अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - गर्भदृंहणम्, पृथिवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गर्भदृंहण सूक्त
46
यथे॒यं पृ॑थि॒वी म॒ही दा॒धार॒ विष्ठि॑तं॒ जग॑त्। ए॒वा ते॑ ध्रियतां॒ गर्भो॒ अनु॒ सूतुं॒ सवि॑तवे ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । इ॒यम् । पृ॒थि॒वी । म॒ही । दा॒धार॑ । विऽस्थि॑तम् । जग॑त् । ए॒व । ते॒ । ध्रि॒य॒ता॒म् । गर्भ॑: । अनु॑ । सूतु॑म् । सवि॑तवे ॥१७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यथेयं पृथिवी मही दाधार विष्ठितं जगत्। एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । इयम् । पृथिवी । मही । दाधार । विऽस्थितम् । जगत् । एव । ते । ध्रियताम् । गर्भ: । अनु । सूतुम् । सवितवे ॥१७.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गर्भाधान का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (इयम्) इस (मही) बड़ी (पृथिवी) पृथिवी ने (विष्ठितम्) विविध प्रकार से स्थित (जगत्) जगत् को (दाधार) धारण किया है। (एव) वैसे ही (ते) तेरा (गर्भः) गर्भ (सूतुम्) संतान को (अनु) अनुकूलता से (सवितवे) उत्पन्न करने के लिये (ध्रियताम्) धारण किया जावे ॥४॥
टिप्पणी
४−(विष्ठितम्) विविधं स्थितम् (जगत्) चराचरात्मकं ससारम्। अन्यद् गतम् ॥
विषय
अनुसूतं सवितवे
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (इयम्) = यह (मही पृथिवी) = विशाल पृथिवी (भूतानाम्) = सब प्राणियों के (गर्भम्) = मूलभूत बीज को (आदधे) = धारण करती है (एव) = इसीप्रकार हे प्रियतमे! (ते) = तेरा (गर्भ:) = गर्भ घियताम् धारण किया जाए। यह गर्भ (अनु सूतं सवितवे) = पुत्र को अनुकूल समय पर जन्म देने के लिए हो। २.( यथा इयं मही पृथिबी) = जिस प्रकार यह विशाल पृथिवी इमान् वनस्पतीन् दाधार-इन वनस्पतियों को धारण करती है, (एव) = इसीप्रकार ते (गर्भ ध्रियताम्) = तेरा यह गर्भ धारण किया जाए और (अनु सूतुं सवितवे) = पुत्र को अनुकूल समय पर जन्म देनेवाला हो। ३. (यथा इयं मही पृथिवी) = जैसे यह विशाल पृथिवी (पर्वतान् गिरीन्) = इन बड़े पर्वतों और छोटी पहाड़ियों को दाधार-धारण करती है। इसीप्रकार तेरा गर्भ धारण किया जाए और वह अनुकूल समय पर सन्तान को जन्म देनेवाला हो। ४. (यथा इयं मही पृथिवी) = जैसे यह विशाल पृथिवी (विष्ठितं जगत् दाधार) = नाना प्रकार से विभक्त-व्यवस्थित चराचर जगत् को धारण करती है उसी प्रकार तेरा यह गर्भ धारण किया जाए और वह अनुकूल समय पर सन्तान को जन्म देनेवाला हो।
भावार्थ
माता पृथिवी के समान है। पृथिवी की भाँति ही सब भूतों के गर्भ को धारण करती है और अनुकूल समय पर सन्तान को जन्म देती है।
विशेष
अथर्वा ही अगले सूक्त का ऋषि है। इसमें यह 'ईर्ष्या' को एक महान् दोष के रूप में देखता है। माता में ईर्ष्या की वृत्ति गर्भस्थ बालक की मृत्यु का भी कारण बन जाती है, अत: ईर्ष्या के त्याग का उपदेश करते हैं
भाषार्थ
(यथा) जिस प्रकार ( इयम्, मही, पृथिवी) इस महती पृथिवी ने (विष्ठितम् ) विविध रूपों और विविध स्थानों में स्थित ( जगत् ) जङ्गम [तथा स्थावर] वस्तुओं को (दाधार) धारण किया हुआ है, (एवा= एवम्) इसी प्रकार ( ते गर्भः) हे पत्नी ! तेरा गर्भ ( ध्रियताम् ) धृत हो, स्थित हो, (अनु सूतुम्) उत्पत्तिविधि के अनुसार (सवितवे) पैदा होने के लिये।
विषय
गर्भधारण, प्रजनन-विद्या।
भावार्थ
(यथा इयम् मही पृथिवी) जिस प्रकार यह विशाल पृथिवी (विष्ठितम् जगत्) नाना प्रकार से विभक्त, व्यवस्थित चर अचर जीवित संसार को (दाधार) पालन पोषण करती है, सब को अन्न देती और पालती है (एवा ते ध्रियताम् गर्भः) इसी प्रकार हे स्त्रि ! तेरा गर्भ पालित पोषित रहे, मरे न, जिससे (अनु सूतुं सवितचे) बाद में पुत्र सन्तति उत्पन्न हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। गर्भगृहणं देवता। अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Garbhadrnhanam
Meaning
Just as this great mother earth bears this vast and various world of existence on the move, so may your womb firmly and dynamically bear the seed of life to mature and deliver the child.
Translation
As this vast earth bears thie multifarious (visthitam) living beings, so may your embryo form and develop for birth under favourable conditions.
Translation
Even as this mighty earth supports the variously dwelling world so may the embryo be borne in you, O wife, to deliver a child in due course.
Translation
Just as this mighty Earth supports the animate and inanimate world that dwells thereon, so may the germ of life be borne in thee that thou mayst bear a son.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(विष्ठितम्) विविधं स्थितम् (जगत्) चराचरात्मकं ससारम्। अन्यद् गतम् ॥
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