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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्न्यादयः छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    19

    दि॒वस्त्वा॑ पातु॒ हरि॑तं॒ मध्या॑त्त्वा पा॒त्वर्जु॑नम्। भूम्या॑ अय॒स्मयं॑ पातु॒ प्रागा॑द्देवपु॒रा अ॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒व: । त्वा॒ । पा॒तु॒ । हरि॑तम् । मध्या॑त् । त्वा॒ । पा॒तु॒ । अर्जु॑नम् । भूम्या॑: । अ॒य॒स्मय॑म् । पा॒तु॒ । प्र । अ॒गा॒त् । दे॒व॒ऽपु॒रा: । अ॒यम् ॥२८.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवस्त्वा पातु हरितं मध्यात्त्वा पात्वर्जुनम्। भूम्या अयस्मयं पातु प्रागाद्देवपुरा अयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिव: । त्वा । पातु । हरितम् । मध्यात् । त्वा । पातु । अर्जुनम् । भूम्या: । अयस्मयम् । पातु । प्र । अगात् । देवऽपुरा: । अयम् ॥२८.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रक्षा और ऐश्वर्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (हरितम्) दरिद्रता हरनेवाला पुरुषार्थ (त्वा) तुझको (दिवः) सूर्य से (पातु) बचावे और (अर्जुनम्) अर्थसंग्रह (मध्यात्) मध्यलोक से (त्वा) तुझे (पातु) बचावे। (अयस्मयम्) प्राप्तियोग्य कर्म (भूम्याः) भूमि से (पातु) बचावे। (अयम्) यह पुरुष (देवपुराः) विद्वानों की अग्रगतियों को (प्र) अच्छे प्रकार (अगात्) पहुँचा है ॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य उत्तम पुरुषार्थ, प्रबन्ध और कर्म करते हैं, वे आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक विपत्तियों से बचकर विद्वानों के योग्य सुख भोगते हैं ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(दिवः) सूर्यात् (त्वा) यजमानम् (पातु) रक्षतु (हरितम्) म० १। दारिद्र्यहारकः पुरुषार्थः (मध्यात्) मध्यलोकात् (त्वा) (पातु) (अर्जुनम्) म० ५। अर्थसंग्रहः (भूम्याः) पृथिव्याः सकाशात् (अयस्मयम्) अयस्, म० १। स्वार्थे मयट्। प्राप्यं कर्म (पातु) (प्र) प्रकर्षेण (अगात्) अगमत् (देवपुराः) पुर अग्रगमने−क्विप्। ऋक्पूरब्धू०। पा० ५।४।७४। इति देव+पुर्−अप्रत्ययः, टाप्। विदुषाम् अग्रगतीः (अयम्) पुरुषार्थी जनः ॥

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    विषय

    देव-पुराः [देवों के अग्नगमन]

    पदार्थ

    १. (हरितम्) = अज्ञान को हरनेवाला 'कान, नाक, मुख' का (त्रिक त्वा) = तुझे (दिवः) = ज्ञान के हेतु से (पातु) = रक्षित करे। (अर्जुनम्) = यह चैदीला रजत-आनन्द का साधन 'मुख, त्वचा, हाथ' का त्रिक (त्वा) = तुझे (मध्यात्) = हृदय व उदर से (पातु) = रक्षित करे । तेरा यह त्रिक रञ्जन को मर्यादा में रखता हुआ तेरे हृदय व उदर को विकृत न होने दे। (अयस्मयम्) = 'पायु, उपस्थ व पाद' का त्रिक शरीर को दृढ़ बनाता हुआ (भूम्या) = इस शरीर के हेतु से (पातु) = तेरा रक्षण करे। इस त्रिक का समुचित कार्य शरीर को दृढ़ बनाना होता है। (अयम्) = धुलोक, मध्य व भूमि [मस्तिष्क, हृदय व उदर तथा शरीर] से रक्षित होनेवाला यह पुरुष (देवपुराः प्रागात्) = देवों की अग्रगतिवाला होता है, देवलोकों को प्राप्त करता है [पुर अग्रगमने, टाप]। देव जैसे आगे गतिवाले होते हैं-उन्नति पथ पर आगे बढ़ते हैं, उसी प्रकार यह उन देवपुरों को-देवों की अग्रगतियों को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    'हरित' ह्युलोक से, 'अर्जुन' मध्य से तथा 'अयस्' भूमि से हमारा रक्षण करे । यह रक्षित पुरुष देवों की अग्रगतियोंवाला हो।

