अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यातुधानक्षयण सूक्त
19
अभ॑यं मित्रावरुणावि॒हास्तु॑ नो॒ऽर्चिषा॒त्त्रिणो॑ नुदतं प्र॒तीचः॑। मा ज्ञा॒तारं॒ मा प्र॑ति॒ष्ठां वि॑दन्त मि॒थो वि॑घ्ना॒ना उप॑ यन्तु मृ॒त्युम् ॥
स्वर सहित पद पाठअभ॑यम् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । इ॒ह । अ॒स्तु॒ । न॒: । अ॒र्चिषा॑ । अ॒त्त्रिण॑: । नु॒द॒त॒म् । प्र॒तीच॑: । मा । ज्ञा॒तार॑म् । मा । प्र॒ति॒ऽस्थाम् । वि॒द॒न्त॒ । मि॒थ: । वि॒ऽघ्ना॒ना: । उप॑ । य॒न्तु॒ । मृ॒त्युम् ॥३२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अभयं मित्रावरुणाविहास्तु नोऽर्चिषात्त्रिणो नुदतं प्रतीचः। मा ज्ञातारं मा प्रतिष्ठां विदन्त मिथो विघ्नाना उप यन्तु मृत्युम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभयम् । मित्रावरुणौ । इह । अस्तु । न: । अर्चिषा । अत्त्रिण: । नुदतम् । प्रतीच: । मा । ज्ञातारम् । मा । प्रतिऽस्थाम् । विदन्त । मिथ: । विऽघ्नाना: । उप । यन्तु । मृत्युम् ॥३२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राक्षसों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(मित्रावरुणौ) हे प्राण और अपान ! [अथवा हे दिन और रात्रि !] (नः) हमारे लिये (इह) यहाँ पर (अभयम्) अभय (अस्तु) होवे, [तुम दोनों अपने] (अर्चिषा) तेज से (अत्त्रिणः) खा डालनेवालों को (प्रतीचः) उलटा (नुदतम्) हटा दो। वे लोग (मा) न तो (ज्ञातारम्) सन्तोषक पुरुष को और (मा) न (प्रतिष्ठाम्) प्रतिष्ठा को (विदन्त) पावें, (मिथः) आपस में (विघ्नानाः) मारते हुए (मृत्युम्) मृत्यु को (उप यन्तु) प्राप्त हों ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य अपने शारीरिक और आत्मिक बल और समय का ऐसा सुन्दर प्रयोग करें जिससे शत्रु लोग कही शरण न पावें और आपस में कट मरें ॥३॥
टिप्पणी
३−(अभयम्) भयराहित्यम् (मित्रावरुणौ) अ० १।२०।२। हे प्राणापानौ। अहोरात्रे (इह) अत्र (अस्तु) (नः) अस्मभ्यम् (अर्चिषा) तेजसा (अत्त्रिणः) अ० १।७।३। भक्षकान् (नुदतम्) प्रेरयतम् (प्रतीचः) अ० ३।१।४। प्रत्यङ्मुखान् (मा) निषेधे (ज्ञातारम्) ज्ञा चुरा० तोषे−तृच्। ज्ञापयितारं सन्तोषकम् (मा) (प्रतिष्ठाम्) आश्रयम् (मा विदन्त) विद्लृ लाभे−लुङ्, तकारश्छान्दसः। अविदन्। मा लभन्ताम् (मिथः) परस्परम् (विघ्नानाः) युधिबुधिदृशः किच्च। उ० २।९०। इति हन वधे−आनच् कित्। विघानका (उपयन्तु) प्राप्नुवन्तु (मृत्युम्) मरणम् ॥
विषय
'ज्ञान, ऐक्य, अजय्यता', मिथो विघ्राना उपयन्तु मृत्युम् अभय
पदार्थ
१. हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व नितेषता के दिव्य भावो! (इह) = यहाँ (न:) = हमारे राष्ट्र में (अभयम् अस्तु) = निर्भयता हो, किसी प्रकार के शत्रु के आक्रमण का भय न हो। ये मित्र और वरुण सब प्रजाओं का परस्पर एक्य और अविद्वेष (अर्चिषा) = तेजस्विता की ज्वाला से (अत्त्रिणः) = हमें खा जानेवाले शत्रुओं को (प्रतीचः नुदतम्) = पराङ्मुख करके भगा दें। प्रजाओं का परस्पर ऐक्य राष्ट्र को प्रबल व तेजस्वी बनाता है। उस तेज की ज्वाला में शत्रु भस्म हो जाते हैं। राष्ट्र में ऐक्य होने पर शत्रु आक्रमण का साहस ही नहीं करते। २. हमारे शत्रु (ज्ञातारं मा विदन्त) = ज्ञानी को मत प्राप्त करें-इन्हें कोई ज्ञानी नेता ही उपलब्ध न हो, (मा प्रतिष्ठाम्) = ये प्रतिष्ठा को प्राप्त न करें। इन्हें विजय का सम्मान प्राप्त न हो। ये (मिथः विघ्राना:) = परस्पर एक-दूसरे को विहत करते हुए (मृत्युम् उपयन्तु) = मृत्यु को प्राप्त करें।
भावार्थ
हम में एक्य हो। यह ऐक्य हमें शत्रुओं के लिए अजय्य बना दे। हमारे शत्रु परस्पर लड़ते-झगड़ते स्वयं समाप्त हो जाएँ। इन्हें कोई ज्ञानी, एकता का बल प्राप्त करानेवाला नेता न मिले।
विशेष
शत्रुओं का संघात करनेवाला यह व्यक्ति 'जाटिकायन' बनता है [जट संघाते]। यह प्रभु-स्तवन करता हुआ कहता है -
भाषार्थ
(मित्रावरुणौ) हे मित्र और वरुण ! (इह) इस जन्म में (न:) हुमें (अभयम्) अभय (अस्तु) हो, (अर्चिषा) तेज द्वारा (अत्रिणः) भक्षकों को (प्रतीचः) पराङ्मुख करके (नुदतम्) तुम धकेल दो, निरस्त कर दो। ये (प्रतिष्ठाम्) आवास भूमि को (मा) न (विदन्त) प्राप्त हों, ( मा) और न (ज्ञातारम्) जानने वाले को प्राप्त हों, (मिथ:) परस्पर ( विघ्नाना: ) एक-दूसरे का हनन करते हुए ( मूत्युम् उपयन्तु) मृत्यु के समीप चले जायं।
टिप्पणी
सर्व स्नेही परमेश्वर मित्र है, मिदि स्तेहने (चुरादिः), और पापों से निवारण करने वाला वह वरुण है। गुण-कर्म भेद से ही परमेश्वर के दो नाम हैं, अतः द्विवचन का प्रयोग है। निरुक्तकार यास्काचार्य स्थानभेद से तीन ही देवता मानते हैं, यथा "तिस्र एव देवता इति नैरुक्ताः" (निरुक्त ७।२।५) तीन स्थान हैं, पृथिवी अन्तरिक्ष और द्यौः । वेदोक्त अन्य देवताओं को इन्हीं तीन देवताओं के "कमजन्मान:" (निरुक्त ७।१।४) मानते हैं, भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले मानते हैं। इसी प्रकार व्याख्येय मन्त्र में एक ही परमेश्वर के दो स्वरूप कहे हैं। परमात्मा के रौद्ररूप के कारण उसे रुद्र कहा है (मन्त्र २), व ह दुष्कर्मियों के प्रति रुद्र रूप होता हुआ भी उन के प्रति मित्र रूप है, क्योंकि इस रुद्ररूप द्वारा दुष्कर्मी सत्पथगामी हो जाते हैं । मन्त्र में मित्र और वरुण के एक होने के कारण "अर्चिषा" में एकवचन है, नहीं तो द्विवचन का प्रयोग होना चाहिये था। अत्रिणः हैं ईर्ष्या, काम, क्रोध, मोह आदि । ये मानसिक शक्तियों और शरीर के मांस, रुधिर का मानों भक्षण करते रहते हैं, अद् भक्षणे। जब शरीर में इनको स्थिति ही न रही तो ज्ञातव्य के अभाव में ज्ञाता भी कौन होना हुआ "मा ज्ञातारम्" जोवन में क्रोध का हनन मैत्री भाव से हो जाता है, और मैत्रीभाव का हनन क्रोध भावना से। इस प्रकार ये "अत्रिणः" परस्पर हुनन करते हैं। अधिक मैत्री अर्थात् स्नेह भी मोहरूप होकर "अत्री" हो जाती है।
भाषार्थ
(मित्रावरुणौ) हे मित्र और वरुण ! (इह) इस जन्म में (न:) हमें (अभयम्) अभय (अस्तु) हो, (अर्चिषा) तेज द्वारा (अत्रिणः) भक्षकों को (प्रतीचः) पराङ्मुख करके (नुदतम्) तुम धकेल दो, निरस्त कर दो। ये (प्रतिष्ठाम्) आवास भूमि को (मा) न (विदन्त) प्राप्त हों, ( मा) और न (ज्ञातारम्) जानने वाले को प्राप्त हों, (मिथ:) परस्पर ( विघ्नाना: ) एक-दूसरे का हनन करते हुए ( मूत्युम् उपयन्तु) मृत्यु के समीप चले जायं।
टिप्पणी
सर्व स्नेही परमेश्वर मित्र है, मिदि स्तेहने (चुरादिः), और पापों से निवारण करने वाला वह वरुण है। गुण-कर्म भेद से ही परमेश्वर के दो नाम हैं, अतः द्विवचन का प्रयोग है। निरुक्तकार यास्काचार्य स्थानभेद से तीन ही देवता मानते हैं, यथा "तिस्र एव देवता इति नैरुक्ताः" (निरुक्त ७।२।५) तीन स्थान हैं, पृथिवी अन्तरिक्ष और द्यौः । वेदोक्त अन्य देवताओं को इन्हीं तीन देवताओं के "कर्मजन्मान:" (निरुक्त ७।१।४) मानते हैं, भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले मानते हैं। इसी प्रकार व्याख्येय मन्त्र में एक ही परमेश्वर के दो स्वरूप कहे हैं। परमात्मा के रौद्ररूप के कारण उसे रुद्र कहा है (मन्त्र २), व ह दुष्कर्मियों के प्रति रुद्र रूप होता हुआ भी उन के प्रति मित्र रूप है, क्योंकि इस रुद्ररूप द्वारा दुष्कर्मी सत्पथगामी हो जाते हैं । मन्त्र में मित्र और वरुण के एक होने के कारण "अर्चिषा" में एकवचन है, नहीं तो द्विवचन का प्रयोग होना चाहिये था। अत्रिणः हैं ईर्ष्या, काम, क्रोध, मोह आदि । ये मानसिक शक्तियों और शरीर के मांस, रुधिर का मानों भक्षण करते रहते हैं, अद् भक्षणे। जब शरीर में इनको स्थिति ही न रही तो ज्ञातव्य के अभाव में ज्ञाता भी कौन होना हुआ "मा ज्ञातारम्" जोवन में क्रोध का हनन मैत्री भाव से हो जाता है, और मैत्रीभाव का हनन क्रोध भावना से। इस प्रकार ये "अत्रिणः" परस्पर हुनन करते हैं। अधिक मैत्री अर्थात् स्नेह भी मोहरूप होकर "अत्री" हो जाती है।
विषय
दुष्टों के दमन का उपदेश।
भावार्थ
दुष्टों का विनाश करने के लिये भेद-नीति का उपदेश करते हैं—(मित्रावरुणौ) हे मित्र ! हे वरुण अर्थात् हे राजन् ! और हे सेनापते ! (इह) इस राष्ट्र में (अभयम् अस्तु) हमें सदा अभय रहे। (नः अत्रिणः) हमें खाजाने वाले दुष्ट पुरुषों को (अर्चिषा) अपने चमचमाते तेजस्वी अच्च से (प्रतीचः) पीछे, उल्टे पैर (नुदतम्) फेर दो। वे लोग (मा ज्ञातारं विदन्त) किसी भी ज्ञानी को अपने नेता होने के लिये प्राप्त न करें प्रत्युत सदा मूर्खता में पड़े रहें। (मा प्रतिष्ठां विदन्त) वे कभी मान, आदर और प्रतिष्ठा, दृढ़स्थिति या कीर्ति को प्राप्त न करें। बल्कि (मिथः) परस्पर (विघ्नानाः) एक दूसरे को विरोध से मारते हुए स्वयं (मृत्युम् उप यन्तु) मौत को प्राप्त होजायें। वे आपस में लड़कर अपना नाश करलें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-२ चातन ऋषिः। अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १-२ त्रिष्टुभौ। २ प्रस्तार पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Germs and other Organisms
Meaning
O Mitra and Varuna, sun and air, sun and the physician, prana and apana energies of nature, let there be peace and security for us here. Force back the devitalizing and life threatening germs and insects. Let them find no intelligent ally, no stability, and let them, mutually conflictive and self-destroying, meet their death.
Subject
Mitra - Varuna Pair
Translation
O Lord friendly and venerable (Mitra-Varuna) may there be freedom from fear for us here. May you thrust back the devourers with your glare. May they not reach the wise one, nor the stability. Attacking each other, may they go down to death.
Translation
Let the exhaling and inhaling breaths create safety in this body, let them drive backwards the germs consuming the body with their splendor, let them not come nearour soul, the knower, let them not attain refuge and let them embrace their own death troubling each other.
Translation
O King and Commander-in-chief, may we dwell in this country free from fear. With your glittering weapon drive the greedy demons backward. Let them not find a wise leader or a refuge, but fighting together let them go down to Death.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अभयम्) भयराहित्यम् (मित्रावरुणौ) अ० १।२०।२। हे प्राणापानौ। अहोरात्रे (इह) अत्र (अस्तु) (नः) अस्मभ्यम् (अर्चिषा) तेजसा (अत्त्रिणः) अ० १।७।३। भक्षकान् (नुदतम्) प्रेरयतम् (प्रतीचः) अ० ३।१।४। प्रत्यङ्मुखान् (मा) निषेधे (ज्ञातारम्) ज्ञा चुरा० तोषे−तृच्। ज्ञापयितारं सन्तोषकम् (मा) (प्रतिष्ठाम्) आश्रयम् (मा विदन्त) विद्लृ लाभे−लुङ्, तकारश्छान्दसः। अविदन्। मा लभन्ताम् (मिथः) परस्परम् (विघ्नानाः) युधिबुधिदृशः किच्च। उ० २।९०। इति हन वधे−आनच् कित्। विघानका (उपयन्तु) प्राप्नुवन्तु (मृत्युम्) मरणम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal