अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
ऋषिः - कबन्ध
देवता - जातवेदा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्रतिष्ठापन सूक्त
23
जात॑वेदो॒ नि व॑र्तय श॒तं ते॑ सन्त्वा॒वृतः॑। स॒हस्रं॑ त उपा॒वृत॒स्ताभि॑र्नः॒ पुन॒रा कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठजात॑ऽवेद: । नि । व॒र्त॒य॒ । श॒तम् । ते॒ । स॒न्तु॒ । आ॒ऽवृत॑: । स॒हस्र॑म् । ते॒ । उ॒प॒ऽआ॒वृत॑: । ताभि॑: । न॒: । पुन॑: । आ । कृ॒धि॒ ॥७७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
जातवेदो नि वर्तय शतं ते सन्त्वावृतः। सहस्रं त उपावृतस्ताभिर्नः पुनरा कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठजातऽवेद: । नि । वर्तय । शतम् । ते । सन्तु । आऽवृत: । सहस्रम् । ते । उपऽआवृत: । ताभि: । न: । पुन: । आ । कृधि ॥७७.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संपदा पाने का उपदेश।
पदार्थ
(जातवेदः) हे बहुत धनवाले पुरुष ! [हमारी ओर] (नि वर्तय) लौट आ। (ते) तेरे (आवृतः) आगमन के उपाय (शतम्) सौ, और (ते) तेरे (उपावृतः) समीप में भ्रमणमार्ग (सहस्रम्) सहस्र (सन्तु) होवें। (ताभिः) उन क्रियाओं से (नः) हमें (पुनः) अवश्य (आ कृधि) स्वीकार कर ॥३॥
भावार्थ
जो पुरुष अपने विद्याबल से अनेक रक्षा के उपाय जानते हैं, मनुष्य उनकी सहायता प्राप्त करते रहें ॥३॥
टिप्पणी
३−(जातवेदः) जातानि वेदांसि धनानि यस्य तत्संबुद्धौ हे महाधनिन् पुरुष (नि वर्तय) निवृत्य आगच्छ (शतम्) बहुसंख्याकाः (ते) तव (सन्तु) (आवृतः) वृतु−क्विप्। आवर्तनानि। आगमनोपायाः (सहस्रम्) बहुप्रकाराः (ते) (उपावृतः) समीपदेशप्राप्त्युपायाः (ताभिः) आवृद्भिरुपावृद्भिश्च (नः) अस्मान् (पुनः) अवधारणे (आकृधि) स्वीकुरु ॥
विषय
आवृत:-उपावृतः
पदार्थ
१. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (निवर्तय) = हमें इस योनि-भ्रमण से लौटाकर मोक्ष में स्थित कीजिए। हमारे जीवनों में (ते) = आपके (शतम् आवृतः सन्तु) = सैकड़ों आवर्तन हों-हम आपका ही बारम्बा स्मरण करें। (ते) = आपके (सहस्त्रम्) = हज़ारों ही (उपावृतः) = समीप (आवर्तन) = सान्निध्य उपस्थान हों। हम सदा आपकी उपासना करें । २. (ताभिः) = उन आवर्तनों व उपावर्तनों से-नाम स्मरण व उपासना से (न:) = हमें (पुन:) = फिर (आकृधि) = अपने अभिमुख कीजिए।
भावार्थ
हम प्रभु का स्मरण व उपासन करते हुए इस जन्म-मरण के चक्र में भटकने से बचकर प्रभु की ओर जानेवाले बनें।
विशेष
प्रभु के स्मरण व उपासन से स्थिरवृत्ति का बननेवाला 'अथर्वा' अगले चार सूक्तों का ऋषि है।
भाषार्थ
(जातवेदः) हे उत्पन्न पदार्थों को जानने वाले परमेश्वर ! (निवर्तय) हमारे राग-द्वेष आदि की निवृत्ति कर, ताकि (शतम्)१ सौ (ते आवृतः) तेरे आगमन (सन्तु) हमारे हृदयों में हों। (ते) तेरे (सहस्रम्) हजारों (उपावृतः) हमारी उपासनाओं में समीप आगमन हों, (ताभिः) उन आगमनों और उपागगनों द्वारा (पुनः) बार बार (आ कृधि) आगमन और उपागमन कर।
टिप्पणी
[१. ये दोनों पर “बहुत्व" के सूचक हैं।]
विषय
ईश्वर से राजा की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (जात-वेद:) सर्वज्ञ, सर्वव्यापक ईश्वर ! (ते) तेरे रचे हुए (शतम्) सैकड़ों (आ-वृतः) आवरण, देह, व्यवस्थाएं हैं। तो भी हमें (नि वर्त्तय) उन सब बंधनों से दूर कर। (ते उप-आ-वृतः सहस्रम्) तेरे बनाए कर्मबन्धन भी असंख्य हैं (ताभिः) उनसे (नः) हमें (पुनः) फिर (आ कृधि) अपने को ही साक्षात् करने में समर्थ कर।
टिप्पणी
‘पुनर्नो नष्टमाकृधि’, ‘पुनर्नो रयिमाकृधि’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कबन्ध ऋषिः। जातवेदो देवता। १-३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Unassailable Stability
Meaning
O Jataveda, lord omnipresent and omniscient, arise and manifest into my consciousness, hundreds be your reflections and revisits. Thousands be your manifestations in the soul. With these returns and reflections, pray bless us again and again. Let the divine circuit go on.
Translation
O knower of all, may you tum back. May there be a hundred of your coming and a thousand of your going back. With them, may you restore us to prosperity again.
Translation
There are hundreds of turning back and thousands of coming and going of the soul who is the master of the body born, let this soul assume birth again and All-pervading God send him united with these bodies and series of birth and rebirth.
Translation
O Omniscient, Omnipresent God, hundreds are the mortal frames created by Thee, release us from all of them by granting us salvation. Thousands are the shackles imposed by Thee on our deeds, grant us strength to visualize Thee, again, in spite of them.
Footnote
Hundreds and thousands mean countless.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(जातवेदः) जातानि वेदांसि धनानि यस्य तत्संबुद्धौ हे महाधनिन् पुरुष (नि वर्तय) निवृत्य आगच्छ (शतम्) बहुसंख्याकाः (ते) तव (सन्तु) (आवृतः) वृतु−क्विप्। आवर्तनानि। आगमनोपायाः (सहस्रम्) बहुप्रकाराः (ते) (उपावृतः) समीपदेशप्राप्त्युपायाः (ताभिः) आवृद्भिरुपावृद्भिश्च (नः) अस्मान् (पुनः) अवधारणे (आकृधि) स्वीकुरु ॥
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