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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मजाया छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
    23

    पु॑न॒र्दाय॑ ब्रह्मजा॒यां कृ॒त्वा दे॒वैर्नि॑किल्बि॒षम्। ऊर्जं॑ पृथि॒व्या भ॒क्त्वोरु॑गा॒यमुपा॑सते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒न॒:ऽदाय॑ । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒याम् । कृ॒त्वा । दे॒वै: । नि॒ऽकि॒ल्बि॒षम् । ऊर्ज॑म् । पृ॒थि॒व्या: । भ॒क्त्वा । उ॒रु॒ऽगा॒यम् । उप॑ । आ॒स॒ते॒ ॥१७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनर्दाय ब्रह्मजायां कृत्वा देवैर्निकिल्बिषम्। ऊर्जं पृथिव्या भक्त्वोरुगायमुपासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुन:ऽदाय । ब्रह्मऽजायाम् । कृत्वा । देवै: । निऽकिल्बिषम् । ऊर्जम् । पृथिव्या: । भक्त्वा । उरुऽगायम् । उप । आसते ॥१७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    [मनुष्य] (ब्रह्मजायाम्) वेदविद्या को (पुनर्दाय) अवश्य देकर और (देवैः) उत्तम गुणों के कारण (निकिल्विषम्) पाप से छुटकारा (कृत्वा) करके [पृथिव्याः] पृथिवी के (ऊर्जम्) बलदायक अन्न को (भक्त्वा) बाँट कर (उरुगायम्) बड़ी कीर्तिवाले परमात्मा को (उपासते) भजते हैं ॥११॥

    भावार्थ

    मनुष्य वेदविद्या द्वारा शुद्धचित्त होकर सब पदार्थों से उपकार करके परमात्मा की आज्ञा पालते रहते हैं ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(पुनर्दाय) अवश्यं दत्वा (ब्रह्मजायाम्) म० २। वेदविद्याम् (कृत्वा) विधाय (देवैः) दिव्यगुणैः (निकिल्विषम्) म० २। पापराहित्यम् (ऊर्जम्) बलकरमन्नम् (पृथिव्याः) भूमेः (भक्त्वा) भज भागे सेवायां च। विभज्य (उरुगायम्) अ० २।१२।१। उरु+गै गाने−घञ् बहुगीयमानं परमात्मानम् (उपासते) सेवन्ते ॥

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    विषय

    आदर्श संन्यासी

    पदार्थ

    १. वानप्रस्थ में (ब्रह्मजायाम्) = प्रभु से प्रादुर्भूत की गई वेदवाणी को (पुन: दाय) = फिर से औरों के लिए देकर तथा (देवै:) = दिव्य गुणों के धारण से (निकिल्बिषम् कृत्वा) = अपने जीवन को पाप रहित करके (पृथिव्याः) = इस पृथिवीरूपी शरीर के (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति का भक्त्वा सेवन करके (उरुगायम्) = खूब ही गायन के योग्य प्रभु का उपासते-उपासन करते हैं। २. आदर्श संन्यासी का कर्तव्य है कि वह [क] अपने जीवन को दिव्य, पापशून्य बनाये, [ख] शरीर को स्वस्थ व सबल रक्खे [ग] शक्ति की स्थिरता के लिए प्रभु का उपासन करे।

    भावार्थ

    हम देव बनें, पापों से दूर रहें, शरीर को स्वस्थ व सबल बनाएँ, प्रभु का उपासन करें। यही सच्चा संन्यास है।

     

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    भाषार्थ

    (देवैः) आचार्य-देवों द्वारा (निकिल्बिपम्) पापरहिता (कृत्वा ) करके, (ब्रह्मजायाम् ) ब्रह्मजाया को (पुनः दाय ) [ उसके माता-पिता आदि सम्बन्धियों के प्रति ] फिर वापस देकर, (पृथिव्याः) पृथिवी के (ऊर्जम्) बलदायक और प्राणदायक अन्न का (भक्त्वा) यथोचित विभाग करके, (उरुगायम्) बहुतों द्वारा गाये गये परमेश्वर की ( उपासते ) वे उपासना करते हैं।

    टिप्पणी

    [ब्रह्मजाया के विवाह के प्रकरण में जैसे ब्रह्मचारी का वर्णन हुआ है [मन्त्र ५], वैसे ही मन्त्र ११ में ब्रह्मचारिणी-ब्रह्मजाया का भी वर्णन हुआ है। ब्रह्मचारिणी को सदाचारसम्बन्धी शिक्षा द्वारा निष्पाप करके, उसके गुरु उसे फिर उसके सम्बन्धियों के प्रति वापस कर देते हैं। जिस ग्राम के गुरुकुल में उसने शिक्षा पाई है, उस ग्राम में उत्पन्न पार्थिव, अन्न का विभाजन, गुरुकुल के आचार्य तथा भूमिपति मिलकर कर लेते हैं ताकि गुरुकुल का भी पालन-पोषण हो सके और भूमिपतियों और ग्रामनिवासियों का भी पालन-पोषण हो सके। इस प्रकार वे सब जीवनचर्या निभाते हुए, परमेश्वर की उपासना में रत रहते हैं। ऊर्जम्= ऊर्क् अन्ननाम (निघं० २।७); तथा ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)।]

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    विषय

    ब्रह्मजाया या ब्रह्मशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (पुनर्दाय ब्रह्मजायाम्) व्यवस्था को सच्चे ब्राह्मणों के सुपुर्द करके, (कृत्वा देवैः निकिल्विषम्) और इन ब्राह्मण-देवों द्वारा राष्ट्र को पाप-रहित करके, (ऊर्ज पृथिव्याः भक्त्वा) और पृथिवी पर उत्पन्न अन्न का यथायोग्य विभाग या वास करके (उरुगायम् उपभासते) प्रजाजन महाकीर्ति प्रभु की उपासना में तत्पर होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मजाया देवताः। १-६ त्रिष्टुभः। ७-१८ अनुष्टुभः। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma-Jaya: Divine Word

    Meaning

    Thus do sages, scholars and noble people, serving and spreading the light of divine knowledge, and the Vedic Word, sanctified and energised for life’s purity, excellence and joy by Devas, serve Brahma, Lord Supreme, in order that they may enjoy and extend the wealth and creativity of mother earth and the environment.

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    Translation

    Restoring back the wife of the intellectual, having become free from sin through the enlightened ones, sharing the vigour of earth, they occupy wide-extending realms.

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    Translation

    The men of Brahmajaya’s parental side giving her to husband and making her thus a house-holding woman of puritan piollsness sharing the product and power of earth adore the most praiseworthy Lord of the universe.

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    Translation

    Having propagated the Vedic knowledge and freed themselves from sin, through fine traits; and having shared the invigorating food of the earth, the learned worship the Most Glorious God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(पुनर्दाय) अवश्यं दत्वा (ब्रह्मजायाम्) म० २। वेदविद्याम् (कृत्वा) विधाय (देवैः) दिव्यगुणैः (निकिल्विषम्) म० २। पापराहित्यम् (ऊर्जम्) बलकरमन्नम् (पृथिव्याः) भूमेः (भक्त्वा) भज भागे सेवायां च। विभज्य (उरुगायम्) अ० २।१२।१। उरु+गै गाने−घञ् बहुगीयमानं परमात्मानम् (उपासते) सेवन्ते ॥

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