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    भाषार्थ

    (दिवः) द्युलोक से (त्वा) तुझे (हरितम्) मनोहारी पीतवर्णी आदित्य (पातु) सुरक्षित करे, (मध्यात्) मध्य प्रदेश अर्थात् अन्तरिक्ष से (त्वा) तुझे (अर्जुनम् ) शुभ्र विद्युत् (पातु) सुरक्षित करे। (भूम्याः) भूमि से (अयस्मयम्) लोहमय अस्त्र-शस्त्र समूह (पातु) सुरक्षित करे, (अयम् ) सुरक्षित हुआ यह ( देवपुरा:) देवपुरियों को (प्रागात्) चला गया है, [उनमें प्रविष्ट हो गया है।]

    टिप्पणी

    [देवपुराः=देवों की पुरियाँ, दिव्य व्यक्तियों की पुरियाँ। यथा "अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः" (अथर्व० १०।२।३१) तथा (१०।२। ३२, ३३ ); ओर 'ब्रह्मण: पुरम्" (अथर्व० १०।२।२८-३०)। इनकी व्याख्या के लिए देखो मत्कृत अथर्ववेदभाष्य। देवपुराः =देवपुर् + टाप्, "टापं चैव हलन्तानाम्"। अर्जुनम् -="अहश्च कृष्णमह अर्जुनम् च" (ऋ० ६।९।१) तथा निरुक्त (२।६।२१)। अहः कृष्णम् = रात्रीः, अहः अर्जुनम् = दिन का काल। इस प्रकार अर्जुन का अर्थ 'शुभ्र' भी होता है। व्याख्येय मन्त्र में अर्जुनम् का अभिप्राय है, शुभ्र विद्युत्। 'त्वा' का अभिप्राय है तुझ मृत्युविजयी (मन्त्र ८) को।

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    विषय

    दीर्घ जीवन का उपाय और यज्ञोपवीत की व्याख्या।

    भावार्थ

    वैदिक परिभाषा में शरीर के तीन भागों का वर्णन करते हैं। (अयम्) यह पुरुष, आत्मा (देव-पुराः) नाना देवों की बसी इन भोग भूमियों में (प्र अगात्) उत्तम रीति से आता है। (हरितं) सुवर्ण = सात्विक भाव (त्वा) तुझ पुरुष को (दिवः पातु) द्यौः, मूर्धा-भाग या ऊपर के लोकों से रक्षा करें, (अर्जुनम्) अर्जुन, रजत = राजस अंश (त्वा) तुझको (मध्यात्) बीच के भाग से अन्तरिक्ष से (पातु) रक्षा करे। (अयस्मयं) लोहमय = तामस अंश तुझको (भूम्याः पातु) भूमि से रक्षित करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। त्रिवृत देवता। १-५, ८, ११ त्रिष्टुभः। ६ पञ्चपदा अतिशक्वरी। ७, ९, १०, १२ ककुम्मत्यनुष्टुप् परोष्णिक्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Longevity and the Sacred thread

    Meaning

    May the golden glory of nature’s sattva protect and promote you from the region of heaven. May the silver beauty of nature’s rajas protect and promote you from the middle region. May the iron strength of nature’s tamas protect and promote you from the regions of the earth. Thus does this soul reach the region of divinities.

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    Translation

    May the yellow one (gold) protect you from sky; may the white one (silver) protect you from the midspace; may the one made of iron protect you from the earth. This person has reached the fortress of the enlightened ones. .

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    Translation

    This soul enters in various bodies of the species taking birth (according its deserts and go Godly dispensation). Let go protect you O man! from the heat and light heavenly region, let silver guard you from middle region and let iron save you from the earth.

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    Translation

    Soul enters the body, endowed with different faculties of enjoyment.May thy virtuous (satvik) nature protect thee from the wrath of Sun, may thy passionate (Rajsik) nature protect thee from the onslaught of mid-air. May thy Tamas (dark) nature protect thee from calamities on the Earth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(दिवः) सूर्यात् (त्वा) यजमानम् (पातु) रक्षतु (हरितम्) म० १। दारिद्र्यहारकः पुरुषार्थः (मध्यात्) मध्यलोकात् (त्वा) (पातु) (अर्जुनम्) म० ५। अर्थसंग्रहः (भूम्याः) पृथिव्याः सकाशात् (अयस्मयम्) अयस्, म० १। स्वार्थे मयट्। प्राप्यं कर्म (पातु) (प्र) प्रकर्षेण (अगात्) अगमत् (देवपुराः) पुर अग्रगमने−क्विप्। ऋक्पूरब्धू०। पा० ५।४।७४। इति देव+पुर्−अप्रत्ययः, टाप्। विदुषाम् अग्रगतीः (अयम्) पुरुषार्थी जनः ॥

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