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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मास्कन्दः देवता - मन्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सेनानिरीक्षण सूक्त
    12

    आभू॑त्या सह॒जा व॑ज्र सायक॒ सहो॑ बिभर्षि सहभूत॒ उत्त॑रम्। क्रत्वा॑ नो मन्यो स॒ह मे॒द्ये॑धि महाध॒नस्य॑ पुरुहूत सं॒सृजि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आऽभू॑त्या । स॒ह॒ऽजा: । व॒ज्र॒ । सा॒य॒क॒ । सह॑: । बि॒भ॒र्षि॒ । स॒ह॒ऽभू॒ते॒ । उत्ऽत॑रम् । क्रत्वा॑ । न॒: । म॒न्यो॒ इति॑ । स॒ह । मे॒दी । ए॒धि॒ । म॒हा॒ऽध॒नस्य॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । स॒म्ऽसृजि॑ ॥३१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आभूत्या सहजा वज्र सायक सहो बिभर्षि सहभूत उत्तरम्। क्रत्वा नो मन्यो सह मेद्येधि महाधनस्य पुरुहूत संसृजि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽभूत्या । सहऽजा: । वज्र । सायक । सह: । बिभर्षि । सहऽभूते । उत्ऽतरम् । क्रत्वा । न: । मन्यो इति । सह । मेदी । एधि । महाऽधनस्य । पुरुऽहूत । सम्ऽसृजि ॥३१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संग्राम में जय पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (वज्र) वज्ररूप ! (सायक) हे शत्रुओं के अन्त करनेवाले ! (सहभूते) हे सम्पत्ति के साथ वर्तमान ! (आभूत्या सहजाः) बिभूति के साथ-साथ उत्पन्न होनेवाला तू (उत्तरम्) अधिक उत्तम (सहः) बल (बिभर्षि) धारण करता है, (पुरुहूत) बहुतों से आवाहन किये हुए (मन्यो) क्रोध ! (महाधनस्य) बड़े धन प्राप्त कराने हारे संग्राम के (संसृजि) भिड़ जाने पर (क्रत्वा सह) बुद्धि के साथ (नः) हमारा (मेदी) स्नेही (एधि) हो ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य संग्राम में बुद्धिपूर्वक क्रोध करके विजयी होते हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(आभूत्या) विभूत्या (सहजाः) जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति जनी-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। सह जायते प्रादुर्भवतीति सहजाः (वज्र) अ० १।७।७। (सायक) षो अन्तकर्मणि-ण्वुल्, युक् च। हे अन्तकर (सहः) बलम् (बिभर्षि) धारयसि (सहभूते) आत्मना सह भूतिः सम्पत्तिर्यस्य तत्सबुद्धौ (उत्तरम्) उत्कृष्टतरम् (क्रत्वा) कृञः कतुः। उ० १।७६। क्रतुना कर्मणा-निघ० २।१। प्रज्ञया-निघ० ३।९। (नः) अस्माकम् (मन्वो) (सह) सार्धम् (मेदी) मेद-इनि। स्नेही (एधि) भव (महाधनस्य) महान्ति धनानि प्राप्यन्ते यस्मिन् तस्य महाधनस्य संग्रामस्य-निघ० २।१७। (पुरुहूत) हे बहुभिराहूत ! (संसृजि) सृज-क्विप्। संसर्गे संयोजने सति ॥

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    विषय

    'ऐश्वर्य के साथ उत्पन्न होनेवाला' ज्ञान

    पदार्थ

    १. (आभूत्या) = सब कोशों में व्याप्त होनेवाली भूति [ऐश्वर्य] के (सहजा:) = साथ उत्पन्न होनेवाले ज्ञान के प्रकट होने पर अन्नमयकोश तेज से पूर्ण होता है, प्राणमय वीर्य से पूर्ण होता है, मनोमय ओज व बल से भर जाता है, विज्ञानमय तो इस मन्यु से युक्त होता ही है, आनन्दमय सहस से परिपूर्ण बनता है, (वज्रः) = [वज गतौ] गति को उत्पन्न करनेवाले ज्ञान से जीवन गतिमय होता है। (सायक) = [षोऽन्तकर्मणि] सब बुराइयों का अन्त करनेवाले ज्ञान से सब मलिनताएँ नष्ट हो जाती हैं। (सहभूते) = भूति [ऐश्वर्य] के साथ निवास करनेवाले ज्ञान ! तू (उत्तरंसह बिभर्षि) = उत्कृष्ट बल को धारण करता है। हे (मन्यो) = ज्ञान! तू (क्रत्वा सह) = यज्ञ आदि उत्तम कर्मों के साथ (नः मेदी एधि) = हमारे साथ स्नेह करनेवाला हो। हम ज्ञान प्राप्त करके यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाले बनें। हे (पूरुहूत) = पालक व पूरक है पुकार जिसकी ऐसे ज्ञान! तू (महाधनस्य) = उत्कृष्ट ऐश्वर्य के (संसृजि) = निर्माण में हमसे [मेदी एधि] स्नेह करनेवाला हो! तुझे मित्र के रूप में पाकर हम उत्कृष्ट ऐश्वर्य का उत्पादन करनेवाले हों।

    भावार्थ

    ज्ञान ही सब ऐश्वर्यों का मूल है। यह उत्कृष्ट बल देता है, यह हमें क्रियाशील बनाकर हमारा सच्चा मित्र होता है।

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    भाषार्थ

    (वज्र) हे वज्ररूप! (सायक) हे शत्रुओं के लिए अन्तकारिन् ! (सहभूते) हे पराभव-शक्ति के साथ उत्पत्ति वाले! [मन्यु!] (आ भूत्या सहजा:) तू व्यापक विभूति, अर्थात् शौर्य के साथ उत्पन्न हुआ है, (उत्तरम्, सहः) उत्कृष्ट बल को (बिभर्षि) तू धारण करता है; (मन्यो) हे बोधयुक्त क्रोध! (क्रत्वो सह) निज कर्म के साथ, (नः) हमारा (मेदी) स्नेह करनेवाला (एधि) तू हो जा, (पुरुहूत) हे बहुत सैनिकों द्वारा आहूत! (महाधनस्य) जिसमें महाधन की उपलब्धि होती है उस संग्राम के (संसृजि) सर्जन में अर्थात् उसकी उपस्थिति हो जाने पर।

    टिप्पणी

    [सायक= साय: अन्तकारी कर्म, "षो" अन्तकर्मणि (दिवादिः)+कृ करोतीति (डः प्रत्यय:)। सहः बलनाम (निघं० २।९)।]

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    विषय

    मन्यु, सेनानायक, आत्मा।

    भावार्थ

    हे क्रोधवन् ! हे वज्रसम भयंकर ! हे (सायक) शत्रु के लिये बाणरूप ! हे (सहभूते) विभूति सम्पन्न ! सेनानायक ! (आ-भूत्या) विभूति के साथ (सह-जाः) स्वभाव से सम्बद्ध वा सहायकों के साथ प्रकट होने वाले ! तू (उत्तरं सहः) सब से अधिक विजय सामर्थ्य, बल को (विभर्षि) धारण करता है ! तू (क्रत्वा सह) बल के या कर्म के साथ सम्पन्न होकर (मेदी) हम प्रजाजन पर प्रेम प्रकट करने वाला है। हे (पुरुहूत) प्रजाओं से पुकारे गये सेनानायक ! तू (महा-धनस्य) महान् धन, प्रभूत ऐश्वर्य की (सं-सृजि) प्राप्ति के शुभ कार्य में (एधि) तत्पर हो, कमर कस।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मास्कन्द ऋषिः। मन्युर्देवता। १, ३ त्रिष्टुभौ। २, ४ भुरिजौ। ५- ७ जगत्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    High Spirit of Passion

    Meaning

    Twin brother of the ardour and glory of life, thunderbolt of divine humanity, unfailing targeted arrow, you bear the higher ardour of human love and passion for life. O Manyu, sweetest companion of living splendour universally invoked and adored, come to us with the force of unfailing yajnic action in the heat of the grand battle scene of life.

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    Translation

    You are born along with the prosperity. O thunderbolt, O subduer, O born out of vigour, you bear even superior vigour. O fervour or wrath, invoked by many, may you come to us full of affection with your activity at the time of battle, source of vast riches. (Also Rg. X.84.6)

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    Translation

    This warm emotion is splendid like lightning and rainbow. It is natural and is born with power. Born with power it bears the highest conquering might. Let this much incited in the battle be friendly to us in its spirit, and be helpful in attaining plentiful wealth.

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    Translation

    O dreadful like the bolt of thunder, O destroyer of foes, O full of wealth, born with divine power, the highest conquering might is thine. O persevering general, be friendly to us with thy wisdom, O much invoked, in mighty shock of battle, the bringer of rich bounty.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(आभूत्या) विभूत्या (सहजाः) जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति जनी-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। सह जायते प्रादुर्भवतीति सहजाः (वज्र) अ० १।७।७। (सायक) षो अन्तकर्मणि-ण्वुल्, युक् च। हे अन्तकर (सहः) बलम् (बिभर्षि) धारयसि (सहभूते) आत्मना सह भूतिः सम्पत्तिर्यस्य तत्सबुद्धौ (उत्तरम्) उत्कृष्टतरम् (क्रत्वा) कृञः कतुः। उ० १।७६। क्रतुना कर्मणा-निघ० २।१। प्रज्ञया-निघ० ३।९। (नः) अस्माकम् (मन्वो) (सह) सार्धम् (मेदी) मेद-इनि। स्नेही (एधि) भव (महाधनस्य) महान्ति धनानि प्राप्यन्ते यस्मिन् तस्य महाधनस्य संग्रामस्य-निघ० २।१७। (पुरुहूत) हे बहुभिराहूत ! (संसृजि) सृज-क्विप्। संसर्गे संयोजने सति ॥

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