैं ऐसे (पृक्षिमातॄन्) मध्यमिका वाक् =विद्युत् माता से उत्पन्न, या आकाश में व्यापक इन तत्वों को मैं साक्षात् अपने वश करता हूं। दोनों पक्षों में विशेषणों का श्लेष स्पष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मृगार ऋषिः। नाना देवताः। पञ्चमं मृगारसूक्तम्। १-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin
Meaning
Children of nature, sun and sky are they who always increase and extend the inexhaustible waters from the cloud down to the sea and infuse the herbs with the sap of life. I keep them ever before my mind and meditate. May they save us from sin and distress so that we may never try to over-reach and fall instead of rising.
Translation
Who always increase the unexhaústing spring of water, who pour sap into plants; those maruts (cloud-bearing winds), sons of the mother midspace; I put forward. As such, may they free us from sin.
Translation
These are the Maruts which surround the inexhaustible fountain (the cloud), which ever bedew the herbaceous plaints with moisture and which are offshoots of the sun, I keep them to take their benefit. May they become the sources of delivering us from grief and troubles.
Translation
I chiefly honor the benevolent learned persons, the sons of the mother knowledge, who ever diffuse the never-failing fountain of wisdom and offer the essence of medicinal plants to men for drinking.
Footnote
May the powerful learned persons be auspicious to us, who, the knowers of truth, invigorate the milk of milch-kine, the sap of growing plants, the speed of coursers. May they deliver us from sin.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(उत्सम्) अ० १।१५।३। सेचनसाधनं जलं वा (अक्षितम्) अक्षीणम् (व्यचन्ति) अञ्चु अचु गतौ याचने च, अन्तर्गतो ण्यर्थः। विविधं गमयन्ति (ये) मरुतः (सदा) पर्वदा (आसिञ्चन्ति) समन्तात् क्षारयन्ति वर्षयन्ति (रसम्) सारम् (ओषधीषु) व्रीहियवाद्यासु तरुगुल्मादिषु च (पुरोदधे) पुरस्ताद् धारयामि। भजामि। पूजयामि (मरुतः) दोषनाशकान् वायून् (पृश्निमातॄन्) घृणिपृश्निपार्ष्णि०। उ० ४।५२। इति स्पृश संस्पर्शे-नि। धातोः पृशू भावः। पृश्निः.... द्यौः संस्पृष्टा ज्योतिर्भिः पुण्यकृद्भिश्च-निरु० २।१४। ण्वुल्तृचौ। पा० ३।१।१३३। इति माङ् माने-तृच्। पृश्नीनां स्पर्शनीयानां पदार्थानाम्। अथवा। पृश्नेर्दिव आकाशस्य मातरो मानकर्तारः परिच्छेत्तारो ये तान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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