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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 113/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - पूषा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापनाशन सूक्त
    12

    मरी॑चीर्धू॒मान्प्र वि॒शानु॑ पाप्मन्नुदा॒रान्ग॑च्छो॒त वा॑ नीहा॒रान्। न॒दीनां॒ फेनाँ॒ अनु॒ तान्वि न॑श्य भ्रूण॒घ्नि पू॑षन्दुरि॒तानि॑ मृक्ष्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मरी॑ची: । धू॒मान् ।प्र । वि॒श॒ । अनु॑ । पा॒प्म॒न् । उ॒त्ऽआ॒रान् । ग॒च्छ॒ । उ॒त । वा॒ । नी॒हा॒रान् । न॒दीना॑म् । फेना॑न् । अनु॑ । तान् । वि । न॒श्य॒ । भ्रू॒ण॒ऽघ्नि । पू॒ष॒न् । दु॒:ऽइ॒तानि॑ । मृ॒क्ष्व॒ ॥११३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरीचीर्धूमान्प्र विशानु पाप्मन्नुदारान्गच्छोत वा नीहारान्। नदीनां फेनाँ अनु तान्वि नश्य भ्रूणघ्नि पूषन्दुरितानि मृक्ष्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मरीची: । धूमान् ।प्र । विश । अनु । पाप्मन् । उत्ऽआरान् । गच्छ । उत । वा । नीहारान् । नदीनाम् । फेनान् । अनु । तान् । वि । नश्य । भ्रूणऽघ्नि । पूषन् । दु:ऽइतानि । मृक्ष्व ॥११३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 113; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पाप शुद्ध करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (पाप्मन्) हे पाप ! तू (मरीचीः) किरणों और (धूमान्) धूमों का (अनु) अनुकरण करके (प्र विश) प्रवेश कर, (उत) और (उदारान्) बड़े दाता वा ऊपर चढ़नेवाले मेघों (वा) और (नीहारान्) कोहरों को (गच्छ) प्राप्त हो। (नदीनाम्) नदियों के (तान्) उन (फेनान्) फेनों के (अनु) पीछे-पीछे (वि नश्य) विनष्ट हो जा। (पूषन्) हे पोषण करनेवाले विद्वान् ! (भ्रूणघ्नि) स्त्री के गर्भघाती रोग में [वर्त्तमान] (दुरितानि) कष्टों को (मृक्ष्व) दूर कर ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य, किरणों, धूम, मेघ, कुहरे और जल फेन की सूक्ष्मता और शीघ्र गति के अनुसार ब्रह्मचर्य आदि तप द्वारा सूक्ष्म पापों को बहुत शीघ्र नष्ट करके सुखी होवें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(मरीचीः) अ० ४।३८।५। अन्धकारनाशकान् किरणान् (धूमान्) अ० ६।७६।४। अग्निना काष्ठजातान् पदार्थान् (प्रविश) (अनु) अनुकृत्य (पाप्मन्) अ० ३।३१।१। पाति यस्मात्। हे पाप (उदारान्) उत्+आ+रा दाने क, यद्वा, उत्+ऋ गतिप्रापणयोः−घञ्। उत्कृष्टं समन्तात् जलस्य दातॄन् ऊर्ध्वं गतान् वा मेघान् (उत) (वा) चार्थे (नीहारान्) निपूर्वात् हरतेर्घञ्। उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्। पा० ६।३।१२२। इति दीर्घः। अवश्यायान् (नदीनाम्) सरिताम् (फेनान्) अ० १।८।१। बुद्बुदाकरान् पदार्थान् (अनु) अनुसृत्य (तान्) प्रसिद्धान् (वि नश्य) अदृष्टं भव। अन्यद् गतम्−अ० ६।११२।३ ॥

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    विषय

    पाप का विनाश

    पदार्थ

    १. हे (पाप्मन्) = पाप! तू (मरीची:) = सूर्य-किरणों में (अनुप्रविश) = प्रविष्ट हो-उन किरणों के सन्ताप से तू नष्ट हो जा, (धूमान्) = धुएँ में प्रविष्ट हो-धूम की भौति कम्पित होकर दूर चला जा, (उदारान्) = [उत् ऋगती] ऊपर गति करनेवाले उन मेघों में (गच्छ) = चला जा। (उत वा) = अथवा (नीहारान) = कोहरों को प्राप्त हो, कोहरे में विलीन होकर तु अदृष्ट हो जा। २. (नदीनाम) = नदियों के (तान्) = उन (फेनान् अनु) = फेनों [झागों] के पीछे (विनश्य) = तू नष्ट हो जा, अर्थात् हमसे तू दूर चला जा हमारा तुझसे किसी प्रकार का सम्बन्ध न रहे। ३. हे (पूषन्) = पोषक प्रभो! (भ्रूणधि) = गर्भ में ही जिसके सन्तान विनष्ट हो जाते हैं, उस स्त्री में (दुरितानि मूक्ष्च) = दुर्गति के कारणभूत पापों को आप नष्ट कर डालिए। किन्हीं पापों से जनित शरीर-विकारों को दूर करके आप इसे उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाला बनाइए।

    भावार्थ

    पाप हमें छोड़कर कहीं दूर प्रदेश में चला जाए। स्त्री पाप-जनित दोष से रहित होकर उत्तम सन्तान को जन्म दे।

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    भाषार्थ

    (पाप्मन्) हे पाप ! तूं (मरीचीः, धूमान्) मरीचियों और धूमों में (प्रविश) प्रवेश कर, (अनु) तत्पश्चात् (उदारान् गच्छ) उदारों को जा (उत वा) अथवा (नीहारन्) नोहारों को जा। (नदीनाम्) नदियों के (तान् फेनान्) उन फेनों को (विनश्य) प्राप्त कर। (अनु) तत्पश्चात् (पूषन) हे पुष्टिदायक परमेश्वर ! (दुरितानि) [सब के] दुष्फल पापों को (भ्रूणघ्नि) भ्रूण अर्थात् भरण-पोषण किये जा रहे उदरस्थ बच्चे का हनन करने वाली स्त्री में (मृक्ष्व) धो डाल। इस द्वारा "भ्रूण हनन" को महापाप सूचित किया है।

    टिप्पणी

    [मन्त्रप्रतिपादित 'मरीचीः धूमान्, तथा नीहारान्' आध्यात्मिक घटनाएं हैं। यथा "नीहारधूमार्कानलानिलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम्। एतानि रूपाणि पुरस्सरानि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे" (श्वेताश्व-उपनिषद्, अध्या० २।खण्ड ११)। मन्त्र और उपनिषद् में "मरीची:, धूम, नीहार" घटनाएं समान हैं। मन्त्रगत मरीची और उपनिषद् गत अकं अर्थात् सूर्य और शशी अर्थात् चान्द की रश्मियां, ये दोनों तत्त्व भी समान हैं। मन्त्र पठित नीहारान् और उपनिषद्-भगत नीहार भी एक ही तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं। ये उक्त तत्त्व योगाभ्यास में प्रकट होते हैं जोकि ब्रह्माभिव्यक्ति के पूर्वरूप हैं। उपनिषद् में अनल अर्थात् अग्नि और अनिल अर्थात् वायु, खद्योत अर्थात् ताराओं, विद्युत् तथा स्फटिक की अनुभूतियों का भी वर्णन हुआ है, जिन्हेंकि मन्त्र में निर्दिष्ट नहीं किया। मन्त्रोक्त अध्यात्मतत्त्वों के प्रकट हो जाने पर पाप विनष्ट हो जाते हैं यह वस्तुतः सत्य है। परन्तु कामनावश गर्भपात करना ऐसा पाप है जो कि वैदिक दृष्टि में विनष्ट नहीं होता। इस दुरित को तो गर्भपातिनी को भुगतना ही पड़ता है। फेनान्= फेनवत् अल्पकालावस्थायी। उदारान्१= उदार महात्मा। तथा मन्त्र में पाप करने की मानसिक प्रवृत्ति, इन्द्रियों और शरीर द्वारा किये गए पापकर्म और पापकर्मजन्य रोग-इन सब की निवृत्ति के प्राकृतिक उपायों का भी निर्देश किया है। "मरीचीः" द्वारा सूर्यरश्मि चिकित्सा का, “धूमान्" द्वारा यज्ञपूर्वक यज्ञोत्थ धूम का नासिका द्वारा सेवन का, और "नीहार" द्वारा जल को सूचित कर जलचिकित्सा का निर्देश हुआ है। तथा सूक्त के मन्त्र (१) में वर्णित "ग्राहि" पद द्वारा अङ्गों का जकड़न को सूचित कर "गठिया" रोग का निर्देश किया है। इस की निवृत्ति के उपाय भी मरीचीः आदि ही हैं। इन उपायों के साथ उदारचेतस् वैद्यों का परामर्श भी आवश्यक है।] [१. उदारान् = उदारचेतस् महात्मामों के पास तू जा, पाप विनाश के लिये। यथा "आप्नुहि श्रेयांसमति समं काम" (अथर्व० २।११।१-५)। विनश्य= वि+ नशत् व्याप्तिकर्मा (निघं० २।१८), व्याप्तिः= वि + आप्तिः प्राप्तिः।]

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    विषय

    पाप अपराध का विवेचन और दण्ड।

    भावार्थ

    (पाप्मन्) हे पाप मन वाले ! या पापी ! (मरीचीः) सूर्य की किरणों में तपने के लिये (प्रविश) तू स्वयं प्रवेश कर (धूमान्) अथवा धुँए में सांस घुटने के लिये प्रवेश कर, (उदारान् गच्छ) या उदारचित्त वाले तथा पवित्रात्माओं के पास उपदेश के निमित्त अथवा उद्यतास्त्रों के समीप आत्मदण्ड के निमित्त (नीहारान्) अथवा हार आदि भोग्य पदार्थों से सदा के लिये वञ्चित रह, (नदीनां फेनां अनु) नदियों के फेनों की नाई (तान् अनु) उन उपायों के अनुसार (वि नश्य) तू नष्ट होजा, क्योंकि हे पूषन् ! सूर्य के समान राजन् ! तू (दुरितानि) बुरे कर्मों को (भ्रूण-घ्नि) भ्रूण = वेदाज्ञा के भंग करने वाले पापी पुरुष में (मृक्ष्व) भांप लेता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। पूषा देवता। १,२ त्रिष्टुभौ। पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom by Knowledge

    Meaning

    O vile sin and evil, go to the rays of the sun and evaporate. Go after the smoke and be absorbed to naught. Go to the lofty clouds or to the mists and be lost, or float with foam of the seas, be dashed and disappear on the rocky shores. O lord of life and nourishment, Pusha, cleanse humanity of all sin and evils that destroy budding life in the womb.

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    Translation

    O evil, go and enter into sun’s-ray, or into smokes, or info vapours or into fogs. May you vanish into those foams of rivers O nourisher, may you remove the defects that destroy the embryo.

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    Translation

    Let the sin or evil enter the particles of light, let it pass on to vapors, let it go to clouds or the mists. Let it disappear in the foam of rivers and turn the evils, O learned man! to base-destroyer.

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    Translation

    O sinner, expose thyself to the burning rays of the Sun, or put thyself in the midst of strangulating smoke, or go to the pure, noble souls for instruction, or be deprived forever of serviceable things, or vanish like those evanescent foams of rivers. O King, turn away woes upon the murderer of a Vedic scholar.

    Footnote

    Griffith translates भ्रूणाघ्नas babe-destroyer.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(मरीचीः) अ० ४।३८।५। अन्धकारनाशकान् किरणान् (धूमान्) अ० ६।७६।४। अग्निना काष्ठजातान् पदार्थान् (प्रविश) (अनु) अनुकृत्य (पाप्मन्) अ० ३।३१।१। पाति यस्मात्। हे पाप (उदारान्) उत्+आ+रा दाने क, यद्वा, उत्+ऋ गतिप्रापणयोः−घञ्। उत्कृष्टं समन्तात् जलस्य दातॄन् ऊर्ध्वं गतान् वा मेघान् (उत) (वा) चार्थे (नीहारान्) निपूर्वात् हरतेर्घञ्। उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्। पा० ६।३।१२२। इति दीर्घः। अवश्यायान् (नदीनाम्) सरिताम् (फेनान्) अ० १।८।१। बुद्बुदाकरान् पदार्थान् (अनु) अनुसृत्य (तान्) प्रसिद्धान् (वि नश्य) अदृष्टं भव। अन्यद् गतम्−अ० ६।११२।३ ॥

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