अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 13
ऐतु॑ प्रा॒ण ऐतु॒ मन॒ ऐतु॒ चक्षु॒रथो॒ बल॑म्। शरी॑रमस्य॒ सम्वि॑दां॒ तत्प॒द्भ्यां प्रति॑ तिष्ठतु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ए॒तु॒ । प्रा॒ण: । आ । ए॒तु॒ । मन॑: । आ । ए॒तु॒ । चक्षु॑: । अथो॒ इति॑ । बल॑म् । शरी॑रम् । अ॒स्य॒ । सम् । वि॒दा॒म् । तत् । प॒त्ऽभ्याम् । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒तु॒ ॥३०.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐतु प्राण ऐतु मन ऐतु चक्षुरथो बलम्। शरीरमस्य सम्विदां तत्पद्भ्यां प्रति तिष्ठतु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । एतु । प्राण: । आ । एतु । मन: । आ । एतु । चक्षु: । अथो इति । बलम् । शरीरम् । अस्य । सम् । विदाम् । तत् । पत्ऽभ्याम् । प्रति । तिष्ठतु ॥३०.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा के उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(प्राणः) प्राण, पुरुषार्थ [इसमें] (आ एतु) आवे, (मनः) मन (आ एतु) आवे, (अथो) और भी (चक्षुः) दृष्टि और (बलम्) बल (आ एतु) आवे। (तत्) उससे (अस्य) इस पुरुष का (शरीरम्) शरीर (विदां प्रति) बुद्धि की ओर (पद्भ्याम्) दोनों पैरों से (सम्) ठीक-ठीक (तिष्ठतु) खड़ा होवे ॥१३॥
भावार्थ
मनुष्य आत्मिक और शारीरिक बल प्राप्त करके और चेतन्य रहकर पुरुषार्थ करे ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(आ एतु) आगच्छतु (प्राणः) जीवनसामर्थ्यम् (मनः) मनोबलम् (आ एतु) (चक्षुः) दृष्टिः (अथो) अपि च (बलम्) शक्तिः (शरीरम्) देहः (अस्य) पुरुषस्य (सम्) सम्यक् (विदाम्) षिद्भिदादिभ्योऽङ्। पा० ३।३।१०४। इति विद ज्ञाने−अङ्, टाप्। बुद्धिम् (तत्) ततः पुरुषार्थात् (पद्भ्याम्) (प्रति) व्याप्य (तिष्ठतु) स्थितं समर्थं भवतु ॥
विषय
प्राण, मन, चक्षु, बल-वृद्धि
पदार्थ
१. इस शरीर में (प्राण: आ एतु) = प्रथम प्राण आये, फिर (मनः आ एतु) = मन का आगमन हो, (चक्षुः आ एतु) = तब आँख आदि इन्द्रियाँ प्राप्त हों, (अथो बलम्) = तत्पश्चात् शरीर में बल का सञ्चार हो। २. तब (अस्य) = इसका (शरीरम्) = शरीर (विदाम्) = बुद्धि को (सम्) = [पतु] सम्यक् प्रास हो। (तत्) = तब (पद्भ्याम् प्रतितिष्ठत) = पाँवों से प्रतिष्ठित हो-पाँवों पर खड़ा होकर कार्य करनेवाला हो|
भावार्थ
शरीर में क्रमश: 'प्राण, मन, चक्षु, बल व बुद्धि' का प्रवेश होता है और तब वह पाँवों पर प्रतिष्ठित होकर कार्यों को करने लगता है।
भाषार्थ
(ऐतु) आये (प्राणः) प्राण, (ऐतु मनः ) आये मन अर्थात् मननशक्ति, (ऐतु चक्षुः) आये दृष्टिशक्ति, (अथो) तथा (बलम् ) शारीरिक बल । (अस्य) इस रोगी के (शरीरम् ) शरीर को (सं विदाम् ) मैंने सम्यक् रूप में वापस प्राप्त कर लिया है, (तत्) वह शरीर (पद्भ्याम्) दोनों पेरों से (प्रति तिष्ठतु) दृढ़ता से खड़ा हो जाए, स्थित हो जाए। [सं विदाम्=सं (विद्लृ लाभे, तुदादिः)।]
विषय
आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ
इन्द्रियां किस प्रकार शरीर में कार्य करती हैं इसका उपदेश करते हैं। इस शरीर में प्रथम (प्राणः आ एतु) प्राण आता है, फिर (मनः आ एतु) मन, मननशक्ति आती हैं फिर (चक्षुः आ एतु) चक्षु दर्शनशक्ति अर्थात् उपलक्षण से आंख, नाक, कान, जिह्वा आदि इन्द्रियों में ज्ञानशक्ति का आगमन होता है। (अथो बलम्) और उसके पश्चात् बल, प्राणेन्द्रिय, हाथ, पांव, पेट आदि की शक्ति आती हैं। तब (अस्य) इस जीव का (शरीरम्) शरीर (विदां) बुद्धि को (सम्-एतु) प्राप्त होता है। (तत्) तब (पद्भ्यां) पैरों से (प्रति तिष्ठतु) यह शरीर खड़ा होने लगता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
God Health and Full Age
Meaning
Let prana come, let mind come, let vision come and let energy come. Let consciousness come to the body and then let the person stand on the feet.
Translation
May the vital breath come to him, may the mind come, may the sight and the strength also come to him. May his Body get restored and may that stand on its two feet.
Translation
Let vital air return, let mind return, let eyesight and vigor return. let all his body restore consciousness and let it stand upon its feet.
Translation
Let breath and mind return to it, let sight and vigor come again, let intellect be restored to its body, so that it may firmly stand upon its feet.
Footnote
‘It’ refers to the soul.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(आ एतु) आगच्छतु (प्राणः) जीवनसामर्थ्यम् (मनः) मनोबलम् (आ एतु) (चक्षुः) दृष्टिः (अथो) अपि च (बलम्) शक्तिः (शरीरम्) देहः (अस्य) पुरुषस्य (सम्) सम्यक् (विदाम्) षिद्भिदादिभ्योऽङ्। पा० ३।३।१०४। इति विद ज्ञाने−अङ्, टाप्। बुद्धिम् (तत्) ततः पुरुषार्थात् (पद्भ्याम्) (प्रति) व्याप्य (तिष्ठतु) स्थितं समर्थं भवतु ॥
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