अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 120/ मन्त्र 2
ऋषिः - कौशिक
देवता - अन्तरिक्षम्, पृथिवी, द्यौः, अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सुकृतलोक सूक्त
20
भूमि॑र्मा॒तादि॑तिर्नो ज॒नित्रं॒ भ्राता॒न्तरि॑क्षम॒भिश॑स्त्या नः। द्यौर्नः॑ पि॒ता पित्र्या॒च्छं भ॑वाति जा॒मिमृ॒त्वा माव॑ पत्सि लो॒कात् ॥
स्वर सहित पद पाठभूमि॑: । मा॒ता । अदि॑ति: । न॒: । ज॒नित्र॑म् । भ्रता॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒भिऽश॑स्त्या । न॒: । द्यौ: । न॒: । पि॒ता । पित्र्या॑त् । शम् । भ॒वा॒ति॒ । जा॒मिम् । ऋ॒त्वा । मा । अव॑ । प॒त्सि॒ । लो॒कात् ॥१२०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
भूमिर्मातादितिर्नो जनित्रं भ्रातान्तरिक्षमभिशस्त्या नः। द्यौर्नः पिता पित्र्याच्छं भवाति जामिमृत्वा माव पत्सि लोकात् ॥
स्वर रहित पद पाठभूमि: । माता । अदिति: । न: । जनित्रम् । भ्रता । अन्तरिक्षम् । अभिऽशस्त्या । न: । द्यौ: । न: । पिता । पित्र्यात् । शम् । भवाति । जामिम् । ऋत्वा । मा । अव । पत्सि । लोकात् ॥१२०.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
घर में आनन्द बढ़ाने का उपदेश।
पदार्थ
(अदितिः) अविनाशिनी प्रकृति (नः) हमारी (जनित्रम्) उत्पत्ति का निमित्त है, (भूमिः) सब के आधार पृथिवी के समान (माता) माता, (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्ती आकाश के समान (नः) हमारा (भ्राता) भ्राता, (द्यौः) प्रकाशमान सूर्य के समान (नः) हमारा (पिता) पिता (अभिशस्त्या=०−शस्याः) अपवाद से [अलग करके] (शम्) शान्तिकारक (भवाति) होवे, (जामिम्) बन्धुवर्ग को (ऋत्वा) पाकर (पित्र्यात्) पितरों, विज्ञानियों के प्रिय (लोकात्) समाज से (मा अव पत्सि) मैं कभी न गिरूँ ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर, परमेश्वररचित पदार्थों और माता-पिता आदि कुटुम्बियों का उपकार विचार कर उनकी यथावत् सेवा से मनुष्यसमाज में कीर्ति बढ़ावें ॥२॥
टिप्पणी
२−(भूमिः) सर्वाधारभूमितुल्या (माता) अ० ५।५।१। जननी (अदितिः) अ० २।२८।४। अविनाशिनी प्रकृतिः (नः) अस्माकम् (जनित्रम्) उत्पत्तिस्थानम् (भ्राता) अ० ४।४।५। भरणशीलः सहोदरः (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्तिलोकसदृशः (अभिशस्त्या) पञ्चम्यर्थे तृतीया। अपवादात् (नः) अस्माकम् (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्य इव (पिता) जनकः (पित्र्यात्) पितुर्यत्। पा० ४।३।७९। पितृ−यत्। रीङ् ऋतः। पा० ७।४।२७। रीङ्। पितॄणां विज्ञानिनां प्रियात् (शम्) शान्तिकारकः (भवाति) भवेत् (जामिम्) अ० २।७।२। बन्धुवर्गम् (ऋत्वा) प्राप्य (मा अव पत्सि) पद गतौ, माङि लुङि उत्तमैकवचने रूपम्। अवपन्नो मा भूवम् ॥
विषय
माता-पिता का आदर
पदार्थ
१. (भूमि:) = यह पृथिवी (माता) = हमारी माता है, (अदिति:) = अदीना देवमाता-कभी क्षीण न होनेवाली सूर्यादि देवों की उपादानभूत यह प्रकृति (नः जनित्रम्) = हमारे शरीर को जन्म देनेवाली है, (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्षलोक बृष्टि आदि के द्वारा भरण करने से (भ्राता) = भाई है। (द्यौः) = धुलोक (नः पिता:) = हमारा पिता है। ये सब (अभिशस्त्या) = अभिशंसन से-मिथ्यापवादजनित पाप से (न:) = हमें बचाकर (शं भवाति) = शान्ति प्राप्त करानेवाले हों। २. हे प्रभो! (जामिम् ऋत्वा) = रिश्तेदारों को प्राप्त करके उनके सम्पर्क में आकर मैं (पित्र्यात् लोकात् मा अवपत्सि) = पिता से प्राप्त होनेवाले प्रकाश से कभी पृथक् न हो, अर्थात् किन्हीं भी बन्धुओं की बातों में आकर पिता की अवज्ञा करनेवाला न बन जाऊँ।
भावार्थ
त्रिलोकी हमें मिथ्यापवादजनित पापों से बचाकर शान्ति प्रास करानेवाली हो। हम बन्धुवर्ग की बातों में आकर माता-पिता की अवज्ञा करनेवाले न बन जाएँ।
भाषार्थ
(भूमिः माता) भूमि सदृश [पालिका] माता, जो कि (न:) हमें (जनित्रम) शारीरिक जन्म देने वाली (अदितिः) तथा दीनता के भावों से रहित है, स्वावलम्ब स्वभाव वाली है, तथा (अन्तरिक्षम्, भ्राता) अन्तरिक्ष सदृश भरण पोषण करने वाला भाई (नः) हमें (अभिशस्त्या) मिथ्या अपवादों से [सापण] सुरक्षित करें। (द्यौः) द्युलोक के सदृश (पिता) पिता हमें (पित्र्यात्) पिता से प्राप्त होने वाले दोष से हटा कर (शम् भवाति) सुखदायक हो। [हे पुत्रः] हे पुत्र ! दोषों से रहित और (जामिम् ऋत्वा) कुलस्त्री को विवाह विधि से प्राप्त करके तू (लोकात्) सुकर्मी वर्ग के लोक से (मा) न (अवपत्सि) अवपतन कर, गिरावट को न प्राप्त हो।
टिप्पणी
[अदितिः= अदीना, देवमाता, देवसदृश पुत्रों की माता। शरीर इन्द्रियां तथा चित्त में जब रजस्-तमस् का प्राधान्य हो जाता है तो अभिशस्ति होती है, प्रकृति के सत्त्वगुण के अतिरेक में अभिशस्ति, अर्थात् निन्दा नहीं होती। अन्तरिक्ष वर्षा द्वारा जल प्रदान कर, भ्राता के सदृश भरण-पोषण करता है। जामिः "स्वसा कुलस्त्री वा" (उणा० ४।४४ दयानन्द) माता और भाई का समुचित आदर न करना, और प्रकृति के राजस-तामस भोगों में लिप्त रहना, - यह है अभिशस्ति, लोकापवाद, निन्दा का कारण।]
विषय
पापों का त्याग कर उत्तम लोक को प्राप्त होना।
भावार्थ
पूर्व मन्त्र में कही परिभाषाओं को और भी स्पष्ट करते हैं—(भूमिः) भूमि, सब का उत्पत्तिस्थान (अदितिः) अखण्डित या अदीन होकर (नः) हमारी (माता) माता के समान ही (जनित्रम्) हमें उत्पन्न करने वाली है। और (अन्तरिक्षम्) उसमें विचरने वाला वायु (भ्राता) हमारे भाई के समान हमें भरण पोषण करनेवाला है। और (द्यौः) यह आकाश या सूर्य (नः पिता) हमारे वीर्यसेक्ता पिता के समान ऊपर से जलवर्षक और प्रकाशप्रद या जीवनप्रद है। ये (नः) हमें (अभिशस्त्या) अपवाद से अथवा अभिशस्ति =चारों तरफ से आनेवाली पीड़ाजनक विपत्तियों से दूर करें और उनमें से प्रत्येक (शं भवाति) कल्याण और सुखकारी हो, और मैं (जामिम् ऋत्वा) अपनी भगिनी का संग करके (पित्र्यात्) परम पिता के (लोकात्) लोक से (मा अव पत्सि) न गिरूं। अथवा—(जामिम्) अपनी भगिनी का (ऋत्वा) संग करके (पित्र्यात् लोकात्) पिता के घर से, पितृकुल से (मा अव पत्सि) न गिर जाऊँ। अर्थात् मा बाप, भाई हमारा कल्याण करें और हम दोष या भगिनी आदि से निषिद्ध संग करके उनके अपवाद के पात्र न हों, प्रत्युत पुण्याचरण से अपने उत्तम कृत्य में प्रतिष्ठित बने रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौशिक ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता। १ जगती। २ पंक्ति:। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Happy Home
Meaning
Aditi, eternal nature, is our origin, earth our mother, heavenly light our father, sky our brother: may they save us from sin and imprecation, and give us peace and freedom of being. O man, born in such home and family, do not fall from this paradise of filial piety.
Translation
The indivisible earth is our mother, who gave us birth; the midspace is our brother, who protects us from ill fame; the sky is our father who saves us from paternal guilt. Having gone to relatives (for help), may I not fall down from the esteem of the people.
Translation
Earth is our mother, the matter is the primal cause of our birth, the firmament is like our brother, the heavenly region is like our father and let them become the sources of our safety from troubles. Let each of them be the source of peace for us and attaining the company of our kindred we may not fall from the status of our parent.
Translation
Earth is our Mother, Matter is our birth-place, Air is our brother, Sun is our Father. May all these save us from afflictions and conduce to our welfare Approaching our relatives, may we never forsake the company of the Almighty Father.
Footnote
Air is our brother as it is our constant companion like a brother. Sun is our father, as it nourishes us like a father through rain and its rays.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(भूमिः) सर्वाधारभूमितुल्या (माता) अ० ५।५।१। जननी (अदितिः) अ० २।२८।४। अविनाशिनी प्रकृतिः (नः) अस्माकम् (जनित्रम्) उत्पत्तिस्थानम् (भ्राता) अ० ४।४।५। भरणशीलः सहोदरः (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्तिलोकसदृशः (अभिशस्त्या) पञ्चम्यर्थे तृतीया। अपवादात् (नः) अस्माकम् (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्य इव (पिता) जनकः (पित्र्यात्) पितुर्यत्। पा० ४।३।७९। पितृ−यत्। रीङ् ऋतः। पा० ७।४।२७। रीङ्। पितॄणां विज्ञानिनां प्रियात् (शम्) शान्तिकारकः (भवाति) भवेत् (जामिम्) अ० २।७।२। बन्धुवर्गम् (ऋत्वा) प्राप्य (मा अव पत्सि) पद गतौ, माङि लुङि उत्तमैकवचने रूपम्। अवपन्नो मा भूवम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal