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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 62/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पावमान सूक्त
    39

    वै॑श्वान॒रीं सू॒नृता॒मा र॑भध्वं॒ यस्या॒ आशा॑स्त॒न्वो वी॒तपृ॑ष्ठाः। तया॑ गृ॒णन्तः॑ सध॒मादे॑षु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒रीम् । सू॒नृता॑म् । आ । र॒भ॒ध्व॒म् । यस्या॑: । आशा॑: । त॒न्व᳡: । वी॒तऽपृ॑ष्ठा: । तया॑ । गृ॒णन्त॑: । स॒ध॒ऽमादे॑षु । व॒यम् । स्या॒म॒ । पत॑य: । र॒यी॒णाम् ॥६२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरीं सूनृतामा रभध्वं यस्या आशास्तन्वो वीतपृष्ठाः। तया गृणन्तः सधमादेषु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानरीम् । सूनृताम् । आ । रभध्वम् । यस्या: । आशा: । तन्व: । वीतऽपृष्ठा: । तया । गृणन्त: । सधऽमादेषु । वयम् । स्याम । पतय: । रयीणाम् ॥६२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 62; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    धन और नीरोगता का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यो !] (वैश्वानरीम्) सब नरों का हित करनेवाली (सूनृताम्) प्रिय सत्य वेदवाणी को (आ रभध्वम्) तुम आरम्भ करो, (यस्याः) जिसके (तन्वः) शरीर के (आशाः) विस्तार (वीतपृष्ठाः) सेचन सामर्थ्य पहुँचानेवाले हैं। (तथा) उस [वेदवाणी] से (सधमादेषु) परस्पर आनन्द उत्सवों पर (गृणन्तः) बातचीत करते हुए (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) धनों के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य वेदविद्या का सर्वत्र प्रचार करके विद्या धन और सुवर्णादि धन बढ़ावें ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है=अ० १९।४४ ॥

    टिप्पणी

    २−(वैश्वानरीम्) अ० १।१।४। वैश्वानर−ङीप्। सर्वनरहिताम् (सूनृताम्) अ० ३।१२।२। प्रियसत्यात्मिकां वेदवाणीम्। (आरभध्वम्) उपक्रमध्वम् (यस्याः) सूनृतायाः (आशाः) आङ्+अशू व्याप्तौ−अच्, टाप्। विस्ताराः (तन्वः) अ० १।१।१। तन्वाः शरीरस्य। स्वरूपस्य (वीतपृष्ठाः) वी गतिव्याप्त्यादिषु−क्त। तिथपृष्ठ०। उ० २।१२। इति पृषु सेचने−थक्। (तया) सूनृतया (गृणन्तः) गॄ शब्दे−शतृ। शब्दयन्तः (सधमादेषु) सह+मदी हर्षग्लेपनयोः−घञ्। सधमादस्थयोश्छन्दसि। पा० ६।३।९६। सहर्षोत्सवेषु (वयम्) वेदानुगामिनः (स्याम) भवेम (पतयः) स्वामिनः (रयीणाम्) बहुधनानाम् ॥

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    विषय

    वैश्वानरी वाणी का अध्ययन

    पदार्थ

    १. (वैश्वानरीम्) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले प्रभु से दी गई (सूनृताम्) = उत्तम, दुःखों का परिहाण करनेवाली व सत्य [सु+ऊन+ऋत] वेदवाणी को (आरभध्वम्) = आरम्भ करो, इसका अध्ययन आरम्भ करो, (यस्याः) = जिस वेदवाणी की (आशा:) = दिशाएँ (तन्व:) = विस्तारवाली हैं तथा (वीतपृष्ठा:) = दीस व विस्तीर्ण पृष्ठवाली हैं-इस वेदवाणी का ज्ञान अनन्त व दीस है। २. (तया) = उस वेदवाणी से (सधमादेषु) = आनन्दपूर्वक मिलकर बैठने के अवसरों पर (गृणन्त:) = प्रभुस्तवन करते हुए (वयम्) = हम (रयीणाम्) = धनों के (पतयः स्याम) = पति हों-दास न बन जाएँ।

    भावार्थ

    हम वेदवाणी का अध्ययन करें। यह वेदवाणी अनन्त ज्ञानवाली है। मिलकर बैठने के अवसरों पर इस वाणी द्वारा हम प्रभुस्तवन करें और इस संसार में धनों के दास न बनकर उनके स्वामी बनें।

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    भाषार्थ

    (वैश्वानरीम्) सब नर-नारियों के लिये हितकारिणी, (सूनृताम्) प्रिय सत्य वेदवाणी [का स्वाध्याय] (आरभध्वम्) आरम्भ करो, (यस्याः) जिस वेदवाणी सम्बन्धी (आशाः) आशाएं, इच्छाएं (तन्वः) विस्तृत हैं, और (वीतपृष्ठाः) त्रिलोकी की पीठ अर्थात् द्युलोक तक व्यापिनी हैं। (तया) उस वेदवाणी द्वारा (सधमादेषु) सामाजिक हर्षों अर्थात् उत्सवों में (गृणन्तः) परमेश्वर की स्तुति करते हुए (वयम्) हम (रयीणाम्, पतय: स्याम) ऐश्वर्यों के स्वामी हों।

    टिप्पणी

    [सूनृताम्=प्रिय सत्यात्मिकां वाचम् (सायण)। आशा: इच्छाः, आङः शीसु इच्छायाम् (अदादिः)। वीतपृष्ठाः= वी (व्याप्तौ, अदादिः) + क्तः; पृष्ठ =त्रिलोकी की पृष्ठ है द्यौः। वेदप्रोक्त [परमेश्वरीय] इच्छाएं, अभिलाषाएं द्युलोकस्थ "स्वः", अर्थात् सुख विशेष की प्राप्ति के लिये भी हैं। सधमादेषु= सहस्य सधादेशः + मदी हर्षे (भ्वादिः)]।

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    विषय

    आभ्यन्तर शुद्धि का उपदेश।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! (वैश्वानरीम्) उस ईश्वर विषयक (सूनृताम्) शुभ सत्यमयी वाणी रूप देवी, वेद को (आरभध्वम्) प्रारम्भ करो, उसका नित्य अभ्यास करो। (वीतपृष्टाः) प्रकाशमय पृष्ठवाली (आशाः) दिशाएं (यस्याः) जिसके (तन्वः) शरीर हैं अर्थात् जिनका ज्ञान सर्वत्र व्यापक है। (तथा) उस वेदवाणी से ही (सधमादेषु) एकत्र आनन्द प्राप्त करने के अवसरों में (गृणन्तः) उपदेश करते हुए (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) सर्व सम्पत्तियों के (पतयः) स्वामी (स्याम) हों।

    टिप्पणी

    (प्र०, द्वि०) ‘वैश्वदेवी पुनती देव्यागाद् यस्यामिमा बह्वयः तन्वो वीतपृष्ठाः। तया मदन्तः सधमादेषु’ इति यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्र उत मन्त्रोक्ता देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Purity

    Meaning

    Love, join and live by the universal human voice of Divinity and cosmic truth, the bounds of whose body are boundless. With that, celebrating and exalting ourselves and Divinity in festive congregations of yajnic programmes, may we be masters of wealth, honour and excellence.

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    Translation

    Start,.O men, reciting the speech of praises of Vai$vinara (the benefactor of all men); the body of that speech are these wide-backed regions. Reciting that speech at our happy gatherings, may we become the masters of riches.

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    Translation

    O people! begin your work with the Pronunciation of the canon of Vedic speech which is full of truth and of which the spatial regions Serving as backgrounds, are the medium of expansion. With this speech we praying in our yajnas become the master of wealth.

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    Translation

    O learned persons, study daily the Vedas, the Word of God, Whose bodies are resplendent regions. Through hers may we in sacrificial banquets singing her glory, be the lords of riches!

    Footnote

    ‘Whose’ refers to the Vedas. Whose bodies-regions : whose knowledge is spread everywhere. Her: Vedic speech. See Yajur, 19-44.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(वैश्वानरीम्) अ० १।१।४। वैश्वानर−ङीप्। सर्वनरहिताम् (सूनृताम्) अ० ३।१२।२। प्रियसत्यात्मिकां वेदवाणीम्। (आरभध्वम्) उपक्रमध्वम् (यस्याः) सूनृतायाः (आशाः) आङ्+अशू व्याप्तौ−अच्, टाप्। विस्ताराः (तन्वः) अ० १।१।१। तन्वाः शरीरस्य। स्वरूपस्य (वीतपृष्ठाः) वी गतिव्याप्त्यादिषु−क्त। तिथपृष्ठ०। उ० २।१२। इति पृषु सेचने−थक्। (तया) सूनृतया (गृणन्तः) गॄ शब्दे−शतृ। शब्दयन्तः (सधमादेषु) सह+मदी हर्षग्लेपनयोः−घञ्। सधमादस्थयोश्छन्दसि। पा० ६।३।९६। सहर्षोत्सवेषु (वयम्) वेदानुगामिनः (स्याम) भवेम (पतयः) स्वामिनः (रयीणाम्) बहुधनानाम् ॥

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